चंडीगढ़ नगर निगम चुनावों (Chandigarh Municipal Corporation Election) में आम आदमी पार्टी (AAP) के शानदार प्रदर्शन ने, आगामी चुनावों को लेकर उसकी उम्मीद और बढ़ा दी है. पहली बार नगर निगम का चुनाव लड़ रही केजरीवाल की पार्टी ने 35 में से 14 सीटें जीत ली हैं. दूसरे नंबर पर रही बीजेपी को 12 सीटें मिली हैं और तीसरे नंबर पर इस बार कांग्रेस आ गई है. उसके खाते में महज आठ सीटें गई हैं, लेकिन बात जब वोट शेयर की आती है तो नतीजे एकदम ही बदल जाते हैं.
वोट शेयर ज्यादा, सीटें कम, कैसे?
चंडीगढ़ नगर निगम चुनाव में आठ सीटें पाने वाली कांग्रेस का वोट शेयर सबसे ज्यादा रहा है. उसे 29.79 फीसदी वोट मिले हैं. वहीं भाजपा ने 29.30 फीसदी वोट हासिल कर, दूसरा स्थान हासिल किया है. वहीं, सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी को महज 27.08 फीसदी वोट मिले हैं. अब ये चुनावी गणित किसी को भी अच्छे से घुमा सकता है. मतलब सीटें किसी की ज्यादा और वोट शेयर कोई और ज्यादा ले जा रहा है. ऐसा कैसे हो सकता है कि कम वोट शेयर के साथ भी कोई सरकार बना ले और कोई ज्यादा वोट शेयर हासिल करने के बाद भी विपक्ष में बैठने को मजबूर रहे?
ये भारत का चुनाव है, जहां पर एक बार नहीं कई मौकों पर ऐसा ही ट्रेंड देखने को मिला है. कई ऐसे चुनाव रहे हैं जहां पर वोट प्रतिशत के मामले में कोई पार्टी आगे रहती है, लेकिन जब सीटों की बात आती है तो वहीं पार्टी काफी ज्यादा पीछे छूट जाती है. इतना पीछे कि सरकार बनाने लायक सीटें भी हासिल नहीं होतीं.
इसका कारण हर कोई यही मानता है कि किसी पार्टी को किसी विधानसभा क्षेत्र में ज्यादा वोट पड़ सकते हैं. हो सकता है उसका उस जीत का मार्जिन भी काफी ज्यादा रहे. लेकिन जब मतगणना होती है, तो वो सीट तो सिर्फ 'एक' ही मानी जाती है. बस फर्क इतना रहता है कि उस एक सीट पर पार्टी को ज्यादा लोगों ने वोट दे दिया है. ऐसे में होता क्या है कि फाइनल नतीजों के दौरान वोट प्रतिशत तो उस पार्टी को ज्यादा आ जाता है, लेकिन सीटें कम दिखती हैं. इसी ट्रेंड का मतलब है- ज्यादा वोट शेयर हासिल करने के बाद भी कम सीटों से संतुष्ट करना.
चुनावी नतीजें क्या बताते हैं?
पहले के कुछ चुनावी उदाहरणों से इस ट्रेंड को समझते हैं. 2019 में हुए झारखंड विधानसभा चुनाव में JMM ने अपने साथी दलों के साथ मिलकर पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाई थी. उस चुनाव में JMM गठबंधन ने 47 सीटें जीत ली थीं. वहीं दूसरे स्थान पर भाजपा रही थी, जिसे महज 25 सीटों से संतुष्ट करना पड़ा. अब जो अंतर सीटों के लिहाज से काफी ज्यादा दिखाई पड़ रहा है, बात जब वोट शेयर की आती है तो अलग ही कहानी दिखाई पड़ती है. उस चुनाव में बीजेपी को सबसे ज्यादा वोट शेयर मिला था. इतना वोट शेयर जो बीजेपी को 2014 के चुनाव के दौरान भी नहीं मिला था.
उस चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 33.37 फीसद रहा, जो 2014 में 31.26 था. यानी बीजेपी को वोट शेयर के मामले में सीधे-सीधे 2.11 परसेंट की बढ़त हासिल हुई. वहीं बात जब JMM की करते हैं, तो उस पार्टी को 18.72 फीसद वोट प्राप्त हुए थे. पिछले चुनाव तक ये वोट शेयर 20.43 फीसद के आस पास था, लेकिन तब सरकार नहीं बनी और 2019 में कम वोट शेयर के साथ भी JMM ने पूर्ण बहुमत वाली सरकार बना ली.
