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Black and White with Sudhir Chaudhary: मुफ्त की 'रेवड़ियों' से कैसे बचेगा देश? ये तीन कदम हो सकते हैं मददगार

मुफ्त की रेवड़ियां बांटने वाली राजनीति नेताओं की जीत का ताकतवर मोहरा साबित होती है. लेकिन जीत के लिए जनता से मुफ्त सामान का वादा, राज्य के खज़ाने पर बहुत भारी पड़ता है. अब इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने भी चिंता जताई है. पीएम मोदी भी इसपर बात कर चुके हैं.

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मुफ्त की रेवड़ियां बनीं जीत का ताकतवर मोहरा
मुफ्त की रेवड़ियां बनीं जीत का ताकतवर मोहरा

पिछली बार आपने चुनाव में जिसे वोट दिया था, क्या वो वाकई सबसे काबिल उम्मीदवार था. क्या आपका वोट वाकई देश के लिए सर्वश्रेष्ठ पार्टी को गया था. आपने क्या सोचकर वोट दिया था?  क्या ये सोचकर किसी पार्टी को वोट दिया था कि वो देश के लिए, राज्य के लिए, समाज के लिए के लिए अच्छी है.

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या फिर उस पार्टी को वोट दिया था जिसने आपको कोई न कोई चीज़ मुफ्त में देने का वादा किया था. जिसने कहा था कि हम आपका बिल माफ कर देंगे. चाहे वो देश के लिए अच्छा हो या खराब हो. आपने आखिर किस आधार पर वोट दिया था?

आजकल देश में बहस छिड़ी हुई है कि ये जो मुफ्त की रेवड़ी वाली राजनीति है वो देश में रहनी चाहिए या बंद होनी चाहिए. क्योंकि ये देश को खोखला कर रही है. श्रीलंका में जो कुछ हुआ उसे देखने के बाद ये बहस और तेज़ हो गई. 

श्रीलंका ने निर्यात से ज़्यादा आयात किया. आमदनी पर ध्यान नहीं दिया. जनता को खुश करने के लिए टैक्स कम किया और वहां सत्ता में बैठे लोगों ने भ्रष्टाचार भी खूब किया. इसके बाद से लोग कहने लगे कि जो श्रीलंका में हो रहा है वैसा ही हाल हमारे देश के कुछ राज्यों में भी हो सकता है.

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इस पर 19 जुलाई को एक सर्वदलीय बैठक हुई थी, जिसमें श्रीलंका के आर्थिक हालात पर चर्चा करते हुए देश के राज्यों की हालत पर भी चिंता जताई गई थी. कहा गया कि कई राज्यों की आर्थिक स्थिति श्रीलंका जैसी ही होती जा रही है और अब इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने भी चिंता जताई है.

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा कि आप इस पर जल्द ही कोई नीति बनाइये. मुफ्त की राजनीति देश के लिए ठीक नहीं है.

मुफ्त की रेवड़ियां बनीं जीत का ताकतवर मोहरा

मुफ्त की रेवड़ियां बांटने वाली राजनीति नेताओं की जीत का ताकतवर मोहरा साबित होती है. हाल फिलहाल में जितने भी राज्यों के चुनाव हुए हैं, उनमें लगभग सभी पार्टियों के घोषणा पत्र में मुफ्त की चीजें बांटने का वादा किया गया था. मुफ्त में मिली चीजें वैसे भी लोगों को बोनस की तरह लगती हैं, और ज्यादातर लोग इन्हें तुरंत हासिल करना चाहते हैं.

ये मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा तो सुप्रीम कोर्ट ने चुनावों के दौरान मुफ्त सामान का जिक्र किए जाने पर रोक लगाने की बात कही. कोर्ट ने केंद्र सरकार को ये निर्देश दिए कि मुफ्त सामान वाली राजनीति बंद करने के लिए कोई रास्ता निकाले.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा- मुफ्त की रेवड़ी खाने की लत नहीं लगनी चाहिए

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सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से वित्त आयोग से बात करने को कहा. साथ ही मुफ्त सामान बांटने वाली योजनाओं पर खर्च किए गए पैसे का ध्यान रखकर जांच करने की बात कही.

