खालूबार का युद्ध (Battle of Khalubar) एक ऐसा मौका था, जिसने भारतीय जवानों की बहादुरी और मौत से लड़ जाने की क्षमता को दिखाया था. पाकिस्तानी सैनिकों की कायरता को भी प्रदर्शित किया था. ऊंचाई पर बैठे पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सेना के जवानों पर फायरिंग कर रहे थे. मोर्टार दाग रहे थे. तोप के गोले बरसा रहे थे. लेकिन ब्लेड की तरह तीखे पत्थरों को चीरते हुए हमारे जवानों ने पाकिस्तानी कायरों की गर्दन काटी. सिर में गोली मारी. उनके बंकरों को ग्रैनेड्स से उड़ाया. ये दिन था 6 जुलाई 1999. करगिल युद्ध के शुरुआती दिनों की बात है ये. (फोटोः ADGPI/Indian Army Twitter)
खालूबार का युद्ध (Battle of Khalubar) खालूबार रिज (Khalubar Ridge) पर हुआ था. यह रिज लाइन ऑफ कंट्रोल (LOC) के उत्तर से दक्षिण की तरफ फैला है. यानी सीधा निशाना एलओसी पर. आसानी से भारतीय सेना, बंकरों और लंबे मैदानी इलाकों पर नजर रखने की ताकत मिलती है यहां से. यहां पर कई ऊंचे, तीखे वर्टिकल क्लिफ हैं. साथ ही नुकीले और ब्लेड की तरह धारदार पत्थरों की पूरी एक फसल उगी हुई है. यहां पर चढ़ाई करना बेहद मुश्किल होता है. छोटी ऊंचाई पर जाना भी आसान नहीं होता. यहां गोरखा रेजिमेंट ने फतह हासिल की थी. लेकिन उनके लिए भी यह आसान नहीं था. यहां उनके तीन दुश्मन थे. पहला दुश्मन... पूरे सामान के साथ ऊपर चढ़ना पड़ता है. दूसरा- बार-बार मौसम का बदलना. तीसरा बेतहाशा ठंड, जहां पर तापमान शून्य डिग्री या उससे कम होता है. पाकिस्तान की कमर तोड़ने के लिए खालूबार को जीतना जरूरी था क्योंकि उसके पीछे पीओके था जहां पर पाकिस्तान ने अपना हैलिपैड बनाया था. जिससे उन्हें जरूरत का सारा सामान मिल रहा था. (फोटोः ADGPI/Indian Army Twitter)
यह पाकिस्तानी दुश्मनों की सुरक्षा का हब था. बटालिक सेक्टर में मौजूद खालूबार (Khalubar) के पीछे पाकिस्तानी पोस्ट है. वहां पर उनके रसद, हथियार का हब था. वहीं से पाकिस्तान लगातार खालूबार की चोटियों पर बैठे अपने सैनिकों को रसद, हथियार और गोला-बारूद पहुंचा रहे थे. इसलिए खालूबार को जीतना जरूरी था. कैप्टन मनोज पांड को भी इन्हीं चोटियों पर कब्जा करने के लिए भेजा गया था. 2 जुलाई 1999 को कैप्टन मनोज पांडे की यूनिट वन इलेवन गोरखा राइफल्स को खालूबार से दुश्मन की पोजिशन को क्लियर करने का आदेश मिला. यूनिट के कमांडिंग ऑफिसर कर्नल ललित राय खुद जवानों की अगुवाई कर रहे थे. मनोज पांडे की प्लाटून ने खालूबार की चोटियों को बाइपास कर पीछे से हमला किया था. जिससे पाकिस्तानी सेना की कमर टूट गई. इस मिशन को पूरा करने के बाद भी गोरखाओं का असली लक्ष्य अभी बाकी था. 14 घंटे की लगातार चढ़ाई के बाद आखिरी चोटी की करीब 400 मीटर की दूरी थी. (फोटोः ADGPI/Indian Army Twitter)
कर्नल राय और कैप्टन मनोज पांडे ने कई तरफ से हमले का प्लान बनाया था. इससे पाकिस्तानियों की हालत खराब हो गई थी. पाकिस्तानियों को यह बात अच्छे से पता था कि भारतीय फौज खालूबार जीत लेगी तो पूरा युद्ध पलट जाएगा. उन्होंने एडी गन से फायर करना शुरू किया. एडी गन एक मिनट 1000 से ज्यादा गोलियां फायर करती है. पाकिस्तानी सेना के पास भारी मात्रा में बड़े हथियार थे. जो काफी नुकसान पहुंचा रहा थे. 16 हजार 700 फीट की ऊंचाई पर रात की भयंकर ठंड में गोले बारूद की गर्मी बर्फ को पिघला रही थी. दुश्मन की सामने से आती गोलियां और दूसरी तरफ से आते गोलों के बीच आगे बढ़ना जवानों के मुनासिब नहीं था. गोरखा रेजिमेंट के पलटन में सिर्फ 60 जवान ही बचे थे. तब कर्नल राय ने 20 जवानों के साथ एक तरफ से और बाकी जवानों के साथ कैप्टन मनोज पांडे को दूसरी तरफ से आगे बढ़ने का प्लान बनाया. यही हुआ भी. इस हमले से पाकिस्तानी सेना बुरी तरह से बौखला गई. इस बीच कर्नल राय की जांघ में गोली लग गई. (फोटोः ADGPI/Indian Army Twitter)
