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कोल्बर्ट, हिटलर, लेनिन और अब औरंगजेब... इतिहास के पन्नों में दर्ज ऐसी शख्सियत जो आज भी होती हैं नफरत का शिकार

इतिहास में ऐसे कई शख्स हैं, जिन्हें उनकी मौत के कई साल बल्कि शताब्दियां बीत जाने के बाद भी माफी नहीं मिली है. उनके जिंदगी का दौर क्रूर कहलाता है और फिर बाद में पूरा जीवनकाल ही विवादास्पद बन गया. इन विवादों का असर ऐसा है कि मृत्यु के बाद भी लोगों का गुस्सा और नफरत कम नहीं हुई.

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इतिहास में औरंगजेब के अलावा कई शख्सियत रही हैं नफरत का शिकार
इतिहास में औरंगजेब के अलावा कई शख्सियत रही हैं नफरत का शिकार

18 दिन तक चले भीषण युद्ध के बाद कुरुक्षेत्र की मिट्टी खून से लाल हो गई थी. कौरव सेना में कोई नहीं बचा था और पांडवों की ओर से पांचों भाई जीवित थे. युद्ध की समाप्ति के बाद श्रीकृष्ण सभी भाइयों के साथ हस्तिनापुर पहुंचे. सूने, वीरान और शांत, अस्त-व्यस्त पड़े राजमहल में यूं ही चहलकदमी करते हुए पांडवों को धृतराष्ट्र तक पहुंचने में अधिक समय नहीं लगा. उनके आने की आहट सुनकर धृतराष्ट्र खुद उठ खड़े हुए और सिंहासन से हटते हुए बोले- आओ युधिष्ठिर! बैठो, इस सिंहासन पर... तुमने इसे जीता है और मैंने इसे तुम्हारे लिए ही खाली कर दिया है. अब मैं इससे आगे युद्ध भी नहीं चाहता, इसलिए राजा होने के नाते समर्पण करता हूं और यह भी जानता हूं कि इतिहास मुझे ही इसका उत्तरदायी ठहराएगा. 

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यह सब सुनकर कृष्ण ने कहा- 'इतिहास आपको इसलिए उत्तरदायी ठहराएगा महाराज, क्योंकि आप ही इसके उत्तरदायी हैं. इतने बड़े नरसंहार और भीषण महायुद्ध के बाद आप अब कह रहे हैं कि आप युद्ध नहीं चाहते. आप युद्ध इसलिए नहीं चाहते क्योंकि अब आपके पास युद्ध के लिए कुछ बचा नहीं है. असल में आप ही इस महाभारत के विनाश के लिए जिम्मेदार हैं और संसार युगों तक आपसे घृणा करता रहेगा.'

भारत के पौराणिक संदर्भ से निकली ये बात राजनीति और राजनेताओं से जुड़ा ऐसा कठोर सच है, जिससे हर युग, हर देशकाल और परिस्थिति में सामना होता रहा है. शासकों की नीतियां उनके समय में कैसी रहीं और उनका असर लोगों पर न सिर्फ उस समय कैसा रहा, बल्कि जमाने बीतने के बाद भी उसका प्रभाव लोगों के विचारों और मन-मस्तिष्क पर कैसा रहा है, यही वह तथ्य है जिससे लोग किसी शासक के मुरीद होते हैं, उससे मुहब्बत करते हैं या फिर उससे नफरत करते हैं. ये बात सिर्फ शासकों के लिए ही नहीं, बल्कि आम आदमी के लिए भी सटीक बैठती है.