चुनाव आयोग ने सुझाव दिया कि सरकार इस मुद्दे से निपटने के लिए एक कानून ला सकती है. इस पर सरकार का ये तर्क था कि ये मामला चुनाव आयोग के क्षेत्र में आता है.

सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई में जिस एक बात पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया गया वो बात ये थी कि जनता को मुफ्त की रेवड़ी खाने की लत नहीं लगनी चाहिए. क्योंकि ये किसी भी स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है. लेकिन इस मामले में राजनीतिक दलों की राय थोड़ी अलग होती है क्योंकि मुफ्त वाली राजनीति तमाम पार्टियों के लिए एक तरह का शॉर्टकट होती है.

श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से डूब गई है और वहां की अराजक तस्वीरें पूरी दुनिया ने देखी हैं. जब पड़ोसी देश में ये सब हो रहा हो तो नज़र रखनी चाहिए. इसीलिए 19 जुलाई को केंद्र सरकार ने एक सर्वदलीय बैठक बुलाई थी. इस बैठक में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही.

'श्रीलंका के गंभीर संकट से भारत चिंतित है और इसे बड़े सबक के तौर पर भी देख रहा है'
'हमें आर्थिक समझादारी दिखानी होगी और मुफ्त के सामान वाली संस्कृति के बुरे परिणामों से सबक लेना होगा'

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ये बयान, सभी दलों के लिए एक बड़े संदेश के तौर पर देखा गया, क्योंकि मुफ्त की रेवड़ी वाले कल्चर ने देश के राज्यों की कमर तोड़ी हुई है.

कई राज्यों का खजाना खाली, करोड़ों का कर्ज

जीत के लिए जनता से मुफ्त सामान का वादा, राज्य के खज़ाने पर बहुत भारी पड़ता है. ये एक बड़ी वजह है कि देश के कई राज्यों का खजाना खाली हो रहा है. ज्यादातर राज्यों पर करोड़ों का कर्ज है. आपको भी नहीं पता होगा कि विधानसभा चुनावों में मुफ्त के सामान का जो वादा किया जाता है उसके लिए पैसा केंद्र से कर्ज के तौर पर लिया जाता है.

राजनीतिक पार्टियों के घोषणा पत्र में मुफ्त बिजली मुफ्त पानी देना तो अब सामान्य हो गया है. इसे एकदम बेसिक वादा माना जाता है. राजनीतिक दल इसके ऊपर वादों के नए नए टॉप-अप करने लगे हैं. अब बस का किराया, साइकिल, स्कूटी, लैपटॉप सब मुफ्त बांटने की बात कही जाने लगी है. बेरोज़गारी भत्ता, गृहणियों का भत्ता, देने के वादे भी होने लगे हैं.

क्या आपने कभी सोचा है कि राज्यों में चुनाव जीतने वाली पार्टी कितना कर्ज लेकर आपको मुफ्त सामान दे रही है इसका जवाब आज हम आपको देंगे. राज्यों के कर्ज से जुड़े आंकड़े आपको बहुत ध्यान से देखने चाहिए. 

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सबसे ज्यादा कर्जदार 7 राज्यों की लिस्ट

- तमिलनाडु और यूपी टॉप पर, साढ़े 6 लाख करोड़ से ज्यादा का कर्ज
- महाराष्ट्र पर 6 लाख करोड़ से ज्यादा कर्ज, पश्चिम बंगाल पर साढ़े 5 लाख करोड़ से ज्यादा का कर्ज है
- राजस्थान पर साढ़े 4 लाख करोड़ से ज्यादा कर्ज, गुजरात और आंध्र प्रदेश पर करीब 4 लाख करोड़ का कर्ज

कर्ज का ये आंकड़ा देखकर आप सोच रहे होंगे कि देश के बड़े राज्यों पर कर्ज का बोझ सबसे ज्यादा है. लेकिन आपको ये समझना होगा कि राज्य पर कर्ज का बोझ तब पड़ता है जब उसकी कमाई कर्ज चुकाने की स्थिति में ना हो.

मान लीजिए आपकी कमाई 100 रुपये हैं और आप पर 60 रुपये का कर्ज हैं तो आप पर अपना खर्च चलाने का दबाव ज्यादा हो जाएगा. यही हाल राज्यों का भी होता है.

