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सद्दाम-लादेन से अफजल-कसाब तक... यूं ही नहीं मिट जाती हैं 'खलनायकों' की आखिरी निशानी!

सरकारें नहीं चाहतीं कि ऐसे व्यक्तियों की कब्रें या अंतिम स्थान अतिवादी समूहों, अतिवादी विचारों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनें. क्योंकि ऐसा होने पर कुछ तत्व समय-काल और परिस्थिति अनुकूल पाने पर उस स्थान पर इकट्ठा होना शुरू कर सकते हैं, इससे सरकार के लिए लॉ एंड ऑर्डर की समस्या पैदा हो सकती है

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सद्दाम हुसैन, अफजल गुरु, ओसामा बिन लादेन, अजमल कसाब.
सद्दाम हुसैन, अफजल गुरु, ओसामा बिन लादेन, अजमल कसाब.

महाराष्ट्र के खुल्दाबाद से मुगल शासक औरंगजेब की कब्र को हटाने की मांग के बीच उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का अहम बयान आया है. उन्होंने मंगलवार को कहा कि अमेरिका ने भी ओसामा बिन लादेन को अपनी जमीन पर दफनाने की इजाजत नहीं दी थी और किसी भी महिमामंडन से बचने के लिए उसके शव को समुद्र में फेंक दिया था.

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एकनाथ शिंदे ने कहा कि औरंगजेब कौन है? हमें अपने राज्य में उसका महिमामंडन क्यों करने देना चाहिए? वह हमारे इतिहास पर एक धब्बा है.

गौरतलब है कि औरंगजेब मुगल सल्तनत का एक प्रभावशाली शासक था. उसकी मौत महाराष्ट्र के अहमदनगर में हुई थी. और अभी उसकी कब्र अहमदनगर से 130 किलोमीटर दूर खुल्दाबाद में है. 

हिन्दू संगठनों के लोग जहां औरंगजेब की कब्र को खुल्दाबाद से हटाने की मांग कर रहे हैं वहीं मुस्लिम समुदाय उसे मुगलिया सल्तनत का दिलेर बादशाह मानता है. और उसे प्रभावशाली राजा बताते हुए इस कदम का विरोध करता है. 

महाराष्ट्र में चल रही इस बहस के बीच हाल-फिलहाल का इतिहास समझते हैं और जानते हैं कि 'खलनायकों' का अंतिम पता कैसे गुमनाम हो जाता है. 

दरअसल आधुनिक विश्व में सरकारें, एजेंसियां और संस्थाएं ऐसे लोगों का कोई स्थायी पहचान नहीं रखना चाहती है जिसे वहां का समाज और अदालत दुश्मन करार दे चुका है. 

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अमेरिका के लिए इराक का शासक सद्दाम हुसैन ऐसा ही कैरेक्टर था. 9/11 हमले को अंजाम देने वाला आतंकी ओसामा बिन लादेन अमेरिका समेत सभ्य दुनिया के दूसरे देशों के लिए खलनायक था. वहीं भारत की संसद पर हमला करने वाला आतंकी अफजल गुरु और मुंबई के 26/11 हमले का दोषी अजमल कसाब 140 करोड़ हिन्दुस्तानियों समेत विश्व के कई देशों के लिए विलेन है. 

सद्दाम हुसैन को फांसी पर चढ़ाने के बाद उसके बॉडी का क्या हुआ?

इराकी तानाशाह सद्दाम हुसैन को 30 दिसंबर 2006 में अमेरिका ने फांसी की सजा दी गई थी. इसके बाद उसके शव को दफनाने के लिए बगदाद भेज दिया गया था. 

सद्दाम को 31 दिसंबर, 2006 को अल-औजा में दफनाया गया, जो तिकरित से कुछ किलोमीटर दूर उसके पैतृक गांव में है. यहां उसके दोनों बेटे उदय और कुसय की कब्रें भी थीं. 

