
इतिहास में आज: ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल कहा करते थे- 'इतिहास पढ़ो, इतिहास पढ़ो. इतिहास में ही सत्ता चलाने (Statecraft) के सारे रहस्य छिपे हैं'. फ्रांसीसी विचारक जीन बोडिन कहते हैं कि इतिहास का अध्ययन राजनीतिक ज्ञान हासिल करने की कला की शुरुआत है. दरअसल इतिहास के धूल भरे पन्नों को पलटना उबाऊ और नीरस लग सकता है लेकिन इन पन्नों में छिपे सबक ही हमें सुरक्षित भविष्य का भरोसा देते हैं.
266 साल पुरानी बात कौन करना चाहेगा? लेकिन आज हम क्या बात करेंगे ये तो हमारा गुजरा हुआ कल तय करता है. उस रोज की एक जंग ने और उसी दरमियान हुए कुछ घंटों की एक बारिश ने हिन्दुस्तान का मुस्तकबिल तय कर दिया और हमें 190 और सालों की गुलामी में धकेल दिया. जंग के लिए हमारा नवाब तो तैयार था लेकिन नवाबी रंग-ढंग में डूबे बंगाल के इस सूबेदार ने कई गलतियां की.
उस दिन बारिश को जंग के दौरान ही आना था. दोनों ओर से तोपें गरज रही थी, बंदूकें चल रही थीं. तभी बादल गरज उठे. तेज वर्षा शुरू हो गई. अंग्रेजों का मैनेजमेंट और हुनर आज नहीं, तब से ही मशूहर था. उन्होंने तुरंत तारपोलिन से अपने गोले-बारूद और तोपों को ढक दिया. भीगे गोले और बारूद जंग में भला किस काम के. ब्रिटिश कमांडरों ने तुरंत सतर्कता दिखाई. लेकिन बंगाल का नवाब सिराजुद्दौला ये होशियारी न दिखा सका. तोप के सारे बड़े-बड़े गोले भीग कर गोबर हो गए. बारिश थमी. युद्ध एक बार फिर शुरू हुआ. नवाब के सिपाहियों ने जब गोलों को तोप में डालकर चार्ज किया तो सारे फुस्स...
संख्या में बीस मगर रणनीति और तजुर्बे में उन्नीस
ये घोर लापरवाही थी. अंग्रेजों की तोप आग उगल रही थी. हाहाकर मचा रहा था. नवाब के सैनिक ढेर हो रहे थे. आखिरकार सुबह शुरू हुई ये जंग शाम होने से पहले मुकम्मल हो गई. बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को इस लड़ाई से भागना पड़ा. संख्या में बीस मगर रणनीति और तजुर्बे में अठारह-उन्नीस रहने के कारण बंगाल ये जंग हार गया.
दुनिया इस टक्कर को प्लासी की लड़ाई के नाम से जानती है. तारीख थी 23 जून 1757. आज से ठीक 266 साल पहले. दुनिया भर के सैन्य इतिहासकर इस जंग का अपने-अपने नजरिये से पोस्टमार्टम करते हैं.
इस जंग को और इसके नतीजे को समझने के लिए आधी सदी और पीछे जाने की जरूरत पड़ेगी. साल 1707. मुगल शासक औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही मुगलिया सल्तनत की दीवारें चटकनें लगी. शाही दरबार का इकबाल घटना शुरू हो गया. कई सूबेदार अब अपना राज चाहते थे. ऐसे ही हालातों में बंगाल, बिहार और उड़ीसा जैसे तीन प्रांतों के सूबेदार अलीवरदी खां ने दिल्ली को सालाना मालगुजारी भेजना बंद कर दिया और खुदमुख्तार शासक बन गया.
हैसियत में तब लंदन से आगे था मुर्शिदाबाद
तब सूबा-ए-बंगाल की राजधानी मुर्शिदाबाद थी. तब मुर्शिदाबाद की हैसियत उस समय के लंदन से कहीं ज्यादा थी. अंग्रेजों का सेनापति और इस कहानी का अहम किरदार रॉबर्ट क्लाइव मुर्शिदाबाद के बारे में लिखता है, "मुर्शिदाबाद शहर उतना ही लंबा, चौड़ा, आबाद और धनवान है, जितना लंदन. अंतर केवल इतना है कि लंदन के धनाढ्य आदमी के पास जितनी संपत्ति हो सकती है उससे कहीं ज्यादा मुर्शिदाबाद में अनेकों के पास है."
