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कभी चाल में रहता था बाल ठाकरे परिवार, 18 सदस्यों से शुरू हुई थी शिवसेना

बाल ठाकरे के पिता प्रबोधनकार ठाकरे ने अपनी जीवनी माझी जीवनगाथा में लिखा है कि उनके पास मिरांडा चाल में ग्राउंड पर दो फ्लोर थे. ये चाल सौ से भी ज्यादा पुरानी है अब एक-आध घर ही ऐसा बचा है जो अपने पुराने स्वरूप में कायम है.

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बाल ठाकरे की लार्जर दैन लाइफ इमेज रही है
बाल ठाकरे की लार्जर दैन लाइफ इमेज रही है

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10 जनपथ, पोएस गार्डन और मातोश्री...जिस तरह की धमक यहां रहने वाले नेताओं की रही है, इन पतों की भी हैसियत उससे कुछ कम नहीं समझी जाती. महाराष्ट्र की बात करें तो लोग मुख्यमंत्री के बंगले वर्षा से ज्यादा मातोश्री को जानते हैं. मातोश्री ठाकरे परिवार का गढ़ है वही ठाकरे परिवार जिसकी तीसरी पीढ़ी के रूप में कल आदित्य ठाकरे को शिवसेना की कोर टीम में शामिल कर लिया गया. लेकिन क्या आप यकीन करेंगे कि महाराष्ट्र के सबसे ताकतवर राजनीतिक परिवार की शुरुआत मातोश्री से नहीं बल्कि एक चाल से हुई थी. उस चाल का नाम है मिरांडा चाल. जो दादर में आज भी है.

बाल ठाकरे के पिता प्रबोधनकार ठाकरे ने अपनी जीवनी माझी जीवनगाथा में लिखा है कि उनके पास मिरांडा चाल में ग्राउंड पर दो फ्लोर थे. ये चाल सौ से भी ज्यादा पुरानी है अब एक-आध घर ही ऐसा बचा है जो अपने पुराने स्वरूप में कायम है. ज्यादातर लोगों ने घरों के अंदर बदलाव किए है. बाहर का स्ट्रक्चर जहां पहले पूरी तरह लकड़ी हुआ करती थी अब अधिकतर हिस्सा लोहे का बना दिया गया है. पर कुछ हिस्सा बिल्कुल वैसा ही है. चाल में 10*10 के कमरे हैं. घरों के अंदर वन रूम किचन होता है. लेकिन बॉथरूम सभी परिवारों के बीच में एक होता है. मिरांडा चाल ग्राउंड प्लस 2 का स्ट्रक्चर है. यहां हर फ्लोर पर एक बॉथरूम है.

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दक्षिण भारतीयों से नफरत के बीज

प्रबोधनकार ठाकरे उस दौर के बड़े सोशल रिफॉर्मिस्ट थे और मराठी नाटक भी लिखा करते थे. लेकिन परिवार को पालने के लिए उस कमाई से पूरा नहीं हो पाता था. इसलिए देर रात तक जाग-जागकर प्रबोधनकार अलग से टाइपिंग का काम करते थे. इतना ज्यादा कि टाइपिंग करने से उनकी आंखें खराब हो गईं थीं. उस वक्त मिरांडा चाल में पहले ज्यादातर मलयाली और तमिल लोग रहते थे.

प्रबोधनकार ठाकरे अपनी आत्मकथा ‘माझी जीवनगाथा’ में बताते हैं मिराडा चाल में रहने वाले दक्षिण भारतीयों से नहाने से पहले तेल लगाने की आदत को लेकर ठाकरे परिवार का झगड़ा रहता था. चॉल में सबके लिए कॉमन बॉथरूम होता है. तेल लगाकर नहाने से प्रबोधन ठाकरे को लगता था बाद में नहाने वाले दूसरे लोग बॉथरूम में फिसल सकते हैं. लेकिन चॉल निवासी उनकी बात नहीं सुनते थे और कहते थे कि तेल लगाकर नहाना तो दक्षिण भारत में रिवाज है. उन्हें सबक सिखाने के लिए ठाकरे परिवार ने अपने घर के आगे मीट के टुकड़े रखने शुरू कर दिए. इससे उनके शाकाहारी पड़ोसी नाराज हो गए. जब उन्होंने एतराज जताया तो ठाकरे परिवार की ओर से कहा गया कि ये हमारा रिवाज है. माना जाता है कि दक्षिण भारतीयों के खिलाफ उनके मन में बीज यहीं से पड़े थे.

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शिवसेना के गठन के बाद बाल ठाकरे ने दक्षिण भारतीयों के खिलाफ नारा दिया था बजाओ पुंगी उठाओ लुंगी. मिरांडा चाल में रहने वाले किसी बुजुर्ग ने भी अपनी आंखों से ठाकरे परिवार को यहां रहते नहीं देखा पर सबने अपने मां-बाप, दादा-दादी के मुंह से उनके यहां रहने के किस्सा जरूर सुने है. मिरांडा चाल से जाने के बाद कभी बाल ठाकरे या परिवार का कोई व्यक्ति यहां नहीं आया. लेकिन चाल के लोग बड़े गर्व से बताते हैं कि एक जमाने में वो ठाकरे परिवार के साथ रहते थे.