शुरू में यह कब्र उसके समर्थकों के लिए एक स्मारक बन गई. हर साल 28 अप्रैल को लोग वहां जमा होते थे, और कब्र पर उनकी तस्वीरें और पोस्टर लगाए जाते थे. 

लेकिन 2014 में इराक पर ISIS का नियंत्रण होने के बाद सद्दाम की कब्र पर खतरा मंडराने लगा. इस बीच सद्दाम के कबीले के कुछ सरदारों का दावा है कि उन्होंने कब्र को वहां से गायब कर दिया और गुप्त स्थान पर ले गए, ताकि ISIS इसे नष्ट न कर दे.

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अभी सद्दाम हुसैन की कब्र कहां है. ये स्पष्ट नहीं है. सद्दाम के लिए काम कर चुके एक लड़ाके का दावा है कि सद्दाम की निर्वासित बेटी जो जॉर्डन में रहती है, अपने प्राइवेट जेट से इराक आई थी और मौका देखकर अपने पिता के 'अवशेष' को ले गई. उसका दावा है कि इराक में हालात ठीक होने पर वो अपने पिता के अवशेष लेकर आएगी. 

समंदर में बहा दिया गया लादेन का शव

अमेरिका ने अपने सबसे बड़े दुश्मन ओसामा बिन लादेन के शव को ठिकाने लगाने में सद्दाम हुसैन जैसी भूल नहीं की. 

अल-कायदा का सरगना ओसामा बिन लादेन को अमेरिकी नेवी सील्स ने 2 मई, 2011 को पाकिस्तान के एबटाबाद में एक ऑपरेशन में मार गिराया था. 

लादेन को मारने के बाद, अमेरिकी सेना उसके शव को एबटाबाद से अफगानिस्तान के बगराम एयरबेस ले गई. वहा डीएनए टेस्ट और चेहरे की पहचान (फेशियल रिकग्निशन) के जरिए उसकी पहचान की पुष्टि की गई. डीएनए को उसकी बहन के नमूने से मिलाया गया, जो पहले से अमेरिका के पास था. 

इसके बाद ओसामा बिन लादेन के शव को अमेरिका ने एक समंदर में फेंक दिया. ये समंदर कौन सा है, कहां है, इसकी कोई जानकारी दुनिया को नहीं है. 

अफजल गुरु

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अफजल गुरु  2001 में भारत के संसद पर हमले का दोषी था. अफजल को  9 फरवरी, 2013 को दिल्ली के तिहाड़ जेल में फांसी दी गई थी. इसके बाद उसे जेल परिसर में ही दफनाया गया. 

गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के संस्थापक मकबूल बट्ट को भी 1984 में फांसी के बाद तिहाड़ में दफनाया गया था. उसके शव को भी वापस नहीं दिया गया, और यह निर्णय उस समय घाटी में शांति बनाए रखने में प्रभावी रहा था. अफजल के मामले में भी यही नीति अपनाई गई.

अजमल कसाब 

26/11 मुंबई हमलों के एकमात्र जीवित आतंकी अजमल कसाब को 21 नवंबर, 2012 को पुणे के यरवदा जेल में फांसी दी गई थी. उसका शव भी जेल परिसर में दफनाया गया, और उसकी कब्र का सटीक स्थान सार्वजनिक नहीं किया गया. 

तब पाकिस्तान के तत्कालीन गृह मंत्री रहमान मलिक ने कहा था कि कसाब के परिवार ने उसके शव को मांगने के लिए कोई अनुरोध नहीं किया है. 

कोई सरकार नहीं चाहती है कि ऐसे घोर असामाजिक पहचान के ऐसे व्यक्तियों के शव उसकी मृत्यु के बाद भी समाज, राष्ट्र सुरक्षा के लिए खतरा बने या विचारधारा के नाम पर बवाल खड़ा करे. इसलिए अमूमन ऐसे लोगों के शवों का गुप्त रूप से अंतिम संस्कार कर दिया जाता है.