इस बीच यूरोप के सौदागर मुगलों से शाही फरमान लेकर भारत में तिजारत कर रहे थे. इनमें अंग्रेज, फ्रांसीसी, डच और पुर्तगाली शामिल थे. कलकत्ते में अंग्रेज और इससे थोड़ी दूर पर मौजूद चंद्रनगर में फ्रांसीसी अपने-अपने किले बना रहे थे. कुछ तो हालात और कुछ उम्र का असर अलीवरदी खां इन मनमानियों पर मनमसोस कर रह गया. मराठों के हमले से वह पहले ही परेशान था. 10 अप्रैल 1756 को अलीवरदी खां की 80 साल में मृत्यु हो गई.
नाना की नसीहत
अलीवरदी खां का बेटा नहीं था. उसने अपना उत्तराधिकारी अपनी छोटी बेटी अमीना बेगम के बेटे सिराजुद्दौला को घोषित कर रखा था. उसने मरने से पहले अपने नवासे को लालची यूरोपीय सौदागरों से सावधान कर रखा था. इस बारे में 1960 में लिखी गई पुस्तक 'भारत में अंग्रेजी राज' में लेखक और स्वतंत्रता सेनानी सुंदरलाल ने लिखा है, अलीवरदी खां ने सिराजुद्दौला को नसीहत देते हुए कहा- "अंग्रेजों की ताकत बढ़ गई है, तुम अंग्रेज़ों को जेर (पराजित) कर लोगे तो बाकी दोनों कौमें तुम्हें अधिक तकलीफ नहीं देंगी, मेरे बेटे उन्हें किले बनाने या फौज रखने की इजाजत न देना. यदि तुमने यह गलती की तो मुल्क तुम्हारे हाथ से निकल जाएगा."
अल्हड़ नौजवान शहजादे को बंगाल का ताज
नाना के इंतकाल के बाद जब अप्रैल 1756 में सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना तो वह 24 साल का एक अल्हड़ नौजवान शहजादा था. इतिहासकारों ने उसे 'फॉर्च्युन चाइल्ड' कहा है. क्योंकि अलीवरदी खां ने अपनी तीन बेटियों की कई संतानों में से उसे अपना उत्तराधिकारी चुना था. लाजिमी है कि इस बंगाल के इस भावी सूबेदार का पालन पोषण बड़े नाजों-नखरों के साथ हुआ. लेकिन जो तख्त उसे मिला उसमें कांटे ही कांटे थे. सिराजुद्दौला को अंग्रेजों की साजिशों, अपनों की बेवफाइयों और हिन्दुस्तान की तल्ख सियासी हकीकत का सामना करना था.
सिराजुद्दौला की बड़ी खाला (मौसी) घसीटी बेगम उसे पसंद नहीं करती थी. घसीटी ढाका के नवाब की बेगम थी और उसके पास अकूत दौलत थी. अलीवरदी खां की दूसरी बेटी मौमीना बेगम का बेटा था शौकंत जंग. सिराज के प्रति नाना की मोहब्बत ने शौकत को उसके खिलाफ नफरत से भर दिया था. घसीटी और शौकत मिलकर सिराज की जिंदगी को जहन्नुम बना देने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे.
लेकिन सिराज धीरे-धीरे तपने लगा था. नाना अलीवरदी खा 1744 में मराठों के खिलाफ जंग में उसे तब ले गए थे जब वह 11 साल का था. उसने जंगें देखी थी और सियासत के शतरंजी पेंच समझ गया था.
अंग्रेजों ने किया अपमान
लेकिन मिर्जा मोहम्मद सिराजुद्दौला को असली चुनौती भारत में तिजारत करने आए अंग्रेजों ने दी. तब रवायत थी कि जब नया सूबेदार गद्दी पर बैठता था तो उसके तमाम मातहत, आमिर, विदेशी सौदागर नजराना पेश करने आते थे. इस रस्म अदायगी का माने यह था कि वे लोग सूबेदार की अधीनता स्वीकार करते हैं. सिराज जब सूबेदार बना तो अंग्रेज ऐसा नहीं किए. अंग्रेज सिराज के दरबारियों में फूट डालकर, रिश्वत देकर अपना काम चला लेते थे. वे सिराजुद्दौला से बात नहीं करते थे. कासिमबाजार जो अंग्रेजों की कोठी थी. वहां कई बहाने बनाकर अंग्रेजों ने सिराज को घुसने से रोक दिया. ये सीधा-सीधा अपमान था.
