एक जमाने में बीजेपी सियासी रूप से अछूत पार्टी मानी जाती थी. कोई भी दल केंद्रीय राजनीति में बीजेपी के साथ गठबंधन को तैयार नहीं थी. उस दौर में शिवसेना ने बीजेपी का साथ दिया. ये वो दौर था जब मुंबई में बाला साहेब की तूती बोलती थी. उनका आदेश किसी भी प्रशासनिक आदेश के ऊपर माना जाता था. एक समानांतर सत्ता की तरह चलता था शिवसेना का शासन.
वक्त के साथ शिवसेना के कंधे पर सवार होकर महाराष्ट्र की रानजीति में प्रवेश करने वाली बीजेपी ने अपनी ताकत बढ़ा ली. उसकी हैसियत छोटे भाई से बड़े भाई में तब्दील हो गई. लोकतंत्र में संख्याबल सबसे बड़ा सच है और उस सच्चाई में शिवसेना कहीं ना कहीं पिछड़ गई. अब सीट तो शिवसेना की कम हुई लेकिन उसकी हनक कम नहीं हुई.
जिद शिवसेना की पहचान
हर हाल में अपनी बात मनवाने की जिद बाला साहेब के जमाने से शिवसेना की पहचान है. दरअसल पिछले करीब पांच दशकों से शिवसेना मुंबई में सत्ता का पर्याय बनी हुई है. विधानसभा में अगर कभी गच्चा खाया भी तो बीएमसी पर एकछत्र शिवसेना का राज्य कायम रहा. मराठी अस्मिता के बहाने वहां के मराठी लोगों की रगों में शिवसेना और खासतौर पर बालासाहेब इस तरह रच बस गए हैं.
पहली नजर में भले ही शिवसेना का एनसीपी और कांग्रेस के साथ जाने को लोग उसकी मूल भावना से अलग मानते हैं लेकिन सियासत में बहुत सी बातें किंतु-परंतु से परे होती हैं.
जब शिवसेना थी वसंत सेना
महाराष्ट्र की राजनीति को समझने वाले इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि बाला साहेब और शिवसेना को शुरुआत में खड़ा करने के पीछे भी कांग्रेस का ही हाथ रहा है. उस वक्त की सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी ने करीब दो दशकों तक बाल ठाकरे का सहयोग किया. उस दौरान लाल झंडे वालों का मुंबई में बड़ा बोलबाला था. हर बात पर आंदोलन से तंग महाराष्ट्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार को उसको जवाब देने वाला शख्स चाहिए था. बाला साहेब में कांग्रेस को वो जवाब दिख गया.
कांग्रेस ने कम्युनिस्ट आंदोलन को तोड़ने में ठाकरे से मदद ली. बदले में शिवसेना को खड़ा करने में उनका सहयोग किया. उन दिनों महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे वसंतराव नायक. शिवसेना को लेकर उनके सॉफ्ट कार्नर की वजह से लोग मजाक में शिवसेना को तब ‘वसंत सेना’ भी कहते थे.
इंदिरा का समर्थन
वसंतराव नायक के बाद भी कई मौकों पर कांग्रेस के साथ शिवसेना खड़ी नजर आई थी. इसमें सबसे अहम वक्त वो था जब बाला साहब ने आपातकाल को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का समर्थन किया था. इतना ही नहीं जब इंदिरा गांधी को 1978 में गिरफ्तार किया गया तो शिवसेना ने उसके विरोध में बंद का आह्वान भी किया था.
एनसीपी के साथ रिश्ता पुराना
महाराष्ट्र में आगामी सरकार की रुपरेखा तय करने वाले शरद पवार के साथ शिवसेना का रिश्ता बहुत ही पुराना है. पवार उन लोगों में से थे जिन्हें बाला साहेब अपने यहां सपरिवार रात्रिभोज पर बुलाया करते थे. अपनी आत्मकथा 'ऑन माई टर्म्स' में शरद पवार ने लिखा है- बाला साहेब ने अगर एक बार आपको अपना दोस्त बोल दिया तो बोल दिया. वो अपनी दोस्ती हमेशा निभाते थे. ये वाकया सितंबर, 2006 का है जब मेरी बेटी सुप्रिया राज्यसभा चुनाव लड़ने वाली थी.