#OperationVijay#Batalik
— ADG PI - INDIAN ARMY (@adgpi) July 6, 2022
06 July 1999
Despite stiff enemy resistance, the determined soldiers of #IndianArmy negotiated razor-like vertical cliffs and launched the ferocious attack. The enemy suffered heavy casualties and was forced to retreat from Khalubar Ridge. pic.twitter.com/5BT9J5YRiY
उधर भारतीय तोपों ने खालूबार की तरफ ऊंचाई पर बैठे पाकिस्तानी दुश्मनों के बंकरों को गोलों से उड़ाना शुरु कर दिया. दुश्मन के संगड़ों और बंकरों पर गिर रहे भारतीय गोलों की वजह से मनोज पांडे और उनकी टीम को आगे बढ़ने का मौका मिल गया. पाकिस्तानियों की सप्लाई लाइन और संचार लाइन टूट चुकी थी. वो सीमा उस पार बैठे अपने आकाओं से बात नहीं कर पा रहे थे. तभी वहां कैप्टन मनोज पांडे अपनी टीम के साथ पहुंच गए. वहां दुश्मन के छह बंकर थे. दुश्मन की नजर बचाकर भारतीय जवान ऊपर तो पहुंच गए थे लेकिन चोटी पर बैठे पाकिस्तानी सेना के जवानों को शक हो चला था कि भारतीय जवान यहां पहुंच गए हैं. दुश्मन की तरफ से हर कुछ मिनट बाद इल्युमिनेटिंग राउंड फायर शुरू हो गए थे. इसे फायर करने के बाद करीब 3 मिनट तक रोशनी रहती है. पाकिस्तानी हर तीन मिनट में इन गोलियों को फायर कर रहे थे. यानी रात के अंधेरे में भी रोशनी थी.
रोशनी में हमला करना आसान नहीं होता. लेकिन कैप्टन मनोज पांडे ने अपने जवानों को बड़ी सी चट्टान के पीछे छोड़ा. दुश्मन की गन पोजिशन देख ली. इसके बाद जय महाकाली के युद्धघोष के साथ सीधे दुश्मन के ऊपर सटीक निशाने के साथ फायरिंग की. मशीन गन के पीछे बैठा पाकिस्तानी जवान वहीं ढेर हो गया. कैप्टन पांडे को कंधे और पैर में गोली लगी. घायल होने बाद भी अगले बंकर की तरफ आगे बढ़े. ग्रैनेड फेंककर उसे भी खत्म कर दिया. खुद के शरीर पर कई गोलियां लग चुकी थीं. शरीर छलनी हो चुका था. जब मनोज तीसरे बंकर में पीछे से घुसे तो देखा कि दो पाकिस्तानी गोरखा जवानों पर गोली चलाने वाले हैं. उन्होंने अपनी खुखरी निकाली और उनकी गर्दन काट डाली. अब तक उनके शरीर से इतना खून बह चुका था कि सीधे खड़े हो पाना भी मुश्किल हो रहा था. कैप्टन मनोज पांडे अब आखिरी गन पोजिशन की तरफ आगे बढ़े, उन्होंने बंकर के भीतर ग्रेनेड उछाला पर ग्रेनेड के गिरने और विस्फोट के बीच तीन से चार सेकेंड का फासला होता है, इतनी देर में तीन गोलियां मनोज के हेलमेट को चीरती हुई उनके सिर में घुस गई. (फोटोः ADGPI/Indian Army Twitter)
कैप्टन मनोज पांडे ने जाते-जाते अपने जवानों की विजय का आखिरी आदेश सुना गया. मनोज ने नेपाली में कहा 'न छोड़ नूं'. सोचिए जिसकी जान जा रही है, फिर भी वो बोल रहा है कि इन्हें ना छोड़ना, गोरखा जवानों के गुस्से ने उनकी हिम्मत को 100 गुना बढ़ा दिया. उस दिन एक भी पाकिस्तानी सैनिक को चोटी से भागने का मौका नहीं मिला. दुश्मन को चुन-चुन कर मौत के घाट उतारा गया. जब खालूबार पर कब्जा किया तो उसका असर यह हुआ कि पाकिस्तान के पास जितने भी डिफेंसिव पोजिशन थे वो उसे संभाल नहीं पाए. दूसरी चोटियों से भी भागना शुरू कर दिया. (फोटोः ADGPI/Indian Army Twitter)