अंग्रेजों ने नवाब के खिलाफ जाकर बंगाल के अंदर ही कलकत्ते में किलेबंदी कर ली. उन्होंने किले के चारों ओर खंदक खोद दिया. अगर नवाब किसी दरबारी को सजा देता था तो अंग्रेज उन्हें कलकत्ता बुलाकर अपनी कोठी में पनाह देते थे. कुल मिलाकर अंग्रेजों ने बंगाल के सूबेदार को खुली चुनौती दे दी थी.
मजबूरन सिराजुद्दौला ने अंग्रेजों का दमन करना शुरू किया. 24 मई 1756 को सिराजुद्दौला ने अंग्रेजों से कासिमबाजार की कोठी खाली करवाई. अंग्रेज मुखिया वाट्स ने तुरंत सरेंडर कर दिया. हालांकि नवाब ने उसकी जान बख्श दी.
फोर्ट विलियम पर कब्जा
5 जून को सिराजुद्दौला ने कलकत्ते से अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए मुर्शिदाबाद से कूच किया. सिराजुद्दौला का निशाना फोर्ट विलियम था. फोर्ट विलियम कलकत्ता में हुगली नदी के पूर्वी किनारे पर बना एक किला है, जिसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने बनवाया था. सिराज के राज में ये किला ब्रिटिश शक्ति का प्रतीक बन गया था.
उन दिनों सैन्ययात्रा बहुत मुश्किल थी. तोपों को हाथी और बैल खींचकर ले जाते थे. सख्त धूप, गर्मी के महीने में रोजा रखे सिराजुद्दौला की फौज 11 दिन में 160 मील का सफर तय कर 16 जून को कलकत्ता पहुंची.
तब नवाब के काफिले में 30,000 सिपाही, 20,000 घुड़सवार और 400 हाथी थे. वहीं फोर्ट विलियम की सुरक्षा लचर थी. इसकी सुरक्षा में मात्र 180 जवान थे. इसके अलावा यूरोप के कुछ दर्जन भाड़े के सिपाही इसकी रक्षा में थे. 16 जून को ही सिराजुद्दौला ने किले को घेर लिया. अंग्रेज मामूली चुनौती पेश कर सके और छोटी सी लड़ाई के बाद ढेर हो गए. 20 जून 1756 को नवाब की विजयी सेना ने किले में प्रवेश किया.
कई दर्जन अंग्रेज बंधक बना लिए गए. कुछ भाग गए. किले के अंदर नवाब का दरबार लगा, कलकत्ते की कोठी का मुखिया मिस्टर हॉलवेल सिराजुद्दौला के सामने पेश किया गया. इसे भलमनसाहत कहें या नातजुर्बेकारी नवाब सिराजुद्दौला बड़ी नरमी से पेश आया. उसने हॉलवेल की हथकड़ी खुलवा दी और उसे भरोसा दिलाया कि उसका किसी तरह का नुकसान नहीं होगा. यही नहीं नवाब ने किले के अंदर मौजूद गोला बारूद को भले ही हटा लिया, लेकिन अंग्रेजों के खजाने को हाथ तक नहीं लगाया.
सिराजुद्दौला ने हिन्दू दीवान मानिकचंद को बनाया हाकिम
इस जंग के बाद सिराजुद्दौला ने कलकत्ते का नाम बदलकर अलीनगर रख दिया और अपने हिन्दू दीवान राजा मानिकचंद को वहां का हाकिम नियुक्त किया.
