कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और वर्ष 1993 से 2003 तक दस सालों तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह इस बार मुख्यमंत्री की दौड़ से खुद को बाहर कर चुके थे, लेकिन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष से लेकर पर्दे के पीछे की चुनावी रणनीति और मुख्यमंत्री की कुर्सी का फैसला राघोगढ़ के 'दिग्गी राजा' के इशारे पर ही होता दिख रहा है.
दरअसल, बिजली, सड़क और पानी के मुद्दे पर 2003 में एमपी की सत्ता से बाहर हुए दिग्विजय ने 10 साल तक चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान किया था. 2008 और 2013 के चुनावों में दिग्विजय ने राज्य की राजनीति में मुख्यमंत्री की कुर्सी से दूरी बनाए रखी, हालांकि वो अपने समर्थकों को चुनावी टिकट दिलाते रहे, लेकिन राज्य की राजनीति की बजाय केंद्र की राजनीति को तरजीह देते रहे.
कुछ बयानों के चलते घटा दिग्विजय का कद
राहुल के करीबी महासचिव दिग्विजय ने आखिर 10 साल की चुनाव ना लड़ने प्रतिज्ञा पूरी करने के बाद राज्यसभा का चुनाव लड़ा और सांसद बने. इसी बीच प्रो मुस्लिम छवि, बतौर प्रभारी 2012 में यूपी विधानसभा में हार और कुछ बयानों के चलते उनका कद घट गया. यहां तक कि उन्हें राहुल की कांग्रेस कार्य समिति में भी जगह नहीं मिली.
सियायत में अर्जुन सिंह के शागिर्द रहे दिग्गी हवा का रुख भांप चुके थे, इसीलिए बैक टू बेसिक्स के फॉर्मूले पर चल निकले. सबसे पहले प्रो मुस्लिम छवि बदलने के लिए दिग्विजय ने 6 महीने राजनीति से ब्रेक लेकर 3500 किलोमीटर की पैदल नर्मदा परिक्रमा की, जिसमें उनकी पत्नी अमृता ने उनका पूरा साथ निभाया. नर्मदा यात्रा पूरी करते ही वो फिर राज्य की राजनीति में अपनी पैठ मजबूत करने में जुट गए.
दरअसल, एमपी में कहा जाता है कि भले ही दिग्विजय आम जनता में ज्यादा लोकप्रिय ना हों, लेकिन पूरे राज्य में कार्यकर्ताओं में वो सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं. साथ ही पूरे राज्य की समझ और पकड़ भी उनके पास है, जबकि कमलनाथ जबलपुर संभाग और सिंधिया गुना ग्वालियर तक सीमित हैं.
दिग्विजय की सहमति के बाद कमलनाथ को सौंपी गई कमान
दिग्गी की इस ताकत का अहसास शायद राहुल गांधी को भी था, इसीलिए जब मई में प्रदेश अध्यक्ष चुनने की बारी आई, तो राहुल के सामने कमलनाथ या ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनने का विकल्प था, लेकिन बाद में दिग्विजय की सहमति के बाद ही कमलनाथ को राज्य की कमान सौंपी गई.
इसके बाद दिग्विजय ने कमलनाथ को सीएम बनाने और कांग्रेस की सरकार बनाने की मुहिम छेड़ दी. सबसे पहले मीनाक्षी नटराजन, अजय सिंह, कांतिलाल भूरिया, अरुण यादव, विवेक तनखा सरीखे नेताओं को अपने पाले में करके सिंधिया को अलग-थलग कर दिया. हालांकि, युवाओं में अपनी पकड़ और लोकप्रियता के चलते सिंधिया ने खुद को रेस में बनाये रखा. वहीं सिंधिया समर्थक सत्यव्रत चतुर्वेदी अपने बेटे को टिकट नहीं मिलने से नाराज होकर पार्टी में किनारे हो गए.
ऐसे में टिकट बंटवारे में अपने करीबी नेताओं के दम पर दिग्विजय ने बाजी मार ली. कमलनाथ भी जानते थे कि दिग्विजय खुद सीएम नहीं बनेंगे और सिंधिया से उनकी पुरानी अदावत किसी से छिपी नहीं. ऐसे में कमलनाथ भी दिग्विजय के साथ डटे रहे. इसके बाद दिग्विजय रैलियों की बजाय पर्दे के पीछे से अपनी भूमिका निभाते रहे.
बागियों को चुनावी रण से हटाने की जिम्मेदारी दिग्विजय ने निभाई
यहां तक कि, कांग्रेस के तमाम बागियों को चुनावी रण से हटाने की जिम्मेदारी भी दिग्विजय सिंह ने ही निभाई. आखिर दिग्विजय सिंह को भी इस बात का पूरा एहसास था कि अगर 15 साल बाद भी राज्य में कांग्रेस की सरकार नहीं आई तो 70 पार के दिग्गी की सियासी कहानी खत्म हो सकती है. इसीलिए दिग्गी ने पूरा पराक्रम लगा दिया, अपने बेटे जयवर्धन सिंह को तीसरी बार बड़े अंतर से विधायक बनवाया, तो सुषमा के खिलाफ लोकसभा चुनाव हारे भाई लक्ष्मण सिंह को भी विधानसभा पहुंचा दिया.
इसके बाद जब सब कुछ कांग्रेस के हक में हो गया तो दिग्विजय ने आलाकमान को दो टूक बताया कि, 70 पार के कमलनाथ का सीएम बनने का आखिरी मौका है, जबकि सिंधिया के पास सुनहरा भविष्य है. आखिर खुद को सीएम रेस से बाहर बता चुके दिग्गी को कमलनाथ और सिंधिया में से एक को ही चुनना था. कांग्रेस के केंद्र की सियासत से किनारे होने के बाद राज्य की सियासत में दिग्विजय ने अपनी सियासी ताकत दिखाकर और दखल बढ़ाकर वापसी का जोरदार बिगुल बजाया है.