"मुगलों ने राजपूतों के साथ कुछ तीखी मुठभेड़ें कीं. मुगलों ने पाया कि अब उन्हें अफगानों या भारत के किसी भी मूल निवासी से ज़्यादा दुर्जेय दुश्मन से लड़ना होगा. राजपूत आमने-सामने की टक्कर के लिए तैयार थे. अपने सम्मान के लिए जान देने में उन्हें रत्ती भर भी गुरेज नहीं था."
19वीं सदी के स्कॉटिश इतिहासकार विलियम एर्स्किन ने ये कहानी अपनी एक किताब में लिखी है. ये वाकया खानवा की लड़ाई से पहले हुए बयाना की जंग का है. इस जंग में राणा सांगा और बाबर की तलवारें टकरा चुकी थीं. और इसमें बाबर को घोर शिकस्त का सामना करना पड़ा था. बाबर इस टक्कर को कभी नहीं भूल पाया. उसने अपनी आत्मकथा 'बाबरनामा' में लिखा है.
"काफ़िरों (हिंदुओं) ने वो जंग किया की मुगल सेना काफी हद तक नष्ट हो गई. बयाना में सांगा के नेतृत्व में राजपूत सेना ने हमें दबा दिया और हमारे सैनिकों का हौसला भी जाता रहा."
बयाना में मुगलों को रौंदकर राजपूतों के हौसले सातवें आसमान पर थे. राणा सांगा अब अपनी महात्वाकांक्षाओं का विस्तार दे रहे थे. बयाना का युद्ध (21 फरवरी, 1527) जीतने के बाद उन्होंने हड़ौती, जालोर, सिरोही, डुंगरपुर जैसे राजघरानों की वफादारी हासिल कर ली.
बयाना पर कब्जा करने के बाद महाराणा उत्तर-पूर्व की ओर चले गए और भुसावर पर कब्जा कर लिया. अब दिल्ली और काबुल से बाबर की सप्लाई लाइन कट गई.
इधर पानीपत की पहली लड़ाई में लोदियों को शिकस्त दे चुके बाबर को अपने सपनों की बुनियाद हिलती नजर आ रही थी.
बयाना की जंग में हार के बाद बाबर की सेना में भगदड़ मच गई थी. अफगान सैनिक उसका साथ छोड़ने लगे, तुर्कों ने भी ताने शुरू कर दिया. उस मुल्क की हिफाजत क्यों करना जो उन्हें रास नहीं आ रहा था.
बाबर के कमांडर और जनरल चाहते थे कि पानीपत जीता जा चुका था. सोना और हीरा लूटा जा चुका अब समय अपने वतन लौटने का था. 2000 सालों हिन्दुस्तान फतह करने के लिए निकले राजा-लुटेरे ऐसा ही तो करते आए थे.
लेकिन इतिहास और घटनाओं की अपनी ही चाल होती है.
लाहौर के डीएवी कॉलेज में इतिहास के अध्यापक रहे श्रीराम शर्मा ने अपनी किताब महाराणा प्रताप में लिखा है, "बाबर कोई तैमूर थोड़े ही था, जो विजय पाकर वापस चला जाता. उसने निर्वासन में भारत को अपना घर बनाने का निश्चय किया. यद्यपि लोदी वंश पराजित हो चुका था, फिर भी राणा सांगा के नेतृत्व में राजपूत बाबर के भारतवर्ष में रहने के अधिकार को स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत न थे. इसलिए अब फौलाद का सामना फौलाद से था और युद्ध अनिवार्य हो गया."
दो महात्वाकांक्षाएं एक बड़े टकराव की तैयारी कर रही थी. इस टकराव का नाम था. खानवा का युद्ध (Battle of Khanwa).
दिल हार चुके अपने सैनिकों में जोश संचार करने के लिए बाबर ने मजहब का पासा फेंका. उसने कहा-
"राजपूतों का साथ देने वाला हर अफ़ग़ान काफिर और गद्दार हैं."
बाबर ने भविष्य में शराब पीने से इन्कार कर दिया, अपने पैमाने तोड़ दिए, शराब का सारा भंडार जमीन पर उड़ेल दिया तथा पूर्ण शराबबंदी की शपथ ली.
बाबर लिखता है, "ये एक बहुत अच्छा प्लान था. इस प्रोपगेंडा का सेना और दुश्मनों पर भी अच्छा असर हुआ."
राणा सांगा ने खानवा की जंग के लिए मारवाड़, अम्बर, ग्वालियर, अजमेर, हसन खां मेवाती, चंदेरी और इब्राहिम लोदी के भाई महमूद लोदी को अपने साथ कर लिया.
खानवा की लड़ाई
तारीख.... 17 मार्च 1527. यानी आज से ठीक 498 साल पहले की बात है. खानवा में प्रात: नौ बजे राणा सांगा और बाबर की सेना सज-धज कर आमने-सामने खड़ी थी.
खानवा (Khanwa) भारत के राजस्थान राज्य में भरतपुर जिले के पास स्थित है. ये जगह दिल्ली से 180 किलोमीटर और आगरा से 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है.
बाबरनामा में बाबर कहता है कि राणा सांगा की सेना में 2 लाख सैनिक थे. कुछ और इतिहासकार इसे 40 हजार तो कुछ एक लाख बताते हैं.