18 बाय 14 के तहखाने में कैद किए गए 146 यूरोपियन
20 जून 1756 को फोर्ट विलियम में अंग्रेजों की हार के बाद एक और घटना हुई जिसका जिक्र अंग्रेज इतिहासकार अक्सर सिराजुद्दौला का बदनाम करने के लिए करते हैं. आरोप है कि फोर्ट विलियम में हार के बाद सिराज के सैनिकों ने 146 यूरोपियन कैदियों को 18 फीट लंबे और 14 फीट चौड़े एक तहखाने में ठूंस दिया और बाहर से दरवाजा बंद कर दिया. एक तो जून का महीना, उमस वाली गर्मी, ऊपर से इस छोटी सी अंधेरी जगह में इतने सारे लोग. अगले दिन जब इस कमरे का दरवाजा खोला गया तो केवल 23 यूरोपियन जिंदा मिले वो भी अधमरे हालत में. इस घटना को अंग्रेजों ने ब्लैक होल कांड नाम दिया और इसका खूब दुष्प्रचार किया. इस घटना की पूरी सत्यता पर आज भी संदेह है.
लेखक सुंदरलाल कहते हैं कि ये सारा किया धरा उसी हॉलवेल का था जिसकी हथकड़ी सिराज ने खुलवा दी थी. भारत से वापस विलायत जाते समय जहाज पर बैठकर उसने इस कहानी को बढ़ा-चढ़ा कर गढ़ा था.
हॉलवेल इस हार से कांप गया था. उसने 30 नवंबर 1756 को ईस्ट इंडिया कंपनी के डायरेक्टरों को चिट्ठी लिखी, "इतनी घातक और शोकजनक आपत्ति बाबा आदम के समय से लेकर आजतक किसी भी कौम या उसके उपनिवेश के इतिहास में न आई होगी."
फोर्ट विलियम की हार अंग्रेजों के शौर्य पर काला धब्बा था. वे अब किसी भी हालत में सिराजुद्दौला की सूबेदारी छीनने पर आमदा थे. तब दक्षिण भारत का मद्रास शहर उनका स्थायी अड्डा था. इधर बंगाल से भागकर अंग्रेज बंगाल की खाड़ी से कुछ नीचे फलता नाम के जगह पर ठहरे थे. यहां से उन्होंने मद्रास चिट्ठी लिखी और मदद मांगी. 20 जून की कलकत्ते की हार 16 अगस्त को मद्रास पहुंची. इसके बाद अक्टूबर में अंग्रेजों ने 800 यूरोपियन और 1300 हिन्दुस्तानी सिपाहियों को कलकत्ते के लिए रवाना कर दिया. थल सेना का नेतृत्व कर रहा था रॉबर्ट क्लाइव, जो बाद में हिन्दुस्तान का इतिहास बदलने वाला था, जबकि जल सेना एडमिरल वाटसन के कमान में थी. एक महीने बाद दिसंबर 1756 तक ये सेना फलता पहुंच गई.
अंग्रेजों ने फिर खरीदी एक हिन्दुस्तानी की वफादारी
इस बीच अंग्रेजों ने एक बार फिर से एक भारतीय की वफादारी खरीदी. उन्होंने मानिकचंद जिसे सिराज ने अलीनगर यानी कलकत्ते का दीवान बनाया था. उसे अपनी ओर मिला लिया. साल बदला, अग्रेंजों ने चाल बदली. अब वे एक बार फिर हमलावर हो गए. 2 जनवरी 1757 को मामूली लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने कलकत्ता पर फिर से अधिकार कर लिया. 11 जनवरी को अंग्रेजों ने हुगली लूट लिया और वहां कत्लेआम मचाया. 7 दिन तक यहां अंग्रेज खून बहाते रहे. दीगर है कि इस दौरान सिराजुद्दौला अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद में था.
मान-मनुहार ही करते रहे नवाब
अंग्रेजों से निपटने के लिए सिराजुद्दौला को एक बार फिर से कलकत्ते आना पड़ा. लेकिन अबतक नवाब साहब अंग्रजों को समझ नहीं पाए. वे मान-मनुहार की ही बात कर रहे थे. सिराजुद्दौला ने अंग्रेज सेनापति वाटसन को पत्र लिखकर कहा, "तुम लोगों ने हुगली का नगर लूट लिया... इस तरह का काम व्यापारियों को शोभा नहीं देता... मैं सेना सहित नदी पार कर रहा हूं, फिर भी तुम चाहते हो कि कंपनी का कारोबार पहले की तरह जम जाए तो बातचीत शुरू कर सकते हो, मेरे सेना लेकर आने से तुम्हारा ही नुकसान होगा."
