मंच सजा हुआ था और सामईन (सुनने वाले, श्रोता) बेसब्र थे कि दास्तानगो आएं और किस्सा शुरू करें. बीच में करीने से सजा हुआ तख्त पीली रौशनी से रोशन हुआ. दोनों ओर की शम्मा जलाईं गईं. कटोरों में पानी भरा गया. देखने वाले दम साधे ये सब करतब देख रहे थे कि सफेद अंगरखे पहने दो जन अलग-अलग दिशाओं से तख्त की ओर बढ़े. एक शख्स के पैर कुछ लड़खड़ा गए तो अगले ने उसे हिदायती लहजे में कहा- ए भाई, जरा देख के चलो... आगे ही नहीं पीछे भी, दाएं भी नहीं बाएं भी... समाइन ने ये गीत पहले भी सुन रखा था तो वह अगले ही पल अपनी आवाज उनके साथ मिलाने लगे... फिर सब ओर से आवाज आई... 'ऊपर ही नहीं, नीचे भी. ए भाई...'
इसी के साथ दोनों जन, तख्त पर बैठ गए और ये तय हो गया कि यही दोनों तो दास्तानगो हैं, जो दास्तान सुनाने वाले थे. इन दो प्यारे फनकारों के नाम थे राजेश कुमार और राणा प्रताप सेंगर. उन्होंने संवाद की अद्भुत शैली में इस दास्तान को पेश किया था. लेकिन दास्तान थी किसकी? इस सवाल के जवाब की चुगली तो उनकी ड्रामाई एंट्री कर चुकी थी, जिसमें दोनों ही 'मेरा नाम जोकर' फिल्म का मशहूर गीत गुनगुनाते हुए आए थे. 'ए भाई जरा देख के चलो...'

इस दास्तानगोई में मशहूर अभिनेता और निर्माता रहे राजकपूर की जिंदगी सामने रखी गई. इसके जरिए सामईन जहां एक ओर बॉलीवुड की हकीकत से रूबरू हुए तो वहीं दास्तानगो एक दिग्गज अभिनेता की जिंदगी में भी झांक आए और तरानों की तरन्नुम के साथ ताल मिलाकर उसकी झलकियां लोगों को दिखाईं. ये दास्तान क्या थी, यूं समझिए कि रजनीगंधा के सफेद फूल थे, जिनकी महक राजकपूर ताजिंदगी महसूस करते रहे. इन फूलों की सुवास चेम्बूर में उनके घर से लेकर आरके फिल्म्स के स्टूडियो तक रही और इनकी सफेद पंखुड़ियों का बिंब उनकी फिल्मों में नजर आता रहा. दास्तान शुरू हुई तो ऐसा लगा कि रजनीगंधा के ये फूल मंच पर ही खिल गए हों.
जो सिलसिला पापाजी यानी पृथ्वीराज कपूर की जिंदगी से शुरू हुआ और अगले पल राजकपूर तक आया. फिर तो भई, हो गई पिक्चर शुरू... बारिश की फुहार, काला छाता और आसमान में आधा खिला चांद... फिर संगीत सुनाई देता है प्यार हुआ इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यों डरता है दिल...
ये सिलसिला आवारा, श्री 420, संगम, मेरा नाम जोकर से होते हुए बॉबी तक पहुंचा. राजकपूर जोकर के शो के तरह तीन घंटों में बंटे दिखे, पहला घंटा बचपन का, दूसरा जवानी और तीसरा बुढ़ापा... इसके बाद तो सिर्फ 'जग में रह जाएंगे, प्यारे तेरे बोल' और 'जीना यहां-मरना यहां इसके सिवा जाना कहां.' राजकपूर की ये खूबसूरत दास्तान सुनकर सुनने वालों की पलकें कई बार भीगीं, होंठ कई बार खिलखिलाए और याद रह गई सबसे अहम बात कि कि 'हम न रहेंगे, तुम न रहोगे, फिर भी रहेंगी निशानियां...'
इसी के साथ आरके फिल्म्स के लोगो का वो वायलिन थामा लड़का तालियों की गड़गड़ाहट के साथ देर तक सबके जेहन में रहा और शायद जब सामईन घर के लिए रवाना हो रहे थे तो उसकी वायलिन की धुन दिलों के भीतर सुनाई दे रही थी. लाइट धीमी होती गई, हॉल पीछे छूटता गया और लेकिन साथ रह गए तो केवल राजकपूर और रजनीगंधा के फूलों की सुवास...