महाराष्ट्र में रविवार को जो सियासी भूचाल आया है, उससे बीजेपी ने राज्य में अपना सियासी कद तो बढ़ा ही लिया है, साथ ही इस नए गठबंधन का जो सीधा असर पड़ा है, वह विपक्षी एकता पर करारा प्रहार साबित हुआ है. बीजेपी ने 2024 से ठीक छह महीने पहले विपक्षी एकता पर चोट की है.
अजित पवार के एनसीपी से बगावत करने का घाटा सिर्फ शरद पवार को ही नहीं होगा, बल्कि बीते दिनों पटना में महाजुटान आयोजित करने वाले नीतीश कुमार समेत तमाम विपक्षी दल भी इसकी जद में आएंगे तो वहीं, अगले आम चुनावों में फिर से वापसी का सपना देख रही कांग्रेस को भी बड़ा सियासी नुकसान झेलना पड़ सकता है.
क्या कद्दावर नहीं रह गए शरद पवार?
विपक्षी खेमे में शरद पवार बड़ा चेहरा माने जा रहे थे, लेकिन अब उनकी स्थिति वैसी नहीं रही. शरद पवार के हालात ऐसे हो गए हैं कि वह पार्टी बचाएं या खुद का वजूद. अब इस बगावत से उनकी नेतृत्व क्षमता और पार्टी को एकजुट रखने के प्रयास भी विफल होते दिख रहे हैं क्योंकि जिन प्रफुल पटेल को उन्होंने कुछ दिन पहले कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया था वही अजित पवार के साथ मंच पर उनके साथ बैठे दिखे थे. ऐसे में अंदरूनी कलह झेल रहे शरद पवार के लिए विपक्ष को एकसाथ खड़े रखना और भी मुश्किल हो जाएगा.
कई बार तितर-बितर हो चुकी है विपक्ष की भीड़
एक तरफ कांग्रेस और दूसरी तरफ खुद नीतीश कुमार विपक्ष के सभी नेताओं को बीजेपी के खिलाफ एक अंब्रेला के नीचे लाने की कवायद में जुटे हैं. इसके लीडर का अभी चयन नहीं हो सका था, लेकिन ये भीड़ कई बार तितर-बितर हो चुकी है. संकट इस बात का अधिक था कि शरद पवार जैसा पावरफुल नेता हर बार उस लीक से हटकर किनारे खड़ा हो जाता है, जिस पर चलकर विपक्षी दल एकता का दम भरने की कोशिश करते हैं.
शरद पवार ने कई मुद्दों पर जताई थी अपनी असहमति
फिर मुद्दा चाहे पीएम मोदी की डिग्री का रहा हो, अडानी मामले में जेपीसी जांच का रहा हो, सावरकर का रहा हो, या फिर महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का रहा हो, शरद पवार ने कहीं चुप रह कर तो कभी दो टूक जवाब देकर अपनी असहमति जताई और विपक्षी एकता की दीवार खड़ी होने से पहले दरकने लगी. शरद पवार के इस रुख से कांग्रेस राजनीति में जिस तरह के ज्वार लाने की कल्पना कर रही थी, वह कल्पना ही साबित होती रही.
शरद पवार के वर्चस्व को नकारना था मुश्किल
इसके बावजूद शरद पवार, बीजेपी के लिए 2024 की राह में कांटे तो बिछा ही सकते थे. दूसरा, महाराष्ट्र की राजनीति से लेकर राष्ट्रीय राजनीति तक में शरद पवार के वर्चस्व को नकारा नहीं जा सकता था. महाराष्ट्र के राजनीतिक मामलों के जानकार, आज तक के वरिष्ठ पत्रकार ऋत्विक भालेकर ने विपक्षी एकता से जुड़े ऐसे ही एक मुद्दे पर अपनी टिप्पणी में कहा था कि, पार्टी में ही नहीं राजनीति में भी शरद पवार का वर्चस्व अभी भी बना हुआ है, इसे नकारा नहीं जा सकता है.
शरद पवार, कांग्रेस के लिए चुनौती भी जरूरी भी
2019 का जिक्र करते हुए वह कहते हैं कि अगर ऐसा नहीं होता तो , जिस तरह से अजित पवार ने बीजेपी के साथ शपथ ली थी, उसे गिरना नहीं पड़ता और वह महाविकास अघाड़ी में जाने को बाध्य नहीं होते. शरद पवार की महात्वकांक्षा रही है कि वह राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा चेहरा बनें और लीडर की भूमिका में सामने आए.' उनकी ये टिप्पणी रविवार दो जुलाई से पहले के हालात तक तो सटीक बैठती थी, क्योंकि शरद पवार का एक रुख राष्ट्रीय राजनीति की दिशा-दशा बदलने की ताकत रखता आया है. यह ताकत बीजेपी के लिए तो बड़ी चुनौती थी ही, कांग्रेस के लिए भी शरद पवार इसीलिए हमेशा जरूरी रहे हैं.
यही वजह है कि सावरकर जैसे मुद्दे पर विपरीत धारा के होने के बावजूद कांग्रेस कभी भी सीधे तौर पर शरद पवार से किनारा करती नहीं दिखती थी.
जब पटना में हुआ था विपक्ष का महाजुटान
बीते दिनों जब पटना में विपक्षी दलों की बैठक हुई थी तो इसे नीतीश कुमार की एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा गया था. क्योंकि यह पहली बार था कि वह कांग्रेस, ममता और पवार को एक साथ ले आए थे. बीजेपी ने इस पर तंज कसा कि 'पटना में पीएम पद के 19 दावेदार साथ बैठे'. शरद पवार इस बयान पर भड़क गए और उन्होंने मजबूती से जवाब दिया कि आप करें तो ठीक, हम करें तो दिक्कत? उन्होंने कहा कि हमारी बैठक से आप (बीजेपी) इतना परेशान क्यों हो जाते हैं.