4 फरवरी 1757 को सिराजुद्दौला कलकत्ता पहुंचा. अंग्रेजों ने उसे अमीचंद नाम के हिन्दू व्यापारी के घर ठहराया. 5 फरवरी की सुबह कोहरे में सिराज के ठिकाने पर अंग्रेजों ने हमला कर दिया. इस दौरान नवाब तो बच गए. लेकिन उन्हें अपनी कई खामियां पता चल गई. सिराजुद्दौला के प्रधान सेनापति मीर जाफर की बगावत अब साफ दिख रही थी.
इस घटना के बाद 9 फरवरी को अंग्रेजों और सिराजुद्दौला के बीच अलीनगर की संधि हुई. इसके जरिये बंगाल ने अंग्रेजों को कई किस्म की रियायत दे दी. अंग्रेजों को किलेबंदी करने, सिक्के ढालने का अधिकार मिल गया. कंपनी की ओर से एक अंग्रेज अधिकारी वाट्स मुर्शिदाबाद में रहने लगा. इससे नवाब के दरबारियों की जासूसी और उन्हें तोड़ना और भी आसान हो गया.
साजिशें, गुप्त समझौते
नवाब सिराजुद्दौला के छोटे से राज में लगातार अस्थिरता रही. इससे हिन्दू व्यापारी, बड़े सेठ अपने माल असबाब को लेकर भयभीत रहे. उन्होंने अपनी संपत्ति को बचाने के लिए यार लुत्फ खां की मदद ली. वहीं जब अंग्रेजों ने इन्हें शांति और स्थायित्व का झूठा भरोसा देकर अपनी ओर मिलाना चाहा तो वे तैयार वो गए. इनमें दीवान मोहनलाल, राय दुर्लभ जैसे सैन्य कमांडर थे तो ओमिचंद, महताब राय जैसे सेठ भी शामिल थे. नवाब बनने की मीर जाफर की महात्वाकांक्षाएं तो पहले ही उफान मार रही थी. अंग्रेज भी मीर जाफर को नवाब बनाना चाहते थे जो कि अलीवरदी खां का बहनोई था.
इस बीच इससे पहले 23 मार्च को ही अंग्रेजों ने चंद्रनगर पर कब्जा कर लिया था. जो कि फ्रेंच कोठी थी और इसकी सुरक्षा का भार नवाब सिराज पर था. अंग्रेजों के इस कदम से नवाब पहले ही भड़का हुआ था.
जनाना पालकी में गद्दार मीर जाफर के महल पहुंचे अंग्रेज
4 जून 1957 को आधी रात एक जनाना पालकी में बैठकर अंग्रेज अफसर वाट्स ने मीर जाफर के महल में प्रवेश किया. यहां एक समझौता हुआ जिसमें अंग्रेजों ने सिराजुद्दौला को हटाने के बाद मीर जाफर को नवाब बनाने का वादा किया.
12 जून की शाम को मुर्शिदाबाद की कोर्ट में रहने वाला अंग्रेज अफसर वाट्स और उसके साथी हवाखोरी के बहाने वहां से भाग निकले. 12 जून को ही मीर जाफर ने कलकत्ता एक पत्र भेजा और लिखा यहां सब तैयार है. 14 जून को रॉबर्ट क्लाइव ने बंगाल के सूबेदार मिर्जा मोहम्मद सिराजुद्दौला के खिलाफ जंग की घोषणा कर दी.
अब सिराजुद्दौला को भी मजबूर होकर अपनी सेना निकालनी पड़ी. इससे पहले वह हिन्दुस्तानी रिवाज के अनुसार अपने प्रधान सेनापति मीर जाफर के महल में पहुंचा और जंग में साथ देने और कूच करने की प्रार्थना की. लेखक सुंदरलाल लिखते हैं, " मीर जाफर ने कुरान हाथ में लेकर सिराजुद्दौला के सामने वफादारी की कसमें खाई. सिराजुद्दौला के सामने अब अविश्वास का कोई सबब न था." बता दें मीर जाफर के कमांड में इस वक्त हजारों सैनिक थे. इसलिए उसका साथ जरूरी था. हालांकि गद्दार मीर जाफर की वफादारी तो उस रात को ही बिक चुकी थी जब उसने अंग्रेजों के साथ सूबेदार बनने का समझौता कर लिया था.