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इन्हीं सारी बातों और महाभारत के युद्ध का संदर्भ लेते हुए कविवर रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं,

'समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध' 

इतिहास में दर्ज हैं कई नाम जिन्हें सिर्फ नफरत नसीब हुई


इतिहास तो ऐसी तमाम शख्सियतों की जिंदगी का पुलिंदा है. इनमें वो बड़े नाम भी शामिल हैं, जिन्हें लोगों की बेपनाह मुहब्बत हासिल हुई है और आज भी हो रही है, इसके अलावा वो भी हैं जिनका उस जमाने में भी खौफ था और अब उनके न रहने के बावजूद, समय के कई दौर बीत जाने के बाद भी उनके लिए नफरत का माहौल जब-तब बनता रहता है. अभी हालात ऐसे हैं कि सारी नफरत और सारा गुस्सा मुगल बादशाह औरंगजेब के हिस्से में है, लेकिन ये कोई नई बात नहीं है. 

औरंगजेब

इतिहास में ऐसे कई शख्स हैं, जिन्हें उनकी मौत के कई साल बल्कि शताब्दियां बीत जाने के बाद भी माफी नहीं मिली है. उनकी जिंदगी का दौर क्रूर कहलाता है और फिर बाद में पूरा जीवनकाल ही विवादास्पद बन गया. इन विवादों का असर ऐसा है कि मृत्यु के बाद भी लोगों का गुस्सा और नफरत कम नहीं हुआ. ये शासक या राजा अपने समय में शक्तिशाली थे, लेकिन इनकी नीतियों और फैसलों ने समाज को इतना आहत किया है कि इनकी कब्रों पर भी शांति नहीं रही. 

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इन नामों की लिस्ट निकालें तो सूची काफी बड़ी हो सकती है, लेकिन इस लिस्ट में औरंगजेब के अलावा एडॉल्फ हिटलर, पोल पॉट (ख्मेर रूज), लुई 14, जीन-बैप्टिस्ट कोलबर्ट, शेख मुजीबुर रहमान, लेनिन, जोसेफ स्टालिन जैसे खास नाम तो हैं ही. इनकी विरासत आज भी बहस और नफरत का विषय बनी हुई है.

हिटलर की कब्र कहां है, कोई नहीं जानता 
बात को नाजी जर्मनी तानाशाह हिटलर से ही शुरू करते हैं. विश्व के इतिहास में हिटलर ऐसा नाम है, जिसे कभी इग्नोर नहीं किया जा सकता है, बल्कि 1945 को उसकी आत्महत्या के इतने सालों बाद भी हिटलर दुनिया की बड़ी आबादी के लिए नफरत का दूसरा नाम है. द्वितीय विश्व युद्ध और होलोकॉस्ट में लाखों लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार, हिटलर की निंदा उसकी मौत के इतने सालों बाद भी गाहे-बगाहे होती रहती है. बल्कि हिटलर का कोई कब्र या समाधि स्थल भी जर्मनी में कहीं नहीं है, बल्कि इस बात को लेकर भी संशय है कि हिटलर की कब्र कहां है. कुल मिलाकर उसकी कब्र का कोई निशान नहीं छोड़ा गया, इसके बाद भी उसकी तस्वीरें जलाने और मूर्तियां तोड़ने की घटनाएं प्रतीकात्मक रूप से होती रहती हैं.

हिटलर

20 लाख लोगों का कातिल पोल पॉट!
इसी कड़ी में अगला नाम पोल पॉट का आता है. 1970 के दशक में कंबोडिया में ख्मेर रूज के तहत 20 लाख लोगों की जान लेने वाला पोल पॉट भी नफरत का बड़ा उदाहरण है. ख्मेर रुज नाम के उसके साम्यवादी आंदोलन में बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी मारे गए और शहर के शहर खाली करवाए गए. 1998 में उसकी मृत्यु के बाद उसकी कब्र पर हमले हुए और उसके अस्थि अवशेषों के साथ गुस्साई भीड़ ने बुरा बर्ताव किया. पोल पॉट आज भी क्रूरता का पर्याय बना हुआ है और मौत के बाद भी उसे जनता की माफी नसीब नहीं हुई है. 