बाल ठाकरे और टेलीफोन डायरेक्टरी

बाल ठाकरे की लार्जर दैन लाइफ इमेज रही है. ऐसा शख्स जिसकी मुंबई में तूती बोलती थी. धाक ऐसी कि कोई समकालीन नेता उनके दूर दूर तक नहीं था. एक राजनैतिक पार्टी का अध्यक्ष जो बड़ी धमक के साथ कहता था कि उसका लोकतंत्र में विश्वास नहीं है. उसका बस चले तो वो देश को ठोकशाही से चलाए. देखने लायक रूतबे और लाव लश्कर के साथ चलने वाले बाला साहेब की अपब्रिंगिंग बिल्कुल लॉअर मिडिल क्लास माहौल में हुई. बाल ठाकरे पढ़ने में एक औसत (average) छात्र थे लेकिन बहुत क्रिएटिव थे. बहुत अच्छे कार्टून बनाया करते थे. देश दुनिया में क्या चल रहा है इस पर उनकी पकड़ रहती थी, घोर एंटी कम्युनिस्ट थे.

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बाला साहेब की जब फ्री प्रेस जर्नल में नौकरी लगी फिर फिर उन्होंने अपनी मैग्जीन मार्मिक शुरू की. यहीं से उनकी जिंदगी में भी बड़े बदलाव आने शुरु हुए. कहते हैं कि एक दिन बाला साहेब ने गौर से मुंबई की टेलीफोन डॉयरेक्टरी को देखा. जिसमें मराठियों के नाम गिने-चुने थे और सारी टेलीफोन डॉयरेक्टरी दक्षिण भारतीयों के नाम से भरी पड़ी थी. ज्यादातर सरकारी नौकरियों पर उस समय मुंबई में दक्षिण भारतीयों का कब्जा था. उन दिनों में टेलीफोन होना एक स्टेटस सिंबल था. मुबईं में मराठियों की संख्या भले ही ज्यादा थी पर SON OF THE SOIL होते हुए उनकी गिनती इलीट क्लास में नहीं थे. मराठी निचले दर्जे के कामों में ज्यादा थे. जबकि टाई लगाकर ऑफिस जाने वाले साउथ इंडियन थे. बाला साहेब को ये बात बहुत चुभ गई.

मार्मिक के जरिए मराठी युवाओं तक पहुंच

टेलीफोन डॉयरेक्टरी से साफ था कि मुंबई में सरकारी नौकरियों पर बाहरियों यानी दक्षिण भारतीयों का कब्जा था और मराठियों के हिस्से में सिर्फ निचले दर्जे, लो क्लास के काम थे. ठाकरे को ये बात नश्तर की तरह चुभी. उन्होंने मार्मिक में दक्षिण भारतीयों के नाम और उनके पदों की डीटेल छापी. नीचे कैप्शन में 'पढ़ो और चुप रहो' (वाचा अणि थंड बसा). कुछ दिनों तक बाला साहेब अलग अलग सरकारी विभागों और उसमें काम करने वाले दक्षिण भारतीयों के नाम की लिस्ट छापते रहे. धीरे–धीरे ये बात बेरोजगार मराठी युवाओं का खून खौलाने लगी.

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मार्मिक में छपने वाली लिस्ट से उन्हें यकीन होने लगा कि दक्षिण भारतीय उनकी नौकरियां खा रहे हैं. बाला साहेब ने नए नए दक्षिण भारतीय नामों के साथ लिस्ट छापना जारी रखा लेकिन कैप्शन बदल दिया. अब कैप्शन था पढ़ो औऱ बढ़ो (वाचा अणि उठा) इसके बाद मार्मिक के दफ्तर के बाहर बेरोजगार युवाओं की भीड़ लगने लग गई. बाला साहेब की वो टेलीफोन डॉयरेक्टरी मराठी युवाओं के दिलो-दिमाग को झकझोर कर रही थी. रोज मार्मिक के सामने मराठी युवाओं की भीड़ जुटती. ठाकरे के पिता प्रबोधन ठाकरे को भी लगा कि इस ऊर्जा, इस ऊर्जा आवेश को बेकार नहीं जाने देना चाहिए.

पहली रैली में ही भर गया था शिवाजी पार्क

19 जून 1966 में सुबह साढ़े नौ बजे एक नारियल फोड़कर सिर्फ 18 लोगों की मौजूदगी में शिवसेना बनी. प्रबोधन ठाकरे ने पार्टी को शिवसेना नाम दिया. पार्टी के गठन के 4 महीने बाद ठाकरे ने मार्मिक के जरिए शिवसेना की पहली रैली दशहरे पर शिवाजी पार्क में करने का एलान किया. कुछ दिनों बाद किसी ने उनसे कहा कि शिवाजी पार्क जैसी बड़ी जगह पर पहली ही रैली करना ठीक नहीं. उन्हें कोई छोटा मैदान रखना चाहिए जहां लोग कम भी आएंगे तो मैदान भरा लगेगा. पर 1966 में हुई शिवसेना की पहली रैली में इतने लोग जुटे कि शिवाजी मैदान छोटा पड़ गया.

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शिवसेना की पहली रैली में जमा हुए लोगों में जर्बदस्त उत्साह था. बाला साहेब के भाषण के बाद मराठी युवा इजने जोश से लबरेज हो गए वास्तव में कहेंगे कि भड़क गए कि शिवाजी पार्क से निकलकर माटुंगा में दक्षिण भारतीयों की दुकानों के साथ तोड़ फोड़ की. तोड़-फोड़ का ये सिलसिला बालासाहेब की रैलियों के बाद काफी लंबे समय तक चलता रहा.

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