गंगा किनारे वाली जंग
वर्तमान पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद से 20 मील दक्षिण की ओर और कलकत्ते से 100 मील दूर गंगा नदी के किनारे पलाश के पेडों का एक छोटा सा वन हुआ करता था. पलाश का जंगल यानी ढेर सारे गहरे लाल-लाल फूल. स्थानीय लोग पलाश के पेड़ों पर फरवरी में खिलने वाले इन फूलों से होली के रंग बनाते थे. लेकिन उस रोज इस जंगल में वफादारी का कत्ल हुआ और खून की होली खेली गई.
23 जून 1757, दिन वृहस्पतिवार को इसी प्लासी के मैदान में गंगा नदी के किनारे वो जंग लड़ी गई, जिसने हिन्दुस्तान के मस्तक पर गुलामी की मुहर पक्की कर दी. सिराजुद्दौला के पक्ष में कथित तौर पर प्रधान सेनापति मीर जाफर के अलावा तीन और सेनापति थे- यारलुत्फ खां, राजा दुर्लभ राज और मीर मदन. लगभग 30 से 35 हजार सेना मीर जाफर, यारलुत्फ खां और राजा दुर्लभराम के नियंत्रण में थी, जबकि 8 से 10 हजार सेना मीर मदन के कमांड में थी. सिराज की सेना में उत्तर-पश्चिम के अफगान और पठान शामिल थे. ये तलवार और भाले से लड़ते थे और जांबाज माने जाते थे.. नवाब के पास 50 तोपें भी थी. इस जंग में फ्रांस के 50 बंदूकधारी और तोपची भी अपने साजो-सामान के साथ सिराजुद्दौला का साथ दे रहे थे.
इधर लेफ्टिनेंट कर्नल रॉबर्ट क्लाइव के पास कुल 3 से 4 हजार सैनिक ही थे. इनमें 2 से ढाई हजार वेतन पर लड़ने वाले भाड़े के भारतीय जवान थे, बाकी लगभग 1000 से 1500 सौ गोरे सिपाही थे. क्लाइव के पास तोप के नाम पर 12 तोपें थी. इनमें से दो होवित्जर तोपें थी. क्लाइव पहले एक क्लर्क था. बाद में उसने ईस्ट इंडिया कंपनी की सैन्य सेवा ज्वाइन कर ली थी. यहां पर अपनी सामरिक प्रतिभा और बहादुरी से उसने तेजी से तरक्की की थी और खूब पैसा बटोरा था.
सेना की तैनाती
नवाज की सेना में सबसे पहले टैंक थे, जिसे फ्रांस के तोपची चला रहे थे. इसके बाद नवाब के विश्वासपात्र मीर मदन के नेतृत्व में 4 हजार घुड़सवार और 6 हजार पैदल सैनिक थे. बाकी की 30 हजार सेना अर्द्ध चंद्राकार अवस्था में पीछे थी. इसकी कमांडिंग राजा दुर्लभ राम, यारलुत्फ खां और मीर जाफर कर रहे थे.
क्लाइव ने अपने कुछ टैंकों को आगे भेजा और कुछ को ईंट के भट्ठों के पीछे लगा दिया, ताकि नवाब की सेना के फायर से बचा जा सके.
फ्रेंच तोपची ने दागा पहला गोला
सुबह 8 बजे नवाब की ओर से फ्रेंच तोपची सैंट फ्रेस ने नवाब की ओर से अंग्रेजों पर पहला गोला दागा. जंग का ऐलान हो गया. नवाब की सेना ने जोरदार हमला शुरू कर दिया. इधर अंग्रेज तोप से जवाब दे रहे थे. अंग्रेजों की तोप ज्यादा सटीक निशाना लगाने में सक्षम थी. लड़ाई के शुरुआती घंटे में नवाब की सेना हावी रही. लेकिन पूरी कामयाबी नहीं मिली. यहां यह बताना जरूरी है कि इस युद्ध में नवाब की सारी सेना नहीं लड़ रही थी. सिर्फ मीर मदन के कमांड वाली सेना ही अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थी. बाकी सेना मीर जाफर के आदेश का इंतजार कर रही थी. तीन घंटे तक ऐसी ही स्थिति बनी रही. जंग उलझी हुई लग रही थी.