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लुई 14, फ्रांस क्रांति में गिराई गईं जिसकी प्रतिमाएं
विश्व के इतिहास में फ्रांस की क्रांति का इतिहास अपने आप में वीभत्स उदाहरण है. ये खूनी क्रांति इतिहास में इतनी चर्चा में रही कि इसकी घटनाएं आज भी याद की जाती हैं. इस क्रांति की सबसे दर्दनाक घटना है लुई सोलहवें की हत्या. जो असल में बीते 75 सालों से जनता के भीतर राजतंत्र के खिलाफ भरे हुए गुस्से और नफरत के ही कारण हुई थी. असल में, फ्रांस में लुई चौदहवें को अपने भव्य शासन के लिए जाना जाता था, लेकिन उसकी नीतियों ने जनता को गरीबी और भुखमरी में धकेल दिया. 

लुई ने अपने लिए उस समय 21 करोड़ का आलीशान महल बनवाया था. 1715 में उसकी मृत्यु के बाद फ्रांसीसी क्रांति में उसकी मूर्तियां तोड़ी गईं और उसकी कब्र पर भी लोगों का गुस्सा फूटा. 

फ्रांस के इतिहास में विरोध प्रदर्शन के दौरान प्राचीन विवादित इतिहास पर लोगों के गुस्सा फूटने का सिलसिला इस दौर में भी जारी रहा है. इसे वहां चार-पांच साल पहले हुए 'ब्लैक लाइव्स मैटर' आंदोलन के घटनाक्रम से भी समझा जा सकता है.

पेरिस के पैलेस रॉयल में तोड़ी गई जीन-बैप्टिस्ट कोल्बर्ट की प्रतिमा
साल था 2020, 'ब्लैक लाइव्स मैटर' आंदोलन दुनियाभर में जोर पकड़ रहा था, उसी दौरान पेरिस में भी उग्र भीड़ का एक समूह प्रदर्शन के लिए उमड़ा. ये भीड़ पेरिस के पैलेस रॉयल के बाहरी हिस्से में जुटी और यहां स्थापित एक प्रतिमा को हटाए जाने के लिए विरोध करने लगी. ये प्रतिमा थी, जीन-बैप्टिस्ट कोल्बर्ट की. फ्रांस का इतिहास उन्हें आर्थिक सुधारों और आर्थिक संरचना के साथ प्रशासनिक कौशल के आदर्श के रूप में देखता रहा है, लेकिन इस व्यक्तित्व के साथ एक काला अध्याय भी जुड़ा हुआ है.

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असल में 1685 ईस्वी में कोल्बर्ट द्वारा बनाए गए ब्लैक कोड (Code Noir) कानून ने फ्रांसीसी उपनिवेशों में दासता को वैध बना दिया था और इसके साथ ही उनके साथ होने वाले क्रूर व्यवहारों को भी. किसी भी आधुनिक समाज में दासता एक अभिशाप के सिवाय कुछ भी नहीं, लेकिन फ्रांस में जब कोल्बर्ट की मूर्ति को लेकर विरोध शुरू हुआ तो मामला सियासी हो गया और एक बार फिर वहां की राजनीति में दक्षिणपंथ और वामपंथ के बीच संघर्ष बढ़ गया. कोल्बर्ट की मूर्ति को लेकर उठा विवाद, फ्रांस की राजनीति और उसकी सियासत में प्रतीकों और मूर्तियों से जुड़े उन विवादों की ओर इशारा करता है जो फ्रांस में सदियों की परंपरा में एक इतिहास की तरह शामिल रहा है. जब वहां, पुराने शासकों की प्रतिमाएं हटाईं गईं, बड़े पैमानों पर उनका विध्वंस हुआ,

रूस में तोड़ी गईं लेनिन की प्रतिमाएं
फ्रांस की तरह ही रूस भी मूर्तियों पर गुस्सा उतारने में पीछे नहीं रहा है. बोल्शेविक क्रांति के नायक लेनिन ने रूस में साम्यवाद की नींव रखी थी, लेकिन उनके शासन में हिंसा और भुखमरी फैली, जिसने लोगों के गुस्से को भड़काया. 1924 में लेनिन की मृत्यु के बाद उनकी ममी मॉस्को में रखी गई, लेकिन सोवियत पतन के बाद उनकी मूर्तियां तोड़ी गईं और उनकी विचारधारा को कोसा गया.