सरल भाषा में कहें तो जिस तरह किसी देश की कमाई का मानक उसकी GDP यानी Gross Domestic Product है. उसी तरह से किसी राज्य की कमाई को GSDP यानी Gross State Domestic product से देखा जाता है. 

तो अगर किसी राज्य की कमाई का बड़ा हिस्सा कर्ज चुकाने में जाएगा तो वो राज्य अपना खर्च नहीं उठा पाएगा. कम कमाई और लगातार बढ़ता कर्ज किसी भी राज्य के लिए श्रीलंका जैसी स्थिति है.

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इसीलिए हम आपको अब उन राज्यों के बारे में बताते हैं, जिनके कर्ज का बोझ, उनकी कमाई पर भारी पड़ रहा है.

- वर्ष 2021-22 में कर्ज का सबसे ज्यादा बोझ पंजाब पर था. अगर राज्यों की GSDP पर कर्ज के बोझ को देखें तो
पंजाब की कमाई का 53 प्रतिशत हिस्सा कर्ज चुकाने में जाता है.  यानी पंजाब का कर्ज, उसके लिए बोझ बन गया है. यानी अगर पंजाब 100 रुपये कमाता है तो उसका 53 रुपये कर्ज चुकाने में जाता है.
- इस मामले में राजस्थान दूसरे नंबर पर है. राजस्थान की कमाई का करीब 40 प्रतिशत हिस्सा कर्ज चुकाने में जाता है.
- बिहार की कमाई का करीब 38.6 प्रतिशत हिस्सा कर्ज चुकाने में जाता है.
- केरल का 37 प्रतिशत
- उत्तरप्रदेश का 34.9 प्रतिशत
- पश्चिम बंगाल का 34.4 प्रतिशत 
- झारखंड के GSDP का 33 प्रतिशत हिस्सा कर्ज़ का है

RBI सहित राज्यों के तमाम आंकड़ों का अध्ययन करने के बाद पता चलता है कि राजस्थान और पंजाब लगातार कर्ज़ के बोझ में दबे हुए हैं. तेलंगाना जो दूसरों के मुकाबले नया राज्य है वो भी बहुत कम समय में कर्ज़ के बोझ में दब गया है.. तेलंगाना की देनदारी 30 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है.. 

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यानी भारत में ऐसे बहुत से राज्य हैं जिनका कर्ज उनकी कमाई पर बोझ की तरह हो गया है. आने वाले समय में अगर मुफ्त वाली राजनीति बंद नहीं हुई, तो ऐसे राज्यों का कर्ज हर साल बढ़ता चला जाएगा. और कुछ वर्षों के बाद धीरे धीरे ये राज्य श्रीलंका वाली स्थिति में पहुंच जाएंगे जो कि अच्छा संकेत नहीं हैं. इसीलिए बार बार ये ज़ोर दिया जा रहा है कि मुफ्त वाली राजनीति बंद होनी चाहिए.

बिजली लिस्ट में सबसे पहले

मुफ्त सामान की लिस्ट में बिजली पहले नंबर पर आती है. हाल फिलहाल में कई राज्यों में बिजली कटौती बढ़ गई थी. इसके पीछे एक बड़ा कारण था राज्यों पर बिजली उत्पादन और वितरण कंपनियों का बकाया पैसा.

जब राजनीतिक पार्टियां मुफ्त बिजली का वादा करती हैं तो उसका सीधा मतलब है मुफ्त में कुछ यूनिट बिजली मिलना. ज़्यादातर लोग ऐसे वादों से खुश हो जाते हैं और उस नेता के फैन हो जाते हैं जो मुफ्त में बिजली देने की घोषणा करता है. 

हालांकि जमीनी हकीकत ये है कि राज्य सरकारों पर इस तरह की घोषणा का उल्टा असर पड़ता है. मुफ्त बिजली का मतलब है राज्य सरकारों को बिजली वितरण कंपनियों को ज्यादा पैसा चुकाना होगा..

ये वो पैसा होता है, जिसे सरकार को अपने खज़ाने से देना होता है. राज्य इस बढ़े खर्च को चुका पाने में नाकाम हो जाते हैं, जिससे बिजली वितरण कंपनियों का राज्यों पर बकाया बढ़ जाता है. इस पैसे को चुकाने के लिए राज्य सरकारें, केंद्र से और ज्यादा कर्ज लेती हैं. ये खतरनाक Cycle लगातार चलती रहती है, और बिजली संकट बढ़ता रहता है.