युद्ध के दिन राणा सांगा ने अपने विश्वस्त सरदारों को मध्य में और अन्य को दाएं और बाएं ओर तैनात किया. उसने अपनी सेना के बड़े हिस्से को दुश्मन की सीमा में भेजकर आमने-सामने की लड़ाई लड़ने की सोची. लड़ाई की इस रणनीति में राजपूत घुड़सवार सेना का कोई मुकाबला नहीं था.
लेकिन जंगों और जख्मों को देखकर पक चुका बाबर आज कुछ और रणनीति लेकर आया था.
श्रीराम शर्मा लिखते हैं, "एक ओर राजपूतों का साहस था, दूसरी ओर मुगलों का संगठन. चतुर सेनापति सांगा का सामना लगन के धनी बाबर से था."
बाबर जान गया था सीधे की टक्कर में राजपूत सेना से जीतना मुश्किल है. इसलिए उसने डिफेंसिव फॉर्मेशन तैयार किया. उसने अपनी सेना को तीन हिस्सों में बांटा. दाहिना, बांया और मध्य.
बाबर यहां उसी तरह की ब्यूह रचना की जैसा उसने पानीपत के युद्ध के दौरान किया था. बाबर ने अपनी सेना के सामने जानवरों से चलने वाली गाड़ियों की कतार खड़ी और और उन्हें लोहे की जंजीरों से बंधवा दिया. इन गाड़ियों की आड़ में था बाबर का सबसे मजबूत हथियार- यानी तोप और बंदूकची. ये शत्रु सेना पर तोप और जलते हुए बारूद की वर्षा करते थे.
बाबर ने सेना के दोनों सिरों पर तुलगाम सैनिक रखे जो घूमकर शत्रु सेना पर पीछे से आक्रमण करते थे.
जंग शुरू हुई तो राजपूताना शान के मुताबिक सांगा की सेना ने सामने से धावा बोला. लेकिन मुगलों का बारूद प्रलय मचाने लगा.
सांगा की सेना को बड़ी संख्या में मुगल बंदूकों ने मार गिराया. बंदूकों और तोपों की गरज से राजपूत सेना के घोड़ों और हाथियों में और भी डर पैदा हो गया. रणभूमि में वे बिदकने लगे. उन्हें संभालना मुश्किल हो गया.
अब सांगा ने अपनी सेना को मुगलों सेना के पीछे वाले हिस्से पर हमला करने का आदेश दिया.
दोनों तरफ तीन घंटे भीषण युद्ध हुआ.
इस दौरान मुगलों ने राजपूतों की लाइनों पर बंदूकों और तीरों से गोलीबारी की, जबकि राजपूत केवल करीब से ही जवाबी हमला कर सकते थे.
राजपूत सेना मुगल सेना की रक्षात्मक प्रणाली को तोड़ने में नाकाम रही, लेकिन उन्होंने मुगलों की तुलुगमा रणनीति को भी सफल नहीं होने दिया. मुगल घुड़सवार जैसे अटैक करने आते, राजपूत सेना भी उतनी ही तेज़ी से उन्हें पीछे खदेड़ती. दोपहर तक की जंग में टक्कर बराबरी की थी.
रायसेन के सिलहडी की दगाबाजी
राणा की सेना इस ऊहापोह में ही थी कि रणभूमि पर एक ऐसी घटना हुई जिसने युद्ध का रुख ही बदल दया. युद्ध के बीच रायसेन के सिलहडी तोमर ने राणा की सेना को छोड़ दिया और अपने 30 हजार सैनिकों के साथ बाबर की ओर चला गया.
सिलहडी के विश्वासघात ने राणा को अपनी योजनाएं बदलने और नए आदेश जारी करने के लिए मजबूर किया.
इसी हेरफेर के दौरान राणा सांगा को एक गोली लगी और वे बेहोश होकर गिर गए. युद्ध का नतीजा अब तय होने लगा था.
राणा को जख्मी देख राजपूत खेमे में सिहरन दौड़ गई. लगभग एक घंटे तक यही स्थिति रही.
बाबर अपने संस्मरण में लिखता है,"काफिरों की सेना एक घंटे तक भ्रमित रही."
हालात को देख झाला के सरदार अज्जा ने फैसला लिया. उन्होंने तुरंत राणा का वेष धरा, राणा के हाथी पर सवार हुए और जंग का नेतृत्व करने लगे. अभी राणा अपने भरोसेमंद लोगों के बीच थे.
सरदार अज्जा के नेतृत्व में राजपूतों ने अपने हमले जारी रखे लेकिन मुगलों की सेना को तोड़ने में असफल रहे.
राजपूत सेना की कमजोर स्थिति को देखकर बाबर अब रक्षात्मक पोजिशन से हटकर अपने आदमियों को आगे बढ़कर लड़ने का आदेश दिया.
मुगल हमले ने राजपूतों को पीछे धकेल दिया और राजपूत कमांडरों को मोर्चा छोड़ने पर मजबूर कर दिया.
डूंगरपुर के रावल उदय सिंह और कई राठौड़ और चुंडावत सरदारों सहित कई राजपूत सरदार युद्ध में मारे गये.
इतिहासकार विलियम एर्स्किन लिखते हैं, "बाबर की रणनीति सिर्फ़ ताकत के बारे में नहीं थी-यह स्मार्ट प्लानिंग और नए हथियारों का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल करने के बारे में थी."
राजपूतों ने सीधे हमले की अपनी पारंपरिक पद्धति का पालन करते हुए बाबर की सेना पर हमला किया। लेकिन उन्हें तोपों की आग और बंदूकों की गोलियों का सामना करना पड़ा.