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लेनिन

स्टालिन के स्मारकों पर भी फूटा आक्रोश
इसी तरह जोसेफ स्टालिन भी लोगों के बीच क्रूरता और दमन के चेहरे के तौर पर ही जाने जाते हैं. सोवियत संघ के इस नेता की पहचान भले ही औद्योगिकीकरण के अगुआ के तौर पर रही हो, लेकिन "ग्रेट पर्ज" में हुई लाखों लोगों की मौत ने स्टालिन के हिस्से में बड़े पैमाने पर जनता की नफरत लिख दी. 1953 में उनकी मृत्यु के बाद उनकी नीतियों की निंदा हुई, मूर्तियां गिराई गईं, और उनसे जुड़े स्मारकों पर भी तोड़फोड़ की गई.

शेख मुजीब उर रहमान की प्रतिमाएं तोड़ी गईं
इस मामले में सबसे ताजा उदाहरण तो बंगबंधु कहलाने वाले शेख मुजीब उर रहमान का है. बांग्लादेश के संस्थापक रहे शेख मुजीब की सालों पहले अपने ही देश में दर्दनाक हत्या हुई और फिर अभी हाल ही में जब बांग्लादेश में तख्ता पलट हुआ तब उनकी प्रतिमाओं को तोड़ा गया और उनके जुड़े सभी स्मारकों को नुकसान पहुंचाया गया. शेख मुजीब इस तथ्य के भी उदाहरण हैं कि जनता के बीच आपकी नीतियों का प्रभाव कैसा है, वही मायने रखता है. इसी आधार पर जनता आपको या तो सिर पर उठाती है, या फिर आपकी प्रतिमाओं को भी पैरों तले रौंद डालती है. 

आज जब एक फिल्म के बाद औरंगजेब के खिलाफ नफरत की बयार चल पड़ी है तो इसमें कोई नई बात नहीं है. इतिहास के पन्नों में औरंगजेब का किरदार वाकई विवादास्पद रहा है. मंदिर तोड़ना, धर्म बदलवाने के लिए जोर डालना और हारे हुए राजाओं और सैन्य कमांडरों के साथ क्रूर व्यवहार उसकी शख्सियत का हिस्सा रहे हैं और इसका लिखित इतिहास मौजूद है. ये अलग बात है कि अब न औरंगजेब जिंदा है और न ही उसकी नीतियां, लेकिन जनता का गुस्सा और नफरत कभी पुराना नहीं पड़ता, भले ही जनता नए जमाने और नए दौर की ही क्यों न हो. 

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इन सारी बातों को पर ध्यान देते हैं तो आदिकवि वाल्मीकि के ग्रंथ रामायण का पहला श्लोक जेहन में कौंध जाता है. तमसा नदी के तट पर खड़े वाल्मीकि ने जब देखा कि शिकारी ने तीर मारकर क्रौंच पक्षी के जोड़े की हत्या कर दी है तो उनके मुख से सहसा ही श्राप फूट पड़ा. 

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः,
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् .

हे शिकारी! प्रेम में मगन क्रौंच पक्षी के इस जोड़े की हत्या करने वाले तुम कभी प्रतिष्ठा नहीं पा सकोगे और शांति तो तुम्हें कभी नहीं मिलेगी.

क्रूर शासक वही श्रापित शिकारी हैं, जिन्हें पद तो हासिल हो जाता है, वह रौनक और रुतबा भी हासिल कर लेते हैं, लेकिन उन्हें जनता के दिलों में प्रतिष्ठा नहीं मिलती है और जिंदगी में शांति भी नहीं. बल्कि कब्र की असीम गहराइयों में पड़े होने के बावजूद नहीं मिलता है उन्हें सुकून.  

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