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मंडी में अनाज बेचना किसानों के लिए रहा है फायदे का सौदा, व्यापारियों को बेचने से होता है नुकसान

मंडियों में अनाज बेचने वाले किसानों को उपज की अच्छी कीमत मिलती है, जबकि बिचौलियों या निजी व्यापारियों को बेचने पर निर्धारित मूल्य से कम दाम मिलता है.

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प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो- इंडिया टुडे)
प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो- इंडिया टुडे)

किसानों और सरकार के बीच चल रहे गतिरोध के बीच एक सवाल है कि किसानों को अपनी पसंद के निजी व्यापारियों को फसल बेचने की आजादी मिल रही है तो वे इसका विरोध क्यों कर रहे हैं? इस सवाल का जवाब ज्यादातर लोग समझ नहीं पा रहे हैं. हालांकि, इसका जवाब सरकारी आंकड़ों से मिल जाता है कि निजी व्यापारियों को फसल बेचने को लेकर किसानों का अनुभव अच्छा नहीं रहा है.

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2013 में नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO) ने करीब 35,000 किसान परिवारों पर एक सर्वेक्षण किया, ताकि उनकी खेती, आय, खर्च, कर्ज की स्थिति और वे अपनी कितनी फसल किसको बेचते हैं, जैसी बातों का पता लगाया जा सके. इस सर्वे में पूरे देश के किसानों का प्रतिनिधित्व था. ये आंकड़ा 2016 में जारी किया गया था और सरकार की ओर से हाल में कोई सर्वेक्षण नहीं किया गया है कि किसान अपनी उपज किसको बेच रहे हैं. ये आंकड़ा किसानों की फसल बिक्री के चलन पर एक बेहतर समझ मुहैया कराता है जो आजकल बहस के केंद्र में है.

स्थानीय प्राइवेट व्यापारियों का दबदबा

ऐसा दिखाया जाता है कि किसानों की फसल खरीदने के मामले में APMC (एग्रीकल्चरल प्राड्यूस मार्केटिंग कमेटी) मंडियों, सहकारी समितियों और सरकारी खरीद एजेंसियों की मजबूत पकड़ है, लेकिन वास्तविकता यह है कि अधिकांश राज्यों में अधिकांश फसलों की खरीद में स्थानीय निजी व्यापारी ही हावी हैं. गन्ने को छोड़कर, ज्यादातर फसलें पहले से ही स्थानीय निजी व्यापारियों को बेच दी जाती हैं. मंडी किसानों की दूसरी पसंद है. गन्ने के मामले में ये जरूर है कि अधिकांश किसान परिवार अपनी उपज या तो सहकारी और सरकारी एजेंसियों या मिलों को बेचते हैं.

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जो किसान मंडियों को उपज बेचने के लिए समय और परिवहन का खर्च उठा सकते हैं, उन बड़े किसानों की तुलना में छोटे किसान अपनी उपज निजी व्यापारियों को ही बेचने तवज्जो देते हैं क्योंकि कम मार्जिन, स्टोर करने और परिवहन की असमर्थता, इंतजार की मु​सीबतों के चलते उनके लिए ये आसान विकल्प होता है.

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लेकिन विभिन्न राज्यों के हालात में अंतर है. बिहार में जेडीयू-बीजेपी सरकार ने 2006 में एपीएमसी अधिनियम हटा दिया था, वहां ​मंडियों के जरिये गेहूं की कुल खरीद का कुछ हिस्सा खरीदा जाता है. दूसरी तरफ पंजाब में मंडियों की अधिकता है. यही सबसे मुख्य कारण है कि पंजाब के किसान आंदोलन की अगुवाई कर रहे हैं. पंजाब में ज्याद​तर खरीद मंडियां और सरकारी एजेंसी करती हैं जबकि बिहार में अनाज खरीद पर निजी व्यापारियों का कब्जा है.

