महाराष्ट्र में सियासी संकट खड़ा करने वाले शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे एक समय ठाकरे परिवार के सबसे करीबी नेताओं में गिने जाते थे. पिछले तीन दिनों में एकनाथ शिंदे ने अपने साथ 45 विधायकों को जोड़कर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की कुर्सी को हिलाकर ही नहीं रख दी है बल्कि सत्ता से बेदखल करने की पटकथा भी लिख दी है.
महाराष्ट्र की सियासत में पहली बार ठाकरे परिवार के सामने चुनौती बनकर खड़े हुए मंत्री एकनाथ शिंदे शिवसेना संस्थापक बाला साहेब ठाकरे के साथ-साथ आनंद दिघे का नाम भी बार-बार रहे हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि महाराष्ट्र की राजनीति में आनंद दिघे कौन थे, जिनके विचारों की दुहाई और उनके बताए राजनीतिक मार्ग पर चलने की बात शिंदे कर रहे हैं. शिवसेना में पहली बार ऐसा देखने को मिला जब किसी नेता ने बाल ठाकरे के साथ किसी और नेता का नाम लिया है. ऐसे में आनंद दिघे क्या वाकई बाल ठाकरे के बराबर के कद के नेता थे?
सूबे की राजधानी मुंबई से सटे ठाणे जिले के सबसे प्रभावशाली नेताओं में एकनाथ शिंदे की गिनती होती है, लेकिन सियासत में वह आनंद दिघे की क्षत्रछाया में पढ़े बढ़े और उनकी उंगली पकड़कर शिवसेना में अपनी जगह बनाई. दिघे ठाणे-कल्याण के इलाके के ताकतवर शिवसेना नेता माने जाते थे. शिवसेना के शुरुआती नेताओं में से एक थे, जिन्होंने ठाणे में शिवसेना को मजबूत करने में अहम भूमिका अदा की है.
आनंद दिघे का जन्म 27 जनवरी 1952 को हुआ था और उनका घर ठाणे के तेम्बी नाका इलाके में था. बाला साहेब ठाकरे के भाषण और विचारधारा से आनंद दिघे प्रभावित होकर शिवसेना से जुड़े. दिघे ठाणे-कल्याण इलाके में बाल ठाकरे की हर बैठक में शामिल होते थे और 18 साल की उम्र में शिवसेना के लिए काम करने का फैसला किया. अस्सी के दशक में आनंद दिघे ने सियायत में कदम रखा तो फिर पलटकर नहीं देखा.
हिंदुत्व और मराठी अस्मिता को लेकर आनंद दिघे आगे बढ़े. शिवसेना के एक कार्यकर्ता के तौर पर अपनी सियासी पारी का आगाज किया, जिससे प्रभावित होकर बाल ठाकरे ने उन्हें ठाणे में पार्टी को खड़ी करने का जिम्मा सौंप दिया. शिवसेना ठाणे जिलाध्यक्ष की जिम्मेदारी मिलने के बाद दिघे कार्यालय में ही रहने लगे. दिघे शिवसेना की स्थानीय इकाई पर मजबूत नियंत्रण था. उन्होंने इलाके में शिवसेना का परचम बुलंद कर दिया था.
आनंद दिघे अपने सामाजिक सरोकारों के लिए भी चर्चा में रहे हैं. वह ठाणे के तेम्बी नाका और शिवसैनिकों की समस्याओं के लिए प्रतिदिन दरबार लगाकर लोगों की समस्याओं को सुलझाते थे. उन्होंने हमेशा लोगों के कल्याण के लिए अपने पद का इस्तेमाल किया. ठाणे नगर निगम की बस सेवा शुरू होने के बाद दिघे ने कई शिवसैनिकों को लगवाया था. आनंद दिघे की लोकप्रियता के कारण उन्हें ठाणे इलाके में बाल साहेब ठाकरे के नाम से भी जाना जाता था. दिघे ने जय अम्बे संस्था स्थापना कर नवरात्र उत्सव शुरू किया. उन्होंने दहीहांडी भी शुरू की थी.