दुर्भाग्य लेकर आई बारिश
क्लाइव ने तय किया कि किसी तरह दिन निकाला जाए और फिर रात को नवाब पर हमला किया जाएगा. इस बीच 11 बजे भारी गर्जना के साथ तेज बारिश होने लगी. मॉनसूनी क्षेत्रों में युद्ध कर चुका क्लाइव ने तत्काल अपनी सेना को तारपोलिन से गोला-बारूद ढकने को कहा. लेकिन अनुभवहीन नवाब और उनके लापरवाह सेनानायक ऐसा कुछ नहीं किए. घंटे भर से ज्यादा की भयंकर बारिश ने नवाब के सारे गोले-बारूद को बर्बाद कर दिया. नवाब की सेना अपना प्रमुख रक्षा दीवार खो चुकी थी.
बारिश रूकी तो मीर मदन ने स्थिति का आकलन किए बिना अपनी घुड़सवार सेना को अंग्रेंजों पर हमला करने के लिए आगे कर दिया. ये युद्ध का निर्णायक मोड़ था. अंग्रेजों ने अपने सारे तोपों के मुंह खोल दिए. उनके गोले-बारूद सुरक्षित थे. ये तोपें नवाब की सेना पर कहर बनकर गिरीं. नजदीक से हुए तोपों के वार ने मीर मदन की रक्षा पंक्ति को ध्वस्त कर दिया. दर्जनों सैनिक मारे गए. इसी हमले की चपेट में आकर मीर मदन को भी अपनी जान गंवानी पड़ी.
मीर मदन की मौत की खबर सिराजुद्दौला के लिए वज्र बनकर आई. ऐन मौके पर नवाब को मीर जाफर की याद आई. उसने मीर जाफर को अपने नाना के साथ संबंधों की याद दिलाई. इस घटना का वर्णन करते हुए सुंदरलाल लिखते हैं, "सिराजुद्दौला ने अपनी पगड़ी मीर जाफर के सामने जमीन पर रख दी, और कहा इस पगड़ी की लाज तुम्हारे हाथों में है."
मौका है चढ़ जाओ
तबतक विश्वासघात मीर जाफर को घेर चुका था. उसने नवाब को रक्षा का वचन तो दिया लेकिन उसने वहां से निकलते ही क्लाइव को कहलवा भेजा कि मौका है चढ़ जाओ. सिराजुद्दौला को मीर जाफर की गद्दारी का पता चल चुका था. मीर जाफर के वहां से निकलते ही राजा दुर्लभराम ने नवाब को जंग के मैदान से निकलने की सलाह दी. नवाब के ये सारे जनरल बिक चुके थे. ये सब मीर जाफर के साथ थे. इनके पास सेना थी लेकिन ये अंग्रेजों से लड़ नहीं रहे थे.
आखिरकार हारा हुआ नवाब सिराजुद्दौला अपने 2000 विश्वासपात्र सैनिकों के साथ वहां से निकल गया.
रॉबर्ट क्लाइव ने हमले तेज कर दिए. बिना राजा के सेना कहां तक लड़ती. शाम होते-होते क्लाइव ने नवाब के सारे तोपों पर कब्जा कर लिया. बंगाल जंग हार चुका था. गंगा किनारे प्लासी के मैदान में गद्दारी के खून से सनी जमीन पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने जीत का अपना परचम लहरा दिया था.
24 तारीख को मीर जाफर अपने बेटे मीरन के साथ क्लाइव से मिला. क्लाइव ने उसे गले से लगाया और उसे तीन प्रांतों का सूबेदार कहकर संबोधित किया. मीर जाफर बंगाल का नया सूबेदार बन गया. इधर राजमहल के एक बगीचे से सिराजुद्दौला को गिरफ्तार कर लिया. 2 जुलाई को उसे मुर्शिदाबाद लाया गया. यहां उसकी हत्या कर दी गई. अगले दिन सिराजुद्दौला का कटा हुआ शरीर एक हाथी पर रखकर मुर्शिदाबाद की गलियों में घुमाया गया.
प्लासी की जीत के बाद क्लाइव को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया गया. 1765 में मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय से क्लाइव को बंगाल से कर और सीमा शुल्क राजस्व इकट्ठा करने का 'दीवानी' अधिकार दे दिया.