जेल गए, गुरिल्ला युद्ध लड़े, अंग्रेजों की लाठियां खाईं और फांसी के फंदे पर भी झूले. चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस और ऐसे सैकड़ों स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों ने अपनी मातृभूमि को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए प्राणों की आहुतियां दे दीं. ये सभी अपनी जन्मभूमि से बेइंतहा प्यार करते थे, लेकिन क्या आप जानते हैं कि जिस ब्रिटेन ने एक समय भारत के लोगों की जिंदगी नर्क से भी बदतर बना दी थी, उस ब्रिटेन के कई नागरिकों ने भी आजादी की लड़ाई में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारत का साथ दिया था. आज हम आपको ऐसे ही 5 क्रांतिवीरों की कहानी बताएंगे, जिन्होंने जन्म तो ब्रिटेन में लिया. लेकिन भारत को कर्मभूमि बनाकर स्वतंत्रता की लड़ाई में बड़ा योगदान दिया.
भगिनी निवेदिता
28 अक्टूबर 1867. आयरलैंड के काउंटी टाइरोन में पादरी रिचमंड नोबल के घर बेटी ने जन्म लिया. रिचमंड ने उसे मार्गरेट एलिजाबेथ नाम दिया. मार्गरेट 10 साल की थीं, जब उनके पिता का निधन हो गया. नाना हैमिल्टन ने ही नन्हीं मार्गरेट का पालन-पोषण किया. स्वामी विवेकानंद से प्रभावित होकर मार्गरेट भारत आईं. यहां उन्हें नया नाम मिला. भगिनी निवेदिता... यानी ईश्वर को समर्पित. निवेदिता चाहती थीं कि भारत और ब्रिटेन मिलकर काम करें, लेकिन जब उन्होंने ब्रिटिश राज का आतंकी चेहरा देखा तो आजादी की जंग में भारतीयों का साथ देने की कसम खा ली.
भारत बना कर्मभूमि
ब्रिटेन की धरती पर जन्म लेने वालीं भगिनी निवेदिता (मार्गरेट एलिजाबेथ) अंग्रेजों के खिलाफ हो गईं और मरते दम तक भारत की आजादी के लिए लड़ती रहीं. आइरिश मूल की भगिनी निवेदिता 28 साल की उम्र में स्वामी विवेकानंद से लंदन में मिलीं. इस मुलाकात ने उनके जीवन में ऐसा प्रभाव छोड़ा कि 3 साल बाद ही उन्होंने भारत को अपनी कर्मभूमि बनाने का फैसला कर लिया. कुछ समय स्वामी विवेकानंद के साथ भारत भ्रमण करने के बाद निवेदिता ने कलकत्ता (अब कोलकाता) में एक स्कूल खोला. उन्होंने लड़कियों में शिक्षा की अलख जगाने का प्रण लिया, ताकि वह आजादी की अहमियत जान सकें.
स्वदेशी की समर्थक
निवेदिता स्वदेशी की बड़ी समर्थक थीं. उन्होंने ब्रिटिश मूल की वस्तुओं का बहिष्कार कर हाथों से निर्मित चीजों का इस्तेमाल करने का आह्नान किया. वह हमेशा रवीन्द्रनाथ टैगोर, जगदीश चन्द्र बसु, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर और नंदलाल बोस जैसे क्रांतिवीरों के संपर्क में रहीं. उनकी राजनीतिक सक्रियता के कारण रामकृष्ण मिशन को नुकसान न पहुंचे, इसलिए उन्होंने खुद को मिशन से अलग कर लिया. दुर्गापूजा की छुट्टियों में जब वह दार्जीलिंग घूमने गईं तो वहां उनकी सेहत खराब हो गई और 13 अक्टूबर 1911 को 44 साल की उम्र में उनका निधन हो गया.
एनी बेसेंट
ब्रिटिश मूल की एनी बेसेंट 16 नवंबर 1893 को मद्रास में थियोसोफिकल सोसायटी के वार्षिक सम्मेलन में शामिल होने भारत आईं. यहां उन्होंने शिक्षा के साथ-साथ छुआछूत मिटाने के लिए काम किया. अप्रैल 1916 में बाल गंगाधर तिलक ने इंडियन होम रूल लीग शुरू की. इस साल ही एनी बेसेंट भी होम रूल लीग में शामिल हो गईं. होम रूल का मतलब था खुद का शासन.
