देश को आजाद हुए 70 बरस होने जा रहे हैं. लेकिन देश में एक गांव ऐसा भी है जहां आने-जाने का कोई साधन नहीं होने की वजह से लोगों को हर दिन जान हथेली पर रख कर नदी पार करनी पड़ती है. अगर वो ऐसा नहीं करें तो उन्हें आने-जाने के लिए कम से कम 20 किलोमीटर का चक्कर काटना पड़ता है. नदी के एक किनारे पर जादूगोड़ा कस्बा है जो अपनी यूरेनियम की खानों के लिए देश-विदेश में प्रसिद्ध है. वहीं नदी के दूसरी ओर स्वाशपुर गांव स्थित है. हैरानी की बात है कि इस गांव के लोगों की परेशानी को दूर करने के लिए अधिकारियों ने कभी कच्चा पुल बनाने तक की भी बात नहीं सोची.
झारखंड में जमशेदपुर से महज 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है गांव स्वाशपुर. कर्रा नदी के किनारे बसे इस गांव की करीब एक हजार की आबादी को आजादी के सात दशक बाद भी विकास की रोशनी पहुंचने का इंतजार है. यहां बच्चों के लिए स्कूल जाना हो या किसी बीमार बुजुर्ग को अस्पताल पहुंचाना, हर काम के लिए नदी को पार करने के अलावा कोई चारा नहीं है. नदी पार करने के लिए ट्रक की ट्यूब, बर्तन, लकड़ी के फट्टों आदि का सहारा लिया जाता है. बीमार व्यक्ति को नदी पार कराने के लिए चारपाई को बड़ी ट्यूबों के साथ बांधा जाता है. छोटे बच्चों को पतीलों या बॉल्टी में बिठा कर नदी पार कराई जाती है.
ताज्जुब की बात है कि इस गांव की सुध लेने के लिए कभी कोई नेता या प्रशासन के अधिकारी क्यों सामने नहीं आए. वो भी ऐसी स्थिति में जब प्रधानमंत्री ने सांसदों से हर साल एक गांव को गोद लेकर उसे आदर्श गांव बनाने की अपील कर रखी है.
गांव के लोगों का कहना है कि कर्रा नदी का पानी प्रदूषित होने की वजह से लोगों को चर्म रोग समेत कई तरह की बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है. स्वाशपुर के निवासी राजू महतो का कहना है कि गांव के लोग 60 साल से ऐसे ही हालात देख रहे हैं. वहीं शिवनंदन महतो का कहना है कि जादूगोड़ा से स्वाशपुर सिर्फ जीरो किलोमीटर की दूरी पर है लेकिन बीच में कर्रा नदी की वजह से दोनों तरफ दो अलग अलग दुनिया बसी दिखती हैं.
देखना है कि स्वाशपुर के लोगों पर कब झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास की नजर पड़ती है और कब उन्हें अपने हर काम के लिए नदी पार करने के झंझट से छुटकारा मिलता है.