बाला साहेब ने मुझे फोन किया. वो बोले, 'शरद बाबू मैं सुन रहा हूं, हमारी सुप्रिया चुनाव लड़ने जा रही है और तुमने मुझे इसके बारे में बताया ही नहीं. मुझे यह ख़बर दूसरों से क्यों मिल रही है?'
"मैंने कहा, 'शिव सेना-बीजेपी गठबंधन ने पहले ही उसके ख़िलाफ़ उम्मीदवार उतार दी है. मैंने सोचा मैं आपको क्यों परेशान करूं.'
बाल ठाकरे बोले- मैंने सुप्रिया को तब से जनता हूं जब वो मेरे घुटनों के बराबर हुआ करती थी. मेरा कोई भी उम्मीदवार सुप्रिया के ख़िलाफ़ चुनाव नहीं लड़ेगा. तुम्हारी बेटी मेरी बेटी है.
मैंने उनसे पूछा- आप बीजेपी का क्या करेंगे?
उन्होंने जवाब दिया- कमलाबाई की चिंता मत करो. वो वही करेगी जो मैं कहूंगा.
क्यों साथ आ रही शिवसेना
संबंधों की इन्हीं मजबूती के दम पर आज शिवेसना एनसीपी और कांग्रेस के साथ सरकार बनाने का बड़ा कदम उठा रही है. कहते हैं कि सियासत में दुश्मन के साथ-साथ अपने दोस्त को भी ताकत दिखानी पड़ती है. शिवसेना इस बार बीजेपी को अपनी वही अंदरुनी ताकत दिखा रही है. वैसे बीजेपी के साथ शिवसेना की ये दूरी कोई पहली बार नहीं हुई है.
खासतौर पर 2014 में केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद स्थिति तनावपूर्ण कई बार नजर आई. आए दिन सामना में बीजेपी की आलोचना वाली हेडलाइन नजर आती थी. घरेलू से लेकर अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर शिवसेना का रुख सरकार के साथ रहते हुए भी अलग नजर आता था. तुम्हीं से मोहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई की तर्ज पर शिवसेना-बीजेपी साथ बनी हुई थी.
शुरुआती खींचतान से सबको यही लग रहा था कि एक दूसरे के साथ सौदेबाजी कर दोनों फिर साथ ही सरकार बनाएंगे लेकिन अब बात बहुत आगे बढ़ चुकी है. शिवसेना इसके लिए सिर्फ बीजेपी को जिम्मेदार बता रही है. सत्ता के 50-50 बंटवारे की बात को लेकर बाला साहेब की सौगंध खा रही है. अपना मुख्यमंत्री बनाने के लिए एनसीपी और कांग्रेस का साथ कबूल किया है. शायद ये एनडीए के दो सबसे पुराने दोस्तों में सियासी दुश्मनी की शुरुआत है.
क्या है सियासत का तकाजा?
सियासत का ये तकाजा है. जब भी की दल मजबूत स्थिति में होती तो दूसरे पर अपनी शर्त थोपती है. 2019 चुनाव से पहले जब देश में माहौल उस तरह से प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में नहीं दिख रहा था तब महाराष्ट्र में बीजेपी ने झुककर शिवसेना से समझौता किया. पिछली बार की तुलना में कम सीटों पर समझौता किया. ये बात अलग है कि जब परिणाम उनके पक्ष में आया. पहले से ज्यादा ताकत के साथ प्रधानमंत्री मोदी सत्ता में वापस आए. इसके बाद पहली दरार शपथग्रहण के दिन ही दिखी जब शिवसेना को कैबिनेट में सिर्फ एक ही जगह मिली. उस वक्त महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव पर नजरें गड़ाए शिवसेना ने चुप्पी साधे रखी लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद अपना असली पत्ता खोल दिया. सत्ता का खेल ऐसा है कि एनडीए को दो सबसे पुराने दोस्त आमने-सामने हैं. ये बात अलग है कि महाराष्ट्र के सिंहासन के सामने खड़े नए गठबंधन पर कई लोग सवालिया निगाह लगाए बैठे हैं.