मंडी की बिक्री ज्यादा संतोषजनक

भले ही सभी किसान अपनी सारी फसल मंडी में नहीं बेच सकते, लेकिन जो लोग ऐसा करते हैं, वे लेनदेन की गुणवत्ता के बारे में ज्यादा सकारात्मक हैं. एनएसएसओ के सर्वे के अनुसार, मंडियों में अनाज बिक्री करने वाले किसान बिक्री की गुणवत्ता को लेकर ज्यादा संतुष्ट होते हैं क्योंकि उन्हें फसल की कम कीमत मिलने की संभावना बेहद कम होती है. यानी मंडी में किसानों को उचित मूल्य मिल जाता है.

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दूसरी ओर, जो किसान अपनी उपज बिचौलियों या निजी व्यापारियों को बेचते हैं, उन्हें बाजार मूल्य से कम दाम मिलने की संभावना ज्यादा रहती है. यानी निजी व्यापारियों या आढ़तियों को बेचने पर किसानों को नुकसान होता है.

सरकार का एक अहम वादा ये है कि प्राइवेट प्लेयर्स को अनाज खरीद की अनुमति देने के साथ मंडी के बाहर भी न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर ही अनाज की खरीद होगी, लेकिन किसानों का अनुभव ये है कि ऐसा अब तक व्यवहार में नहीं होता है.

इंडिया टुडे के साथ एक इंटरव्यू में गुरदासपुर के एक किसान हरमिंदर सिंह (40) ने बताया कि बिचौलिये ने जरूरत पड़ने पर उन्हें कर्ज दिया और बीज व नई कृषि पद्धतियों के मामले में भी मदद की. उन्होंने कहा कि मंडी सिस्टम के बाहर के किसानों को ज्यादा नुकसान पहुंचाया जा सकता है, उन्हें अक्सर अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिलता.

नतीजतन, अगर किसान सरकारी एजेंसी को अपनी फसल नहीं बेचते तो उसकी एक बड़ी वजह ये है कि स्थानीय इलाकों में खरीद एजेंसियों की उपलब्धता नहीं है. ऐसे में किसानों के पास सबसे आसान विकल्प बचता है कि वे अपनी उपज एक निजी व्यापारी को बेच दें. ऐसा कहीं देखने को नहीं मिला कि निजी व्यापारी एमएसपी की तुलना में ज्यादा या बेहतर मूल्य देकर खरीद करते हों.

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किसान परिवारों की मुश्किल आय

यह बहुत मायने रखता है कि खेती के जरिये किसान परिवारों की आय बेहद मामूली है. कृषि वर्ष जुलाई 2012 और जून 2013 के दौरान किसान परिवारों की औसत मासिक आय का अनुमान मात्र 6,426 था. इसमें कृषि व्यवसाय (खेती और पशुपालन खेती) से होने वाली आय का औसत करीब 60 प्रतिशत था. जुलाई 2012 और जून 2013 के दौरान प्रति किसान परिवार में औसत मासिक खपत का खर्च 6,223 था. यानी आय और व्यय में कोई अंतर नहीं है.

कृषि वर्ष जुलाई 2012 और जून 2013 के दौरान खेती करने वाले परिवारों का फसल उत्पादन पर औसत मासिक खर्च 2,192 आंका गया था. इसमें से 24 प्रतिशत खाद और फर्टिलाइजर पर खर्च होने का अनुमान था. मानव श्रम का मासिक खर्च 21 प्रतिशत और लगभग 11 प्रतिशत बीज पर खर्च होता था. इसी दौरान, खेती करने वाले परिवारों के लिए फसल उत्पादन से औसत मासिक आय 5,542 आंकी गई. यानी खेती से किसानों को मामूली लाभ हो रहा थ़ा.

पंजाब के किसान देश में खेती से सबसे ज्यादा आय हासिल करते हैं और वे अपनी अधिकांश उपज सरकारी एजेंसियों को बेचते हैं. इसलिए पंजाब के किसान अपनी इस अनिश्चित आय को बचाने के लिए विशेष रूप से उत्सुक हैं.

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