
इंडिया टुडे कॉन्क्लेव के पहले दिन आयोजित सत्र 'बनेगा तो बढ़ेगा इंडिया' में बिहार म्यूजियम के एडिशनल डायरेक्टर अशोक कुमार, बस्तर फूड्स की फाउंडर रजिया शेख और चूरू के धर्म संघ विश्वविद्यालय के बोर्ड मेंबर राजीव मर्दा ने शिरकत की. इस सत्र में उन्होंने अपने सफर के बारे में बताया और साथ ही इनकी राह में आने वाली चुनौतियों पर भी बात की.
नक्सलियों के गढ़ में बिजनेस
बस्तर फूड्स की फाउंडर रजिया शेख ने बताया कि मैंने करियर की शुरुआत नक्सली इलाके बीजापुर से की थी. उन्होंने बताया कि वहां एक बच्चे ने मुझसे पूछा कि मैडम बेहतर होता कि हम नक्सली बन जाते तो हर महीने के बीस हजार रुपये मिलते. उन बच्चों को नक्सली बनने का रास्ता पता है लेकिन उन्हें स्वरोजगार या स्टार्टअप के बारे में कुछ नहीं पता था. उस बच्चे के सवाल के बाद ही मैंने सोचा कि हम सरकार से क्यों कुछ मांगे, खुद भी तो कुछ शुरू किया जा सकता है. इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए पहले हमने बच्चों की फूड ट्रेनिंग शुरू की और फिर बस्तर फूड्स आया.
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रजिया शेख ने बताया कि हम भी एक स्कॉलरशिप के तहत अमेरिका गए थे और वहां से स्टार्टअप कल्चर को समझ कर आए. हमने महुआ पर एक रिसर्च किया था जिसे काफी सराहा गया था. एक महीने अमेरिका रहकर लौटने के बाद मैंने अपने घर में चिरौंजी, काजू, महुआ जैसे प्रोडक्ट पर लैब में रिसर्च शुरू की जो कि हेल्थ के लिए फायदेमंद हैं. इसके बाद हमारे बनाए प्रोडक्ट ग्लोबल मार्केट तक पहुंच गए जो कि बस्तर में तैयार हुए हैं. उन्होंने बताया कि सड़कों का नेटवर्क बढ़ने ने कारोबार आसान हो गया है, अब गांवों से कच्चा माल लेकर प्रोडक्ट तैयार करके क्लाइंट तक पहुंचाना सुविधाजनक है.
शादी के पैसे से शुरू किया कारोबार
उन्होंने बताया कि फिलहाल बस्तर फूड्स से 700 से ज्यादा महिलाएं जुड़ी हैं जो हमारे लिए सामान तैयार करती हैं. इसके अलावा करीब दो हजार किसान हमें कच्चा माल मुहैया कराते हैं. अपने बिजनेस की चुनौतियों पर बात करते हुए रजिया ने बताया कि पहले बैंक हमें लोन नहीं दे रहे थे फिर मैंने अपनी शादी के लिए जमा पैसों को पापा से लेकर बिजनेस में लगाया क्योंकि मुझे पता था कि शादी में पैसे खर्च होकर वापस नहीं आएंगे लेकिन बिजनेस में लगाकर मैं उनसे तीन गुना कमा सकती हूं. अब हमने एक करोड़ रुपये से ज्यादा की कंपनी खड़ी कर दी है तो बैंक खुद आकर हमें लोन देने को तैयार रहते हैं.
