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भोपाल गैस त्रासदी: कश्मकश की उस रात के 31 साल और पल-पल मरते लोग

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में दो दिसंबर 1984 की रात में यूनियन कार्बाइड संयंत्र से जहरीली गैस रिसी और एक रात में ही उसने तीन हजार से ज्यादा लोगों को मौत की नींद सुला दिया.

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मध्य प्रदेश की राजधानी में 31 वर्ष पूर्व हुए गैस हादसे के शिकार लोगों की चौथी पीढ़ी भी दुष्परिणामों को भोग रही है. आलम यह है कि एक लाख की आबादी में ढाई हजार से ज्यादा बच्चे विकृति का शिकार हैं, इनमें 17 सौ बच्चे जन्मजात विकृति का शिकार पाए गए हैं. यह बात संभावना ट्रस्ट क्लीनिक की एक स्टडी में सामने आई है.

गैस कांड के पीड़ितों और प्रदूषित भूजल प्रभावितों को मुफ्त इलाज देने वाले संभावना क्लीनिक ने हाल ही में 20 हजार से ज्यादा परिवारों के एक लाख से अधिक लोगों पर अध्ययन पूरा किया है. चार समान आबादी वाले समुदाय पर जो अध्ययन हुआ है, उसमें 84 में गैस से प्रभावित, प्रदूषित भूजल से प्रभावित, गैस और प्रदूषित भूजल दोनों से प्रभावित और अप्रभावित लोग शामिल हैं.

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जन्म से ही बच्चों में आ रही है विकृति
पिछले तीन सालों में क्लीनिक के शोधकर्मियों ने चिकित्सक द्वारा प्रमाणित टीबी, कैंसर, लकवा, महिलाओं का प्रजनन स्वास्थ्य तथा शिशुओं और बच्चों की शारीरिक, मानसिक व सामाजिक विकास की जानकारी इकट्ठा की है. संभावना के शोधकर्मियों ने इस आबादी में 2500 से ज्यादा ऐसे बच्चों की पहचान की है, जिनमें संभवत: जन्मजात विकृति है. इतना ही नहीं, देश के अलग-अलग हिस्सों से आए 30 चिकित्सकों ने 1700 से अधिक बच्चों को जन्मजात विकृति से ग्रस्त पाया है.

स्टडी के फील्ड को-ऑर्डिनेटर रीतेश पाल ने मंगलवार को शोध का ब्यौरा जारी करते हुए बताया कि प्राथमिक अवलोकन से यह सामने आया है कि अपीड़ित आबादी के मुकाबले जहरीली गैस या प्रदूषित भूजल से प्रभावित आबादी में जन्मजात विकृतियों की दर कहीं ज्यादा है. उन्होंने कहा कि अगले छह महीने में अध्ययन के नतीजे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जारी किए जाएंगे.

बच्चों के इलाज के लिए हर संभव मदद
रीतेश पाल की सहयोगी आफरीन ने बताया कि उन्होंने सिर्फ बच्चों की विकृति के बारे में ही जानकारी नहीं जुटाई है, बल्कि ऐसे बच्चों को इलाज मुहैया कराने में भी मदद कर रहे हैं. उनके मुताबिक, अब तक मंदबुद्धि, सेरेब्रल पाल्सी, (अंडकोष की विकृति), सिन्डेक्टिली-पालिटेक्टिली (उंगलियों की विकृति) और अन्य जन्मजात विकृतियों वाले 164 बच्चों को इलाज के लिए सरकारी और गैर सरकारी चिकित्सा केंद्रों में भेजा जा चुका है. इनमें से 43 बच्चों का इलाज पूरा हो चुका है.

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संभावना ट्रस्ट क्लीनिक में गैस पीड़ित एवं कारखाने के पास रहने वाले प्रदूषित भूजल पीड़ित 31 हजार से ज्यादा लोग पंजीकृत हैं. इस क्लीनिक में एलोपैथी, आयुर्वेद और योग तीनों के जरिए समेकित इलाज दिया जाता है. क्लीनिक को चलाने के लिए भारत और ब्रिटेन के 15 हजार से अधिक लोग आर्थिक मदद करते हैं. इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय लेखक डॉमिनिक लेपियर संभावना द्वारा संचालित स्त्री रोग क्लीनिक एवं अनौपचारिक विद्यालय के लिए धन जुटाते हैं.

हक की लड़ाई में बिछुड़े 20 हजार साथी
भोपाल के गैस पीड़ितों के हक के लिए संघर्ष कर उन्हें स्वावलंबी बनाने में जुटे हुए अब्दुल जब्बार की कहानी भी काफी मार्मिक है. एक संगठन बनाकर बीते 30 वर्ष के संघर्ष में जब्बार पीड़ितों को हक का कुछ हिस्सा दिलाने में तो सफल रहे हैं, मगर अब भी बहुत कुछ मिलना बाकी है. उन्हें इस बात का मलाल है कि उनकी इस संघर्ष यात्रा के दौरान 20 हजार से ज्यादा साथी उनसे बिछुड़ गए हैं.

