मराठा आरक्षण का मुद्दा पूरे महाराष्ट्र में उग्र हिंसा का गवाह बन रहा है. यह मुद्दा एक लंबी कानूनी लड़ाई से गुजर रहा है और सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में इसे असंवैधानिक करार दिया है. पिछले महीने तत्काल सुनवाई के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष एक उपचारात्मक याचिका का उल्लेख किया गया था. कोर्ट की ओर से उचित समय पर सुनवाई की तैयारी है.
यह मुद्दा पहली बार 1997 में समुदाय के लिए अलग आरक्षण की मांग के साथ उठा. हालांकि, जुलाई 2008 में राज्य सरकार द्वारा गठित एक समिति, जिसकी अध्यक्षता रिटायर न्यायाधीश आरएम बापट ने की. उन्होंने अपनी रिपोर्ट दी, जिसमें मराठों के लिए आरक्षण का समर्थन नहीं किया गया.
छह साल बाद 2014 में अब भाजपा के केंद्रीय मंत्री नारायण राणे की अध्यक्षता वाली एक समिति ने सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी जिसमें कहा गया कि राज्य में 32% आबादी मराठों की है जिन्हें आर्थिक उत्थान की आवश्यकता है और इसलिए आरक्षण दी जाए. पृथ्वीराज चव्हाण के नेतृत्व वाली सरकार ने मराठों के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 16% और मुसलमानों के लिए 5% सीटें आरक्षित करने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी. एक अध्यादेश तुरंत पारित कर दिया गया लेकिन इसे बॉम्बे हाई कोर्ट के समक्ष चुनौती दी गई जिसने 2014 में कार्यान्वयन पर रोक लगा दी.
हाई कोर्ट ने बताया था कि राज्य द्वारा अपने दावे को साबित करने के लिए इस्तेमाल किया गया डेटा दोषपूर्ण था. फिर सरकार ने समुदाय के पिछड़ेपन का डेटा इकट्ठा करने के लिए एक आयोग का गठन किया. न्यायमूर्ति एमजी गायकवाड़ की अध्यक्षता वाले नौ सदस्यीय महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने 2018 में अपनी रिपोर्ट दी.
रिपोर्ट को स्वीकार करते हुए मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार ने 30 नवंबर, 2018 को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों (एसईबीसी) अधिनियम के लिए महाराष्ट्र राज्य आरक्षण पारित किया, जिसने मराठा समुदाय के लिए शिक्षा और सरकारी नौकरियों में 16% आरक्षण दिया. हालांकि इसमें मुस्लिम आरक्षण शामिल नहीं था.
इसके बाद अधिनियम को बॉम्बे उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, जिसने 2019 में यह माना कि समुदाय पिछड़ा था, लेकिन शिक्षा में आरक्षण 16% से घटाकर 12% और नौकरियों में 13% कर दिया. आरक्षण ने समग्र आरक्षण सीमा को क्रमशः 64% और 65% तक बढ़ा दिया था. उच्च न्यायालय ने कहा था कि 1992 के इंद्रा साहनी (मंडल) फैसले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित आरक्षण में 50% की सीमा को असाधारण परिस्थितियों में तोड़ा जा सकता है.
उच्च न्यायालय के फैसले को तुरंत सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई और 2021 में एक संवैधानिक पीठ ने माना कि 50% की सीमा को तोड़ने का कोई औचित्य नहीं था, जिसे अब संवैधानिक रूप से मान्यता दी गई थी. शीर्ष अदालत ने कहा कि 50% का आंकड़ा पार करने की कोई असाधारण परिस्थिति नहीं है. मराठा एक "प्रमुख अग्र वर्ग हैं और राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा में हैं.' पीठ ने 3:2 के बहुमत से फैसले में यह भी कहा कि संविधान में 102वें संशोधन के बाद राज्यों के पास एसईबीसी की पहचान करने की कोई शक्ति नहीं है.
संसद ने 2021 में ही 127वें संवैधानिक संशोधन में इस मुद्दे को स्पष्ट करने के लिए तुरंत कदम उठाया था, जिसने एसईबीसी की पहचान करने के लिए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की शक्ति को बहाल कर दिया था.