क्यों खास है बिहार म्यूजियम
बिहार म्यूजियम के एडिशनल डायरेक्टर अशोक कुमार सिन्हा ने कहा कि बिहार कला संस्कृति का केंद्र रहा है और वहां कलाकृतियों का संग्रह काफी ज्यादा है. पहले से मौजूद पटना म्यूजियम छोटा पड़ रहा था तब एक अलग म्यूजियम की जरूरत पड़ी और साल 2015 में विश्वस्तरीय बिहार म्यूजियम शुरू हुआ. जापान में मिथिला म्यूजियम बना हुआ है और वहां कलाकार बिहार से जाते थे. लेकिन उनकी बनाई कलाकृति देखने के लिए जापान जाना पड़ता था, इस बात का अफसोस भी था. अशोक कुमार ने बताया कि इन सभी दिक्कतों को देखते हुए यह म्यूजियम 800 करोड़ की लागत से बना है जो कि 14 एकड़ में फैला हुआ है.
अशोक कुमार ने बताया कि देश के सभी म्यूजियम या तो राजा महाराजाओं के वक्त के हैं या फिर अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बनाए गए हैं. तब से लेकर अब तक काफी समय बीत चुका है. ऐसे में इस म्यूजियम को बनाने में जापान की मदद भी ली गई है और आर्किटेक्ट वहां का ही है जबकि कॉन्सेप्ट डिजायन कनाडा की संस्था ने किया है. लार्सन एंड टूब्रो (L&T) ने पटना में बिहार म्यूजियम का निर्माण किया है. उन्होंने बताया कि म्यूजियम में 100 रुपये की फीस होने के बावजूद हर रोज दो हजार से ज्यादा विजिटर आते हैं जो कि वीकेंड में पांच हजार तक भी पहुंच जाते हैं.
वैदिक के साथ आधुनिक शिक्षा
चूरू स्थित धर्म संघ विश्वविद्यालय के बोर्ड मेंबर राजीव मर्दा ने बताया कि काशी से आए स्वामी शिवानंद सरस्वती की प्रेरणा से मेरे घर के आंगन में सात बच्चों के साथ इस गुरुकुल की शुरुआत हुई थी. स्वामी जी ने वंचित समाज के बच्चों को संस्कृत में वैदिक ज्ञान देने के मकसद से इस गुरुकुल की शुरुआत की थी. इसके बाद मेरे दादाजी ने जमीन खरीदकर गुरुकुल को दान में थी और इस विश्वविद्यालय की नींव भी वहीं से पड़ी.
राजीव मर्दा ने बताया कि अब हमने 10 हजार स्क्वायर फीट एरिया में एक डबल स्टोरी बिल्डिंग तैयार कराई है जिसने 52 साल पुरानी इमारत की जगह ली है. इस बिल्डिंग में लाइब्रेरी, कम्प्यूटर लैब, क्लास रूम समेत आधुनिक सुविधाएं दी गई हैं. इसके अलावा वहां यज्ञशाला भी बनाई गई जो इंडोर है क्योंकि चूरू में गर्मी बहुत ज्यादा पड़ती है. इस विश्वविद्यालय में बहुत ही गरीब तबके से बच्चे आते हैं और हम उनसे कोई भी फीस नहीं लेते हैं. उन बच्चों का रहना, खाना, शिक्षा सब कुछ ट्रस्ट और हमारे डोनर्स के पैसों से होता है.
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गुरुकुल के बोर्ड सदस्य राजीव मर्दा ने बताया कि 8 साल के कोर्स के बाद बच्चा शास्त्री हो जाता है और उसे वेदों का ज्ञान होता है. शास्त्री तक की शिक्षा लेने के बाद लोग अपना जीवन यापन अच्छी तरह से कर सकते हैं. उनमें से कई अमेरिका तो कुछ लंदन चले गए और वहां जाकर काम करने लगे. इन्हीं में से एक छात्र वीरेंद्र शास्त्री न्यूयॉर्क में हैं और काफी वक्त से वहां रहते आए हैं, अब अमेरिकी नागरिक भी बन चुके हैं. उन्होंने बताया कि वहां रहने वाला हिन्दू समुदाय अपने धार्मिक अनुष्ठानों में उनको बुलाता है ताकि पूजा-पाठ का कार्यक्रम मान्यताओं के हिसाब से पूरा किया जा सके.