हादसे की रात से अब तक जारी है संघर्ष
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में दो दिसंबर 1984 की रात में यूनियन कार्बाइड संयंत्र से जहरीली गैस रिसी और एक रात में ही उसने तीन हजार से ज्यादा लोगों को मौत की नींद सुला दिया. वहीं हजारों लोग बीते 31 वर्षो में जहरीली गैस से मिले रोगों के चलते मारे जा चुके हैं और अभी भी हजारों लोग मौत की दहलीज पर खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं. हादसे की रात से ही अब्दुल जब्बार ने पीड़ितों के बीच जाकर काम शुरू कर दिया था. उस वक्त उनकी उम्र 28 वर्ष थी, अब 58 वर्ष के हैं. हादसे के एक वर्ष बाद उन्होंने भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन बनाया और संघर्ष का सिलसिला आगे बढ़ाया.

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अपने संघर्ष की कहानी का ब्योरा देते हुए अब्दुल जब्बार ने बताया कि पीड़ितों के हक की लड़ाई में पहली सफलता 1988 में मिली जब सुप्रीम कोर्ट ने गुजारा भत्ता देने का निर्णय सुनाया. उसके बाद फरवरी 1989 में भारत सरकार और यूनियन कार्बाइड के बीच भोपाल समझौता हुआ. इसके मुताबिक घायलों को 25-25 हजार और मृतकों को एक-एक लाख मिला. इसके बाद प्रोरेटा पर घायलों को 25-25 हजार और मृतकों के परिजनों को एक-एक लाख अतिरिक्त मिला.

पांच लाख से ज्यादा लोग हुए शिकार
अब्दुल जब्बार बताते हैं कि मृतकों की संख्या को लेकर शुरू से विवाद रहा है, मगर वर्ष 2001 में एक चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया जिसमें पता चला कि 15 हजार 276 लोगों की मौत हुई है और पांच लाख 76 हजार से ज्यादा लोग गैस के दुष्प्रभावों का शिकार है. दूसरी ओर उनके संगठन की लड़ाई के चलते ही वर्ष 2010 में भोपाल के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी की अदालत ने यूनियन कार्बाइड के अफसरों को दो-दो वर्ष की सजा सुनाई, मगर अफसोस है कि इस पर अब तक अमल नहीं हुआ है.

उन्होंने आगे बताया कि वर्ष 2001 में आए मौत और प्रभावितों के आंकड़ों के आधार पर यूनियन कार्बाइड से पांच गुना और अधिक मुआवजा दिए जाने के लिए उनके संगठन ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की, इसी बीच तत्कालीन सरकार ने संख्या सुधार के लिए केरेटिव पिटीशन दायर कर दी. दोनों याचिकाएं लंबित हैं.

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जब्बार बताते हैं कि एक तरफ उनकी न्यायालयीन लड़ाई जारी है तो दूसरी ओर उनका संगठन सड़क पर उतरता रहता है. शाहजहांनी पार्क इस बात का गवाह है जहां 1986 से हर मंगलवार और शनिवार को गैस पीड़ित इकट्ठा हेाकर अपनी आवाज बुलंद करते रहे हैं, अब सिर्फ शनिवार को लोग इकट्ठा होते हैं, क्योंकि सप्ताह में दो बार आने पर किराए में ज्यादा धनराशि खर्च हो जाती है.

त्रासदी के पीड़ितों के लिए शुरू की मुहिम
गैस पीड़ितों की लड़ाई के लिए जहां संगठन बनाया था वहीं प्रभावितों को आर्थिक तौर पर सक्षम बनाने के लिए स्वाभिमान केंद्र चलाया जा रहा है. इस केंद्र में सिलाई, कढ़ाई, जरी का काम और कंप्यूटर का प्रशिक्षण दिया जाता है. यह केंद्र साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल है, यहां हिंदू-मुस्लिम महिलाएं न सिर्फ एक साथ प्रशिक्षण लेती हैं, बल्कि साथ खाने में भी परहेज नहीं करती. इस केंद्र से अब तक आठ हजार से ज्यादा महिलाएं प्रशिक्षण पा चुकी है.

जब्बार बताते हैं कि बीते 30 वर्ष के इस संघर्ष के दौरान उनका साथ देने वाले 20 हजार से ज्यादा लोगों को उन्होंने बिछुड़ते देखा है. ये वे लोग है जो उनके संघर्ष के न केवल साथी थे बल्कि उनसे पारिवारिक रिश्ते भी थे. कई दफा तो उन्हें किसी की मौत की खबर आई तो लगा कि अगर उसे बेहतर इलाज मिल जाता तो वह बच जाता, मगर ऐसा हो न सका.

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कम नहीं हुआ हक की लड़ाई का जज्बा
राजधानी के बीचों बीच सेंट्रल लाइब्रेरी के करीब स्थित भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के कार्यालय में मौसम कोई भी हो हर वक्त लोगों के आने जाने का सिलसिला लगा रहता है, कोई अपनी समस्या बताता है तो कोई समस्या के निपट जाने का हाल बताता है. हादसे को हुए भले 31 वर्ष गुजर गए हों, मगर प्रभावितों में अपने हक की लड़ाई का जज्बा कम नहीं हुआ है.

- इनपुट IANS

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