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Maharashtra Political Crisis: क्या ‘ठाकरे मुक्त’ शिवसेना बनाने की ओर बढ़ रहे एकनाथ शिंदे, ये है प्रक्रिया 

महाराष्ट्र में सत्ता की बाजी उद्धव ठाकरे के हाथों से पूरी तरह निकलती जा रही है और अब शिवसेना पर काबिज होने की चुनौतियों से उन्हें जूझना पड़़ सकता है. एकनाथ शिंदे ने जिस तरह से शिवसेना नेताओं को अपने साथ मिलाया है, उससे साफ है कि वो उद्धव से सिर्फ सत्ता ही नहीं बल्कि शिवसेना को भी छीनने का प्लान बना रखा है. ऐसे में क्या शिवसेना को ठाकरे मुक्त बनाने की दिशा में एकनाथ शिंदे हैं?

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एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे (फाइल फोटो)
एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे (फाइल फोटो)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • एकनाथ शिंदे ने उद्धव की सत्ता से विदाई की लिखी पठकथा
  • कुर्सी के बाद क्या शिवसेना को भी छीन लेंगे एकनाथ
  • एलजेपी-सपा में भी काबिज होने की जंग छिड़ी थी

महाराष्ट्र में चल रहे चार दिनों से सियासी उठापटक के बीच अब उद्धव ठाकरे की कुर्सी जानी तय है. शिवसेना के दो तिहाई विधायकों को लेकर एकनाथ शिंदे मुंबई से 2700 किमी दूर गुवाहाटी में कैंप कर रखा है. ऐसे में शिवसेना में अब दो फाड़ के आसार बनते दिख रहे हैं और बागी विधायकों को दलबदल कानून का भी खतरा नहीं है. इस तरह उद्धव के हाथों से महाराष्ट्र की सत्ता के साथ-साथ शिवसेना को 'ठाकरे मुक्त' बनाने की दिशा में एकनाथ शिंदे कदम बढ़ा रहे हैं. 

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शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे की अगुआई में उद्धव ठाकरे के खिलाफ जिस तरह बगावत हुई है, उसके चलते सिर्फ सरकार पर ही नहीं बल्कि पार्टी पर भी खतरा मंडराने लगा है. शिंदे उसी तरह अपने सियासी कदम बढ़ा रहे हैं, जिस तरह से सांसद पशुपति पारस ने अपने भतीजे चिराग पासवान के हाथों से एलजेपी की कमान को छीन लिया था. एलजेपी के छह में से पांच सांसदों को पशुपति पारस ने अपने साथ मिला लिया था. महाराष्ट्र में शिवसेना की सियासत में उसी तरह की पठकथा लिखी जा रही है. 

एकनाथ शिंदे भी शिवसेना के दो तिहाई विधायकों को अपने साथ जोड़ रखा है और अब अगला कदम पार्टी को अपने हाथों में लेने का है. ऐसे में गुवाहाटी में मौजूद शिवसेना के बागी विधायकों ने बैठक कर एकनाथ शिंदे को विधायक दल का अपना नेता चुन लिया है. साथ ही बागी गुट के विधायकों के हस्ताक्षर वाला पत्र डिप्टी स्पीकर नरहरि जिरवाल और राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को भेजा दिया है, जिसमें कहा गया कि असली शिवसेना ये है. इससे साफ है कि शिवसेना पर काबिज होने के लिए पार्टी के चुनाव चिह्न और झंडे को लेकर भी घमासान छिड़ सकता है. 

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दलबदल कानून का खतरा नहीं

बागी नेता शिंदे के साथ विधायकों की संख्या इतनी है कि अगर शिवसेना में दो फाड़ होते हैं तो उन पर दलबदल कानून का भी खतरा नहीं होग. 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में शिवसेना के 56 विधायक जीते थे, जिनमें से एक विधायक का निधन हो चुका है. इसके चलते 55 विधायक फिलहाल शिवसेना के हैं. ऐसे में एकनाथ शिंदे का दावा है कि उनके साथ 37 विधायक शिवसेना के हैं. इस तरह से एकनाथ शिंदे अगर कोई कदम उठाते हैं तो दलबदल कानून के तहत कार्रवाई भी नहीं होगी. 

दरअसल, दलबदल कानून कहता है कि अगर किसी पार्टी के कुल विधायकों में से दो-तिहाई के कम विधायक बगावत करते हैं तो उन्हें अयोग्य करार दिया जा सकता है. इस लिहाज से शिवसेना के पास इस समय विधानसभा में 55 विधायक हैं. ऐसे में दलबदल कानून से बचने के लिए बागी गुट को कम के कम 37 विधायकों (55 में से दो-तिहाई) की जरूरत होगी जबकि  शिंदे अपने साथ 37 विधायकों का दावा कर रहे हैं. ऐसे में उद्धव ठाकरे के साथ 17 विधायक ही बच रहे हैं. 

