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Maharashtra Political Crisis: 90 के दशक में जिस शिवसेना से भारत का बच्चा-बच्चा परिचित हो गया था, उस शिवसेना का मतलब था हिंदू पहचान की उग्र ध्वजवाहक. शिव का नाम, हाथ में भगवा और त्रिशूल, पार्टी सिंबल में दहाड़ता हुआ शेर. शिवसेना कई लोगों के लिए गर्व और धर्म युद्ध की सेना थी तो कइयों के लिए ठोकतंत्र का खौफ. कहा जाता है कि मुंबई में पत्ता भी बाल ठाकरे की इजाजत के बिना नहीं हिलता था.
यह अनायास ही नहीं है कि बाबरी विध्वंस में विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल के बराबर का श्रेय शिवसेना को दिया जाता था. एक मराठा पहचान और परिधि वाली पार्टी के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि थी कि उत्तर भारत में रामजन्मभूमि के आंदोलन में उसका नाम पहली पंक्ति में शामिल था.
मुंबई में दंगे हों या क्रिकेट, सिनेमा हो या माफिया, शिवसेना की शरण में सबके किरदार बताए जाते थे. 90 के दशक में बाल ठाकरे की एक आवाज के बाद मुंबई में चाय का एक प्याला तक मिल पाना मुश्किल हो जाता था. मातोश्री एक दरबार था जहां फैसले होते थे, सुलह होती थी, रिमोट से शहर और राजनीति चलती थी.
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फिर धीरे-धीरे काले चश्मे से चीरकर देखने वाली आंखें कमजोर पड़ती गईं. पार्टी में उत्तराधिकार का प्रश्न खड़ा हो गया. विकल्प दो थे- पुत्र और भतीजा. उद्धव शांत स्वभाव के बेटे थे और राज ठाकरे उग्र तेवर वाले भतीजे. पार्टी में राज ठाकरे को एक समय बाल ठाकरे का उपयुक्त वारिस माना जाता था. लेकिन फिर सेना टूट गई. राज ठाकरे की जगह शिवसेना का सिंहासन उद्धव को मिला. राज ठाकरे मराठी अस्मिता के झंडाबरदार बनकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के जनक बने.
आगे की कहानी विरासत की लड़ाई है. शिवसेना और मनसे अब आमने-सामने थे. बाला साहेब के निधन के बाद ये खेल खुलकर अखाड़े में आ गया. उत्तराधिकार से लेकर मराठा पहचान तक एक नरम दल तो एक गरम दल के तौर पर देखी जाने लगी उद्धव और राज की राजनीतिक पार्टियां और सोच.
कमजोर पड़ती शिवसेना
शिवसेना के कमजोर होने का क्रम यहीं से शुरू हो चुका था. राज ठाकरे की आवाज ऊंची थी. तरीके आक्रामक. उन्होंने कुछ दिनों तक मुशायरा लूटा. हालांकि उत्तर भारतीयों को निशाना बनाने की शैली ने उनका राजनीतिक रूप से नुकसान ही किया. शिवसेना मनसे के सारे शोर के बावजूद बाल ठाकरे के अनुयायियों की पहली पसंद बनी रही.
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लेकिन शिवसेना अब अपना तेवर खो चुकी थी. राजनीति के अखाड़े में बाल ठाकरे के नाम की जो तूती बोलती थी, वो अब पहले जैसी नहीं रही. 2019 के विधानसभा चुनाव तक जो शिवसेना भाजपा के साथ थी, उसने जीत के बाद महज 56 सीटों के बदौलत मुख्यमंत्री की सीट पर दावा ठोका. गठबंधन टूटा. शिवसेना ने खुद की दावेदारी बुलंद की. विपक्ष में पवार की एनसीपी और कांग्रेस ने अपना समर्थन दिया. उद्धव मुख्यमंत्री बने. लेकिन शपथ से पहले और उसके बाद तक लगातार शिवसेना हमले झेलती रही.
शिवसेना के समर्थक इंतजार करते रहे कि उद्धव दहाड़ेंगे. लेकिन उद्धव डिफेंसिव रहे. कोरोना से लेकर समर्थकों और भाजपा तक उद्धव घिरे ही रहे. लोगों के बीच अपनी जिन भी मजबूरियों के चलते उद्धव कम ही आ सके, उससे उनकी व्यक्तिगत छवि को नुकसान ही होता रहा. ऐसा भी कहा जाता रहा कि उद्धव के बेटे, आदित्य ठाकरे ही सरकार चला रहे हैं.
अब जबकि शिवसेना की विधायक मंडली से एक बड़ी संख्या बागी होकर राज्य से बाहर है, शिवसेना के पास सरकार बचा पाने का संकट है. लेकिन संकट केवल सरकार बचाने का नहीं है. यहां से कमजोर पड़ी शिवसेना के सामने अब संकट में वर्चस्व भी है. पार्टी के ऐसे लोग, जो विश्वासपात्र थे, जिन्होंने संगठन को समय और श्रम दिया था, जिन्होंने शिवसेना का झंडा उठाकर उसे विधानसभा में मजबूत किया था, वे लोग अब पार्टी से किनारा कर रहे हैं.
यही शिवसेना की छवि के लिए सबसे बड़ा धक्का है. एक पार्टी, जो कभी पूरे मुंबई और महाराष्ट्र को रिमोट से कंट्रोल कर लेती थी, आज सत्ता में होकर अपने विधायक तक नहीं संभाल पा रही. इससे शिवसेना के निहायत शिथिल होने की छवि बन गई है जिससे निकल पाना उद्धव के लिए आसान नहीं होगा.
शिवसेना ने तेवर से समझौता किया. शिवसेना ने विचारधारा से समझौता किया. शिवसेना ने सत्ता के लिए सिद्धांतों से समझौता किया. शिवसेना ने पिछले तीन वर्षों में ऐसा बहुत कुछ किया है जो शिवसेना जैसा नहीं है. और यह सब करते हुए वो अब अपना कुनबा तक साध पाती नजर नहीं आ रही.
अच्छे के लिए ही सही लेकिन शिवसेना का भय अब खत्म हो चला है. न लोगों में है और न विधायकों में. अब न शेर जैसी दहाड़ है और न झंडे का भगवा रंग पुख्ता है. शिवसेना के लिए सत्ता हासिल कर लेना एकमात्र लक्ष्य तो बना लेकिन उस लक्ष्य ने शिवसेना से शिवसेना को ही छीन लिया है. चुनौती यह है कि ठाकरे परिवार उस छिनी हुई शिवसेना को फिर से क्या कभी एकीकृत कर पाएगी?