निडर होकर फहराया तिरंगा
एनी बेसेंट की मांग थी कि ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर भी भारत को स्वशासन का अधिकार मिलना चाहिए. होम रूल लीग में काम करने के लिए जून 1917 में बेसेंट को गिरफ्तार कर लिया गया और एक हिल स्टेशन में रखा गया. वहां भी उन्होंने निडर होकर अपने बगीचे में लाल और हरे रंग का झंडा फहराया. बेसेंट को रिहा ना किए जाने पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने संयुक्त प्रदर्शन की धमकी दी.
दबाव बना तो रिहा किया
कांग्रेस के साथ-साथ जब मु्स्लिम लीग ने भी बड़े आंदोलन की धमकी दे डाली तो आखिरकार ब्रिटिश सरकार नरम पड़ गई. सितंबर 1917 में एनी बेसेंट को रिहा कर दिया गया. इसके बाद उन्होंने इस साल ही दिसंबर के महीने में कांग्रेस के अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली. मोहनदास करमचंद गांधी के रूप में प्रथम विश्व युद्ध के बाद कांग्रेस को नया नेता मिल गया. उन्होंने बेसेंट की रिहाई की मांग का समर्थन किया. भले ही एनी बेसेंट का जन्म ब्रिटेन में हुआ, लेकिन दिल से वह पूरी तरह से इंडियन थीं.
मीराबेन (मेडेलीन स्लेड)
1923 से 33 तक ब्रिटिश हुकूमत की तरफ से भारतीयों का दमन काफी बढ़ गया था. यह वही समय था, जब आजादी की लड़ाई चरम पर थी. अंग्रेजों ने कांग्रेस को गैरकानूनी बताकर महात्मा गांधी को अरेस्ट कर लिया. सामाचार पत्रों पर सेंसरशिप लगा दी गई. उस समय मीरा बेन ने ब्रिटिश शासन के दमनकारी शासन की खबरों को दुनिया भर में फैलाने का जिम्मा उठाया. अंग्रेजों के खुफिया तंत्र को जैसे ही इस बात की भनक लगी, उन्होंने मीरा को 3 महीने के लिए जेल भेज दिया.
जेल से छूटते ही फिर जुट गईं
अग्रेंजों की इस सख्ती से भी मीरा बेन के इरादे नहीं डिगे और जेल से छूटते ही उन्होंने बंबई (अब मुंबई) लौटकर अपना काम शुरू कर दिया. उनके इस रुख से ब्रिटिश हुकूमत बौखला गई और उन्हें एक साल के लिए जेल भेज दिया. 1942 वह साल था, जब मीरा बेन को तीसरी बार जेल भेजा गया. भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा के साथ ही गांधीजी समेत सभी बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हुई. बापू को पुणे के आगा खान महल में कैद किया गया. मीरा बहन भी उनके साथ रहीं. 1944 में वे भी गांधीजी के साथ ही छूटीं.
पिता ब्रिटिश सेना में थे अफसर
33 साल की उम्र में जिस मेडेलीन स्लेड को गांधीजी ने मीरा बेन (मीरा बहन) कहकर संबोधित किया, उनका जन्म 22 नवंबर 1892 को इंग्लैंड के अति संभ्रांत परिवार में हुआ था. उनके पिता सर एडमंड स्लेड ब्रिटिश नौसेना में हाई रैंकिंग अधिकारी थे. पंद्रह साल की उम्र में मेडलीन स्लेड अपने पिता के साथ भारत आ गईं, लेकिन दो साल बाद ही उन्हें लौटना पड़ा.
भारत आकर किया ब्रह्मचर्य का पालन
साबरमती आश्रम में रहकर वह सैनिकों की तरह अनुशासन का पालन करती थीं. गांधीजी से उन्होंने स्वावलंबन का जो पहला पाठ सीखा, वह उनके जीवन का आधार बन गया. सिर्फ वेश-भूषा, खान-पान और रहन-सहन से वह हिंदुस्तानी नहीं बनीं, बल्कि उन्होंने ब्रह्मचर्य का व्रत भी ले लिया. 20 जुलाई 1982 को मीरा बेन की मृत्यु हो गई.