शिवसेना पर काबिज होने की जंग

शिवसेना में दो फाड़ होने की पूरी संभावना दिख रही है. ऐसी स्थिति में शिवसेना को भी कब्जाने की जंग उद्धव और शिंदे के बीच छिड़ सकती है. इस तरह शिंदे खेमा शिवसेना के साथ-साथ पार्टी के चुनाव चिन्ह 'धनुष और बाण' पर दावा कर सकते हैं. ऐसे में शिवसेना पर काबिज होने की जंग उद्धव और एकनाथ शिंदे के बीच छिड़ती है तो मामला चुनाव आयोग से कोर्ट तक पहुंच सकता है. आखिर क्या है पार्टी सिंबल का कानून और शिंदे और उद्धव ठाकरे के बीच तलवार खिंचती है तो फिर किसके हिस्से में आएगा? 

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चुनाव आयोग में देना होगा दस्तक

बता दें कि राष्ट्रीय चुनाव आयोग सियासी पार्टियों को मान्यता देता है और साथ ही चुनाव चिह्न भी आवंटित करता है. चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) आदेश, 1968 के मुताबिक ये पार्टियों को पहचानने और चुनाव निशान आवंटित करने से जुड़ा है. कानून के मुताबिक अगर पंजीकृत और मान्यता प्राप्त राजनीतिक पार्टी के दो गुटों में सिंबल को लेकर अलग-अलग दावें किए जाएं तो फिर चुनाव आयोग इस पर आखिरी फैसला करता है. आदेश के अनुच्छेद 15 में इस पर विस्तार से जानकारी दी गई है.

मानना होगा आयोग का फैसला

ऐसी स्थिति बनती है कि जब किसी एक ही पार्टी में दो गुट एक सिंबल के लिए दावा करते हैं तो ऐसे हालात में चुनाव आयोग दोनों खेमों को बुलाता है. दोनों पक्ष अपनी दलीलें रखते हैं. इसके बाद आयोग की तरफ से फैसला लिया जाता है. लेकिन याद रहे कि चुनाव आयोग का फैसला हर हाल में पार्टी के गुटों को मानना होगा. ऐसे में चुनाव आयोग मुख्य रूप से पार्टी के संगठन और उसकी विधायिका विंग दोनों के अंदर हर गुट के समर्थन का आकलन करता है. आयोग ये राजनीतिक दल के भीतर शीर्ष समितियों और निर्णय लेने वाले निकायों की पहचान करता है. 

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चुनाव आयोग यह पता लगाने की कोशिश करता है कि कितने सदस्य या पदाधिकारी किस गुट में वापस हैं. इसके बाद ये भी पता किया जाता है कि प्रत्येक कैंप में सांसदों और विधायकों की संख्या की कितनी-कितनी है. इसके बाद सारे आकलन के बाद चुनाव आयोग को ये लगता है कि पार्टी का यह गुट सारे मामलों में अगले गुट से भारी है तो उसे पार्टी का चुनाव चिन्ह आवंटित कर दिया जाता है. इस तरह से पार्टी के संविधान को भी देखना होता है. 

एलजेपी में भी वर्चस्व की जंग छिड़ी थी

इस तरह से चुनाव आयोग एक गुट का निर्धारण करने में असमर्थ रहता है तो फिर वो पार्टी के सिंबल को फ्रीज कर सकता है. इसके बाद दोनों गुटों को दोबारा नए नामों और सिंबल के साथ रजिस्ट्रेशन करने के लिए कह सकता है. चुनाव नजदीक होने की स्थिति में गुटों को एक अस्थायी चुनाव चिह्न चुनने के लिए कह सकता है. चिराग पासवान और पशुपति पारस के मामले में यही फैसला हुआ है. ऐसे में कोई गुट चुनाव आयोग के फैसले से सहमत नहीं होते हैं तो कोर्ट तक का दरवाजा भी खटखटा सकता है. 

एकनाथ शिंदे बनाम उद्धव ठाकरे

एलजेपी का मामला अभी भी कोर्ट में है तो सपा में अखिलेश यादव और शिवपाल यादव के बीच पार्टी में वर्चस्व की जंग छिड़ी थी तो सुप्रीम कोर्ट ने अखिलेश ने पार्टी और चुनाव चिन्ह हासिल किए थे. ऐसे में देखना है कि शिवसेना पर काबिज होने की लड़ाई किस दहलीज तक पहुंचती है. ऐसे में एकनाथ शिंदे का पड़ला विधायकों की संख्या में मामले में भारी है, लेकिन सांसदों की संख्या अभी भी उद्धव ठाकरे के साथ है. इसके अलावा संगठन के नेताओं को लेकर उद्धव और शिंदे को अपनी-अपनी ताकत दिखानी होगी. इसमें जो भारी पड़ेगा, उसी का कब्जा होगा? 

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