इन दिनों देश में 'देशद्रोह' या 'राजद्रोह' पर लगातार बहस हो रही है. कल ही सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला के मामले में कहा कि सरकार की राय से अलग बोलना देशद्रोह नहीं होता है. ठीक इससे पहले दिल्ली की एक कोर्ट ने कहा था कि असंतुष्टों को चुप कराने के लिए देशद्रोह की धाराएं नहीं लगाई जा सकती हैं.
लोअर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी ने एक नए विमर्थ को जन्म दिया ही है, साथ ही विपक्ष के हाथों में केंद्र सरकार को घेरने का एक और मौका दे दिया है. शिवसेना ने भी मौके पर चौका लगाते हुए आज के 'सामना' में केंद्र सरकार से पूछा कि सरकार अब तो ‘देशद्रोह धारा’ का ठेका और मनमानी छोड़ेगी क्या?
शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामना में कहा कि अनुच्छेद-370 हटाने पर फारूक अब्दुल्ला की टिप्पणी पर आक्षेप लिया जा सकता है, सरकारी दल और उनकी भक्त मंडली उन पर कठोर टीका-टिप्पणी कर सकती है, लेकिन उन्हें सीधे देशद्रोही साबित करने की जिद क्यों?
शिवसेना ने कहा, 'दिल्ली की सीमा पर और अब गाजीपुर में आंदोलन करने वाले किसानों को भी देशद्रोही और खालिस्तानवादी साबित करने का प्रयास हुआ, इस आंदोलन का समर्थन करने वाले राजनीतिक और गैर राजनीतिक नेता और कार्यकर्ताओं को देशद्रोही और अर्बन नक्सलवादी साबित किया गया.'
दिशा रवि केस का जिक्र करते हुए शिवसेना ने कहा, 'किसान आंदोलन टूलकिट प्रकरण में पर्यावरणविद दिशा रवि को विदेशी एजेंट साबित किया गया. 26 जनवरी को लाल किला और दिल्ली में जो हिंसाचार और उत्पात हुआ, उसके पहले नागरिक संशोधन कानून का विरोध करनेवालों को पाकिस्तान प्रेमी और देश विरोधी साबित किया गया. देशद्रोह कहा जानेवाला ‘राजद्रोह’ (सेडिशन) हमारे देश में पिछले कुछ सालों में सरकारी दल और उनकी भगत मंडली के चलन में आ गया है.'
शिवसेना ने कहा, 'राजनीति में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ कहा गया है, लेकिन ‘जिसकी लाठी उसकी मनमानी’ ऐसा नहीं होता, दुर्भाग्य से हमारे देश में यही समझा जा रहा है, पिछले 10 सालों में देशभर में देशद्रोह के जितने अपराध दर्ज किए गए हैं, उनमें से 60 प्रतिशत केवल 2014 के बाद दर्ज हुए हैं, वर्तमान शासन और ‘देशद्रोह’ की धारा के बीच कितना मजबूत रिश्ता है, इसका इससे अलग कुछ और क्या सबूत दिया जाए?'
शिवसेना ने कहा, 'विरोधी आवाज को दबाने के लिए सत्ताधीशों की ओर से सीबीआई और ईडी जैसी जांच एजेंसियों को पीछे लगाया जा रहा है, चुनाव आयोग और न्यायालय जैसी सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्थाओं पर सरकार का दबाव है, ऐसी तस्वीर दिख रही है. ‘देशद्रोह’ का चलन में आने वाला शब्द और ‘देशद्रोह की धारा’, ये राजनीतिक हथियार साबित हुए हैं.'
शिवसेना ने पूछा, 'एक तरफ लोकतंत्र की ‘आवाज’ और दूसरी तरफ तानाशाही ‘दबाव तंत्र’ का खेल शुरू है. अच्छा हुआ, सर्वोच्च न्यायालय ने भी कान छेद दिए! सरकार अब तो ‘देशद्रोह धारा’ का ठेका और मनमानी छोड़ेगी क्या? विरोधियों की टीका-टिप्पणी के संवैधानिक अधिकार को स्वीकार करेगी क्या?'