चार्ल्स फ्रीर एंड्रयूज
ब्रिटिश शासन भारतीयों को काफी प्रताड़ित कर रहा था. एक तरफ भारत के किसानों और मजदूरों से भारी भरकम लगान वसूला जा रहा था तो वहीं दूसरी तरफ भारतीय मूल के गिरमिटिया मजदूरों (गुलाम मजदूह) को बड़ी तादाद में साउथ अफ्रीका, डच, फिजी एवं त्रिनिदाद और टोबैगो जैसे देशों में भेजा जा रहा था. वहां उनका उत्पीड़न किया जाता. जबरिया मजदूरी कराई जाती. आंकड़ों के मुताबिक करीब 3.5 मिलियन (35 लाख) भारतीयों को दुनियाभर में मजदूरी करने के लिए भेजा गया था. ऐसे में इनके हक के लिए एक ब्रिटिश नागरिक ही अंग्रेजों के खिलाफ खुलकर सामने आए. उनका नाम था चार्ल्स फ्रीर एंड्रयूज. चार्ल्स ने आखिरी दम तक भारत के लिए न्यााय की लड़ाई लड़ी.
पिता थे पिता एंग्लिकन पादरी
यूनाटेड किंगडम के न्यूकैसल अपॉन टाइन 12 फरवरी 1871 को जन्म लेने वाले चार्ल्स के पिता एंग्लिकन पादरी थे. भारत के लिए चार्ल्स के मन में बचपन से ही आकर्षण था. चार्ल्स को उन लोगों में से एक माना जाता है, जिन्होंने 1915 में गांधीजी को भारत लौटने के लिए मनाया था. चार्ल्स गांधीजी को लंदन में हुए दूसरे गोलमेज सम्मेलन में ले गए. यहां उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से बातचीत करने में गांधीजी की मदद की. आजादी की लड़ाई में अपना योगदान देने के कारण उन्हें दीनबंधु की उपाधि दी गई, जिसका मतलब होता है गरीबों का दोस्त. उन्होंने भारतीयों के लिए सामान अधिकारों की जमकर वकालत की. 5 अप्रैल 1940 को कोलकाता में उनकी मृत्यु हो गई.
अल्फ्रेड वेब
आयरलैंड की राजधानी डबलिन में 10 जून 1834 को एक आयरिश परिवार में बेटे का जन्म हुआ. माता-पिता ने उन्हें अलफ्रेड वेब नाम दिया. आयरलैंड में उन दिनों 'क्वेकर्स' नामक एक समूह अस्तित्व में आया, जो मानवाधिकारों के लिए काम करता था. अल्फ्रेड इस समूह से जुड़ गए. उन्होंने आयरिश संसद का चुनाव जीत लिया और वह संसदीय दल के नेता भी बन गए. उनकी रुचि हमेशा ही राष्ट्रवादी आंदोलन में रही.
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ छेड़ा आंदोलन
उस समय भारत में भी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जोरदार आंदोलन चल रहे थे और अल्फ्रेड इन आंदोलनों को करीब से देखते रहे. 1894 में वह मद्रास आए. भारत आने के बाद अल्फ्रेड यह बात समझ गए कि किस तरह अंग्रेज भारत की धन-संपदा को लूटकर ब्रिटेन भेज रहे हैं. उन्होंने ठान लिया कि यह बात भारत के लोगों को समझाकर ही रहेंगे.
कांग्रेस की अध्यक्षता भी की
अल्फ्रेड ने स्वतंत्रता संग्राम में शामिल कई क्रांतिवीरों को बताया कि कैसे उनके देश का खजाना लूटा जा रहा है. 30 जुलाई 1908 को उनकी मृत्यु हो गई. अल्फ्रेड के नाम पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षता करने वाले तीसरे गैर-भारतीय बनने का भी रिकॉर्ड दर्ज है. इसके पहले जॉर्ज यूल और विलियम वेडरनबर्न भी कांग्रेस की अध्यक्षता कर चुके थे.