मार्च 1989 में हुए ठाणे नगर निगम के चुनाव में शिवसेना के 30 पार्षद चुनकर आए थे और शिवसेना ने जनता पार्टी से हाथ मिला लिया और महापौर पद के लिए दावा किया. शिवसेना के कुछ पार्षद अलग हो गए थे और महापौर के लिए कांग्रेस को वोट दे दिया था. आनंद दिघे उस समय ठाणे के जिला प्रमुख थे और उन्होंने कहा था कि देशद्रोहियों के लिए कोई माफी नहीं है.
आनंद दिघे के बयान के कुछ दिनों बाद शिवसेना के पार्षद श्रीधर खोपकर की तलवार से हत्या कर दी गई, क्योंकि उन्होंने महापौर चुनाव में कांग्रेस को वोट दिया था. इस हत्या का आरोप आनंद दिघे पर लगा था, लेकिन उन पर आरोप सिद्ध नहीं हो सका. हालांकि, उन्हें टाडा के तहत भी गिरफ्तार किया गया था, लेकिन बाद में जमानत पर रिहा हो गए थे. हालांकि, शिवसेना नेताओं ने आनंद दिघे के काम करने के तरीके पर सवाल उठाया था. इसके बाद दिघे ने अपनी भूमिका स्पष्ट करते हुए कहा था कि 'मैं बालासाहेब ठाकरे की सहमति से ही काम कर रहा हूं.
महाराष्ट्र के ठाणे-कल्याण इलाके में शिवसेना पार्टी में बाला साहेब ठाकरे के बाद आनंद दिघे सबसे बड़े कद्दावर और दबंग नेता माने जाते थे. एकनाथ शिंदे ने राजनीति के दांवपेच आनंद दिघे से सीखा है. उन्हें जिन्होंने यह सब सिखाया, वे ठाणे के ठाकरे हैं, नाम है आनंद दिघे. दिघे के शागिर्द के तौर पर शिंदे ने खुद को स्थापित किया. शिंदे ने दिघे को अपना रोलमॉडल बना लिया. पहनावे और बोलचाल में भी वह उनकी तरह दिखने की कोशिश करने लगे.
दिघे ने शिंदे को उनकी वफादारी का ईनाम भी दिया. शिंदे को 1997 में ठाणे म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन की सीट जिताने में दिघे ने पूरी मदद की. कहा जाता है कि दिघे ने शिंदे को ठाणे नगर निगम में सदन का नेता बना दिया था. साल 2000 में हुए हादसे में जब एकनाथ शिंदे के दोनों बच्चों की मौत हो गई थी तब आनंद दिघे ने ही शिंदे को सहारा दिया था और शिवसेना की राजनीति में स्थापित किया.
साल 2001 के अगस्त महीने में कार एक्सीडेंट में आनंद दिघे घायल हो गये थे, लेकिन इलाज के दौरान दिघे की मौत हो जाती है. शिवसेना ने आरोप लगाया था कि इलाज में लापरवाही के कारण उनकी मौत हुई. ऐसे में नाराज कार्यकर्ताओं ने पूरे अस्पताल को आग के हवाले कर दिया था. वे जनता की मदद के लिए हमेशा आगे रहते थे. इसी वजह से शिवसैनिकों ने उन्हें धर्मवीर का नाम दिया था. निधन के बाद आनंद दिघे पर धर्मवीर नाम की एक मराठी फिल्म बनी थी. आनंद दिघे की मौत के बाद कई तरह की चर्चाएं हुई थीं और इन पर आज तक विराम नहीं लग सका है.
आनंद दिघे के निधन के बाद ठाणे में एकनाथ शिंदे आगे बढ़े. इसी बीच 2005 में नारायण राणे ने शिवसेना छोड़ दी, जिसके बाद एकनाथ शिंदे का कद पार्टी में बढ़ता चला गया. शिवसेना ने शिंदे को ठाणे-कल्याण के इलाके में फ्री हैंड दे दिया. शिंदे को शिवसेना का संकटमोचक कहा जाता है और जब तक बाला साहेब ठाकरे जीवित रहे तब तक महाराष्ट्र में तमाम बड़े फैसलों में वह शिंदे की राय लेते थे. उद्धव ठाकरे ने भी एकनाथ शिंदे को आगे बढ़ाया, लेकिन साल 2019 में महा विकास आघाड़ी की सरकार बनने के बाद से वह नाराज चल रहे थे.