विपक्षी बैठक में नहीं बन पाई थी एक राय
पटना की बैठक में विपक्षी एकता को लेकर एकराय नहीं बन पाई थी और अभी दूसरी बैठक की तारीख सामने आई ही थी कि उसके पहले ही बीजेपी ने बड़ा खेला कर दिया. अब शरद पवार के सामने घर संभालने की चुनौती है. भतीजा बगावत कर चुका है, महीने भर पहले कार्यकारी अध्यक्ष बनाई गई बेटी सुप्रिया सुले खाली हाथ हैं और शरद पवार के सामने स्थिति यह है कि पहले तो वह अपनी ही पार्टी को फिर से मजबूत कर लें. ऐसे में विपक्षी एकता वाली बात शरद पवार की प्राथमिकताओं में अब नीचे की ओर कहीं पहुंच गई है. 2024 से ठीक पहले इस चोट का डैमेज कंट्रोल करना आसान नहीं होगा.
जेडीयू में भी हो सकती एनसीपी जैसी टूट
कयास लगाए जा रहे हैं कि महाराष्ट्र जैसी स्थिति बिहार में भी जल्द दोहराई जा सकती है. कहा जा रहा है बिहार में जल्द ही, जनता दल यूनाइटेड में एनसीपी जैसी टूट देखने को मिल सकती है. यह भी कहा जा रहा है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बार फिर अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनकर वापस एनडीए में आ सकते हैं.
सुशील मोदी के बयान से मची हलचल
उधर, सुशील मोदी ने कहा है कि एनसीपी में टूट 23 जून को पटना में हुई विपक्षी दलों की बैठक का परिणाम है जहां राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करने की तैयारी की जा रही थी. सुशील मोदी ने दावा किया है कि बहुत जल्द बिहार में भी जेडीयू में टूट हो सकती है और इसी टूट के डर से नीतीश कुमार अपने विधायकों के साथ अलग-अलग बात कर रहे हैं. सुशील मोदी ने कहा है कि जनता दल यूनाइटेड के विधायक और सांसद ना राहुल गांधी को स्वीकार करेंगे ना तेजस्वी यादव को स्वीकार करेंगे और इसी कारण से पार्टी के अंदर जल्द भगदड़ मच सकती है.
23 जून की बैठक के बाद से राजद में रोष
पटना में 23 जून को विपक्षी दलों की बैठक के अगले दिन से ही उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव विदेश दौरे पर रवाना हो गए हैं और अब तक वापस नहीं लौटे हैं. राजनीतिक गलियारे में इस बात को लेकर भी कयास लगाए जा रहे हैं कि जिस तरीके से विपक्षी दलों की बैठक में राहुल गांधी के नेतृत्व करने को लेकर सभी दलों में रजामंदी दिखी उसको लेकर लालू प्रसाद और तेजस्वी नाखुश है.
गौरतलब है, पिछले कुछ महीनों से लगातार आरजेडी के तरफ से इस बात को लेकर दबाव बनाया जा रहा था कि नीतीश कुमार विपक्ष के प्रधानमंत्री उम्मीदवार बन जाए और फिर तेजस्वी यादव को बिहार की सत्ता सौंप दें लेकिन 23 जून की बैठक में जिस तरीके से राहुल गांधी के नेतृत्व में सभी विपक्षी पार्टियों ने काम करने को लेकर रजामंदी जताई थी उसके बाद लालू और तेजस्वी नाखुश है.
आरजेडी खेमे में इस बात को लेकर रोष है कि अगर नीतीश कुमार दिल्ली नहीं जाते हैं या फिर पक्ष के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नहीं बनते हैं तो वह बिहार के मुख्यमंत्री बने रहेंगे और फिर 2025 तक तेजस्वी यादव को उप मुख्यमंत्री के पद से ही संतोष करना पड़ेगा और उनके मुख्यमंत्री बनने का सपना पूरा नहीं होगा.
विपक्षी एकता के दूसरे मोर्चों का क्या है हाल?
अब विपक्षी एकता के दूसरे मोर्चों पर भी नजर डाल लेनी चाहिए. नीतीश कुमार जो इस मुहिम का झंडा बुलंद किए आगे बढ़ रहे हैं, सूत्र कह रहे हैं कि बीजेपी जेडीयू में भी ऐसी ही सेंध लगाने की तैयारी में है. यहां पर नीतीश की पार्टी के उन तत्वों की तलाश तेज हो गई है जिनके अंदर बगावत के इलेक्ट्रॉन-प्रोटॉन उमड़-घुमड़ रहे हैं. अनुमान है कि बिहार से भी कुछ दिनों में महाराष्ट्र जैसी खबर आ सकती है. नीतीश कुमार भी इसलिए अपने नेताओं से बात कर रहे हैं और उन्हें एकजुट रहने के लिए कह रहे हैं.
इधर कांग्रेस राजस्थान में आंतरिक कलह झेल ही रही है और अरविंद केजरीवाल का उनके साथ आना मुश्किल है. ममता बनर्जी की एकता को लेकर अपनी ही शर्तें हैं. बीजेपी इस पूरे पैटर्न को बहुत बारीकी से देख रही है और जहां भी लूप होल दिख रहे हैं, उसके हिसाब से स्ट्राइक कर रही है.
कुल मिलाकर पटना हो, शिमला या बेंगलुरु, बीजेपी ने 2024 से पहले महाराष्ट्र में सबसे बड़ा मास्टरस्ट्रोक मार दिया है और आगे भी ऐसे अटैक हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है.