महाराष्ट्र की सियासत में गुरुवार का दिन गठबंधनों के टूटने के नाम रहा. बीजेपी और शिवसेना 25 साल बाद अलग हो गए, तो 15 साल बाद कांग्रेस-एनसीपी के रास्ते भी जुदा हो गए. आगामी विधानसभा चुनाव में अब चारों पार्टियां आमने-सामने होंगी. जनता किसे सत्ता देगी, यह तो 18 अक्टूबर को ही पता चलेगा, पर सियासी पंडित यह आंकने में जुट गए हैं कि नए समीकरण से किस पार्टी को फायदा होगा और किसको नुकसान. आइए हम आपको बताते हैं इसके बारे में.
छोटी पार्टियों की चांदी
छोटी पार्टियों को कम सीट दिया जाना ही शिवसेना और बीजेपी के बीच गतिरोध का कारण बना. अब उनकी ही चांदी है. गठबंधन टूटने के बाद महायुति की छोटी पार्टियां बीजेपी या शिवसेना पर ज्यादा सीटों के लिए दबाव बना सकती हैं. बड़ी पार्टियों के पास उनकी मांगें मानना ही बेहतर विकल्प होगा. हालांकि संसाधन की कमी की वजह से छोटी पार्टियों के लिए ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ पाना आसान नहीं होगा.
मजबूत हो सकते हैं राज ठाकरे
लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे हासिये पर चले गए थे. अब वह महाराष्ट्र की जनता के सामने एक विकल्प के तौर पर उभरे हैं. गठबंधन विवाद से दूरी और 'एकला चलो' की नीति तो राज ठाकरे के पक्ष में जाती ही है, साथ में चुनाव बाद गठबंधन के रास्ते भी खुल जाते हैं. इसके अलावा जनता उनके और उद्धव ठाकरे के नेतृत्व पर अपना फरमान भी सुनाएगी. इन सबके बीच राज ठाकरे को अपनी पार्टी के साथ नए वोटरों को जोड़ना होगा. क्योंकि परंपरागत वोटर तो पिछले चुनाव में भी उनके साथ थे, पर नए वोटरों का उनसे दूर रहना, पार्टी के लिए महंगा पड़ा.
हो सकता है बीजेपी या एनसीपी का मुख्यमंत्री
महायुति में बीजेपी और कांग्रेस के साथ एनसीपी की भूमिका छोटी पार्टी के तौर पर थी. ऐसे में मुख्यमंत्री पद शिवसेना और कांग्रेस के ही खाते में जाता. पर गठबंधन टूटने के बाद, यह चुनाव नतीजों पर निर्भर करेगा. अगर बीजेपी या एनसीपी ज्यादा सीटें जीतती हैं, पर बहुमत के आंकड़े से दूर रह जाएं. ऐसे में ये पार्टियां मुख्यमंत्री पद की दावेदारी कर सकती हैं.
अब निशाने पर सिर्फ कांग्रेस नहीं
लगातार 15 साल से सत्ता में रहने के बाद जमीनी स्तर पर कांग्रेस के खिलाफ माहौल तो है. पर गठबंधन टूटने के बाद अब वह अपनी कमियों के लिए एनसीपी को जिम्मेदार ठहरा सकती है. साथ ही विपक्षी पार्टियां सिर्फ उसपर निशाना नहीं साधेंगी. कांग्रेस पर होने वाले सियासी हमले अब उतने प्रखर नहीं होंगे. क्योंकि सियासी जंग को विपक्षी पार्टियों के बीच में भी होगी.