मुफ्त बिजली का वादा किसी राज्य पर कितना भारी पड़ रहा है. ये भी आपको जानना चाहिए. राज्यों पर बिजली वितरण कंपनियों का बकाया 1 लाख 39 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा है. ये एक बड़ी रकम है और ये बताती है मुफ्त बिजली का वादा कितना खोखला है.

अब आप सोचिए कि अगर किसी राज्य के चुनाव में राजनीतिक पार्टियां फ्री बिजली की घोषणा कर देती हैं. जबकि उस राज्य का बिजली वितरण कंपनियों का करोड़ों रुपये का बकाया है तो इसका नतीजा क्या होगा.

कोविड काल में सभी राज्यों पर आर्थिक बोझ पड़ा, सबका बजट बिगड़ा, अब रिकवरी भी हो रही है. ज़रा सोचिए कि ऐसे हालात में अगर मुफ्त सामान देने के वादे किए जाएंगे तो उसका राज्यों की आर्थिक सेहत पर कितना बुरा असर होगा.

मुफ्त वाली राजनीति ने श्रीलंका को अस्थिर कर दिया. आज उसकी मदद के लिए भी दुनिया को सोचना पड़ रहा है. विधानसभा चुनावों में मुफ्त सामान बांटने का जो Trend भारत में चल रहा है वो भविष्य के लिए खतरनाक है. और ये बात देश के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार केवी सुब्रमण्यन भी मानते हैं. हालांकि उन्हें ये भी कहा है कि भारत बहुत मज़बूत राष्ट्र है उसकी आर्थिक हालत श्रीलंका जैसी नहीं होने वाली.

इसे लेकर प्रधानमंत्री मोदी भी चिंता जता चुके हैं. हाल ही में पीएम मोदी ने भारत में फैले रेवड़ी कल्चर पर सवाल उठाए थे.

आप भी ये सोच रहे होंगे कि इस तरह की राजनीति पर लगाम कैसे लगेगी? तो इसको लेकर तीन कदम उठाए जा सकते हैं.

  1. पहला कदम ये हो सकता है कि जिस तरह से चुनाव आयोग चुनावी खर्च की सीमा तय करता है, उसी तरह से वो मुफ्त की राजनीति की घोषणा पर भी रोक लगा दे.
  2. दूसरा कदम ये हो सकता है कि ऐसा कानून लाया जाए जिसमें मुफ्त सामान का वादा करने वाली पार्टियां अपना वादा सरकारी खज़ाने के बजाए, पार्टी फंड से ही पूरा कर सकें.
  3. तीसरा और सबसे अहम कदम ये हो सकता है कि नैतिक रूप से राजनीतिक दल मुफ्त वाली राजनीति से दूर रहें, और जनता भी ऐसे दलों को नकार दे जो उन्हें मुफ्त वाला लालच देती हैं.

वैसे राजनीति दो तरह की होती है. पहली वो जिसमें जनता को हमेशा आश्रित बनाकर रखा जाता है. बिजली,पानी मुफ्त कर देने या फिर बिल चुकाने वाली राजनीति से जनता आश्रित बनी रहती है. आश्रित व्यक्ति वही करता है. जिसका निर्देश उसे मुफ्त का सामान बांटने वाला व्यक्ति देता है.

दूसरी राजनीति वो होती है जिसमें जनता को सक्षम बनाने के लिए प्रयास किए जाते हैं. जनता जब सक्षम हो जाती है तो वो अपना बिल खुद भर लेती है. इस तरह से वो देश के विकास में भी अपना योगदान देती है.

समय की मांग है कि देश में मुफ्त वाली राजनीति बंद हो और जनता को सक्षम बनाने वाली राजनीति शुरु हो. अब ये आप पर भी है कि आप क्या चाहते हैं, आप 24 घंटे की ऐसी बिजली चाहते हैं, जिसमें आपको कुछ पैसे चुकाने पड़ते हैं या फिर ऐसी मुफ्त बिजली चाहते हैं जिसमें 8 घंटे से ज्यादा की कटौती की जाती है.

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