2018 में हुए मध्य प्रदेश चुनाव में भी यही देखने को मिला था. वहां पर कांग्रेस और बीजेपी के बीच जबरदस्त टक्कर देखने को मिली. इतनी करीबी फाइट रही कि बीजेपी और कांग्रेस की सीटों में मात्र पांच का अंतर रहा. 230 विधानसभा सीटों वाले एमपी में कांग्रेस 114 सीटें जीतीं, तो वहीं बीजेपी ने भी 109 सीटें अपने नाम कीं. लेकिन वोट शेयर के मामले में बीजेपी ने बाजी मारी और कांग्रेस से ज्यादा वोट प्राप्त किए.
उस चुनाव में एक और बात समझने लायक रही कि कई सीटें ऐसी रहीं जहां पर दोनों बीजेपी और कांग्रेस के बीच कांटे का मुकाबला रहा. जहां पर जीत का अंतर 500 से 2000 वोटों के बीच भी रहा. लेकिन उन सीटों पर आखिर में कांग्रेस ने जीत हासिल की, इसी वजह से उसे सरकार बनाने का मौका मिल गया और ज्यादा वोट शेयर के बाद भी बीजेपी सत्ता से दूर हुई. एमपी चुनाव में उस ट्रेंड का मतलब ये भी था कि जिन सीटों पर बीजेपी ने जीत हासिल भी की, वहां उसका प्रदर्शन बहुत ज्यादा अच्छा रहा. उसे काफी वोट उन क्षेत्रों से प्राप्त हुए. मतलब बीजेपी के लिए कुछ सीटों पर वोटों का concentration हो गया. इसी वजह से वोट शेयर तो ज्यादा मिल गया लेकिन सीटें कम हो गईं. ऐसा ही हाल पिछले सालों में हुए गुजरात और कर्नाटक चुनाव में भी देखने को मिला था.
'फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट' सिस्टम क्या होता है?
अब इतने चुनाव में अगर ये हो रहा है, तो ये कोई संजोग मात्र नहीं है. चुनावी भाषा में ऐसे ट्रेंड को 'फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट' कहते हैं. इस चुनावी सिस्टम के तहत किसी भी प्रत्याशी को सिर्फ अपने दूसरे प्रतिद्वंदियों से ज्यादा मत हासिल करने होते हैं. ऐसा होते ही वह सीट उसके नाम हो जाती है. इसी वजह से कई बार अगर किसी उम्मीदवार को अपने क्षेत्र के 15 प्रतिशत वोट भी क्यों ना मिलें, लेकिन वही जीतता भी है और उस सीट का प्रतिनिधित्व भी करता है.
इसी वजह से विरोधी कहते हैं कि 2014 में बीजेपी को सिर्फ 31 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन फिर भी उसकी सरकार बनी. ऐसा इसलिए रहा क्योंकि बीजेपी को उन जगहों पर ज्यादा वोट प्राप्त हुए, जहां वो पहले से मजबूत थी. इसी वजह से वोट प्रतिशत 31 फीसदी रहा, लेकिन सीटों के मामले में पूर्ण बहुमत वाली सरकार बना ली गई.
दूसरे देशों में क्या सिस्टम है?
ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि क्या भारत 'फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट' वाले ट्रेंड से बाहर निकल सकता है? तो इसका जवाब है हां, कई मौकों पर इस पर विचार भी हुआ है. इस समय कई देशों में Proportional Representation and Representative Democracy वाले सिस्टम को फॉलो किया जाता है. आसान शब्दों में इसका मतलब सिर्फ इतना होता कि जिस पार्टी को जितना वोट शेयर मिलता है, उतनी ही सीटें उसे दी जाती हैं. जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, साउथ अफ्रीका, इटली जैसे देशों में इस सिस्टम का इस्तेमाल हो रहा है.
एक और ट्रेंड जिस पर भारत में काफी मंथन रहा उसे ‘रैंक च्वाइस वोटिंग’ कहा जाता है. इसके तहत अगर किसी भी उम्मीदवार को अपने क्षेत्र में 50 फीसद से अधिक मत नहीं मिलते हैं और मैदान में दो उम्मीदवार खड़े हैं, तो ऐसे में अगले दिन दोबारा वहां पर चुनाव करवाया जा सकता है. तर्क ये भी दिया गया कि अब क्योंकि भारत के पास EVM है, ऐसे में इस प्रक्रिया में समय भी ज्यादा नहीं जाएगा. लेकिन चुनाव आयोग ने सर्वाधिक मत पाने वाले ट्रेंड को ही जारी रखने का फैसला लिया. इसी वजह से कई चुनावों में आपको ये देखने को मिल सकता है कि वोट शेयर किसी एक पार्टी का ज्यादा रहे, लेकिन सरकार कोई और बना ले.