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सुरक्षा और आतंकवाद-अतिवाद का मसला

सरकारें नहीं चाहतीं कि ऐसे व्यक्तियों की कब्रें या अंतिम स्थान अतिवादी समूहों, अतिवादी विचारों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनें. क्योंकि ऐसा होने पर कुछ तत्व समय-काल और परिस्थिति अनुकूल पाने पर उस स्थान पर इकट्ठा होना शुरू कर सकते हैं, इससे सरकार के लिए लॉ एंड ऑर्डर की समस्या पैदा हो सकती है. स्थानीय लोगों के साथ टकराव की स्थिति बन सकती है. इसके अलावा ऐसी जगहों पर लोग खास तारीखों को जमा होकर विशेष विचारधारा को फैला सकते हैं. 

बता दें कि संसद हमले के दोषी अफजल गुरु की एक सांकेतिक कब्र उत्तर श्रीनगर में बनाई गई थी. लेकिन अधिकारियों ने उसे तुरंत हटा दिया था. क्योंकि वहां लोग जमा हो रहे थे. 

कुछ ही दिन पहले अफजल गुरु के बड़े भाई एजाज अहमद ने कहा था कि वे तिहाड़ स्थित अफजल गुरु की कब्र पर फातिहा पढ़ना चाहते हैं. लेकिन सरकार की इसकी इजाजत नहीं दे रही है.

सामाजिक/धार्मिक ध्रुवीकरण रोकना

सरकार ऐसे लोगों/अपराधियों की कब्रें इसलिए भी नहीं रखना चाहती हैं क्योंकि ये जगहें समाज में विभाजन पैदा कर सकती हैं.  ज्यादातर लोग भले ही इन्हें अपराधी या राष्ट्र का दोषी मानें, लेकिन कुछ तत्वों के लिए ऐसे लोग कुर्बानी देने वाले हो सकते हैं. ऐसे लोगों की कब्रें समाज में निरंतर तनाव का कारण बन सकती हैं. इसलिए सरकारें ऐसे किसी भी पहचान को सार्वजनिक नहीं रखना चाहती हैं. 

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कानूनी और कूटनीतिक कारण

शव को परिवार या मूल देश को सौंपने से कानूनी दावे, अंतरराष्ट्रीय विवाद, या राजनीतिक दबाव बढ़ सकते हैं. इसे अपने नियंत्रण में रखना या नष्ट करना आसान विकल्प होता है. अगर भारत सरकार मुंबई हमले के दोषी अजमल कसाब के शव को पाकिस्तान को सौंपने की प्रक्रिया शुरू करती तो इससे कई विवाद पैदा हो सकते थे. सबसे पहले तो बदनामी से बचने के लिए पाकिस्तान ही ऐसे शवों को लेने से इनकार कर देता. 

प्रतीकात्मक संदेश

सरकारें यह दिखाना चाहती हैं कि ऐसे आतंकवादियों, अपराधियों और देश की अदालत में मौत की सजा पा चुके लोगों का यही हश्र होगा. और उसकी पहचान सदा-सदा के लिए मिट जाएगी. 

इससे भविष्य में पैदा हो सकने वाले अपराधियों, आतंकवादियों और खुराफातियों को यह संदेश जाता है कि उन्हें न तो सम्मान मिलेगा, न ही याद किया जाएगा.

कई मामलों में सरकारें शव सौंपती भी हैं

हालांकि कुछ मामलों में सरकारें कानून से मौत की सजा पा चुके लोगों का शव उसके परिवार को सौंपती भी हैं. जैसा कि भारत में याकूब मेमन (1993 मुंबई बम धमाकों का दोषी) का शव उनके परिवार को दिया गया था. ऐसा करने से पहले सरकारें सुरक्षा, सामाजिक प्रभाव, जनसांख्यिकीय समीकरण का आकलन करती हैं. कई बार सरकारें जनभावना को संतुलित करने के लिए भी ऐसे फैसले लेती हैं. 
 

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