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किसान आंदोलन: पांच प्वाइंट में समझिए भारत का कितना पेट भरते हैं MSP के लिए सड़क पर उतरे पंजाब के किसान

पंजाब के हजारों किसान फसलों पर MSP की गारंटी की मांग को लेकर दिल्ली चलो का नारा दिए हैं. इस बार प्रदर्शन में सबसे ज्यादा पंजाब के किसान शामिल हैं. सवाल है पंजाब हिन्दुस्तान की थाली की कितनी जरूरत पूरा कर है? पंजाब में कितना गेहूं और चावल का उत्पादन होता है. 'अन्नदाता' की शोर के बीच तथ्य यह है कि पंजाब न तो भारत का टॉप गेहूं उत्पादक राज्य है और न ही चावल. अंडे, दूध और फल सब्जी के उत्पादन में भी पंजाब पीछे है.

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पंजाब गेहूं के उत्पादन में भारत में तीसरे स्थान पर है.
पंजाब गेहूं के उत्पादन में भारत में तीसरे स्थान पर है.

MSP गारंटी समेत कई मांगों के लिए दिल्ली चलो का नारा देने वाले किसानों में इस बार ज्यादातर पंजाब के हैं. किसानों की इस आंदोलन में अभी सुलह की कोई गुंजाइश नजर नहीं आती है. अभी और आने वाले मार्च के बीच बीच बहुत कुछ हो सकता है जब भारत का चुनाव आयोग लोकसभा चुनावों की घोषणा करेगा.

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हो सकता है प्रदर्शनकारी किसान और एनडीए सरकार इस मसले का हल निकाल लें. हो सकता है राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के 3 करोड़ से अधिक निवासियों को दिक्कतों का सामना करना पड़े, क्योंकि किसानों ने दिल्ली की ओर जाने वाले नेशनल हाईवे को ब्लॉक कर दिया है, ऐसा ही 2021 के अधिकांश समय में हुआ था.

 किसान यूनियन की मांगों पर इतनी बहस और इतनी चर्चाएं हो चुकी है कि इन लेखकों के पास जोड़ने के लिए कुछ नहीं है. लेकिन एक तथ्य साफ है कि इस बार के ज्यादा प्रदर्शनकारी किसान पंजाब से हैं. इससे हमारे सामने ये सवाल खड़ा होता है कि अब कुछ आंकड़ों को खंगाले और ये बताएं कि भारत का पेट आखिरकार भरता कौन है?

कौन भरता है भारत का पेट, पंजाब?

ऐसा इसलिए है क्योंकि किसानों के विरोध को अक्सर हमारे सामने भावनात्मक तरीके से पेश किया जाता है और इससे "अन्नदाताओं" के बुनियादी सम्मान से जोड़ा जाता है. 

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 1970 के दशक में हरित क्रांति शुरू होने के बाद से ही पंजाब को भारत का भूख मिटाने वाले राज्य के रूप में सम्मान दिया जाता रहा है. यहां हम पांच डेटा प्रस्तुत करते हैं जो स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि पंजाब अब भारत का पेट नहीं भर रहा है. इसका मतलब यह नहीं है कि पंजाब कोई मायने नहीं रखता है.इसकी अहमियत है लेकिन ये एक गैरबराबरी वाली तुलना में प्रथम भी नहीं आता है. 

गेहूं पैदा कर पंजाब ने भारत को शर्मिंदगी से मुक्ति दिलाई, लेकिन... 

1.संभवतः पंजाब की सबसे बड़ी सफलता की कहानी यह थी कि इसने गेहूं के उत्पादन में देश का नेतृत्व किया, ये एक ऐसी उपलब्धि थी जिसने पश्चिम के सामने पेट भरने के लिए बार बार हाथ फैलाने वाले अपमान से भारत को स्थायी रूप से मुक्ति दे दी. 1960 के दशक में, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन और रिचर्ड निक्सन से अपमान सहना पड़ता था क्योंकि इंदिरा को गेहूं मांगने उनके सामने जाना पड़ता. अमेरिकी गेहूं की खेप के बिना भारत के सामने भूखों रहने की नौबत आ सकती थी.  

लगभग एक दशक बाद, पंजाब के नेतृत्व में हरित क्रांति की बदौलत भारत अब अमेरिका की दया पर निर्भर नहीं था. लेकिन वह एक अलग युग था. आज पंजाब गेहूं उत्पादन में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक राज्य है. आज पंजाब में भारत के कुल गेहूं की पैदावार का 12 प्रतिशत उपज होता है. पंजाब में 14.8 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन हुआ और भारत में कुल मिलाकर 114 मिलियन टन का उत्पादन हुआ. दो दशक से भी अधिक समय से गेहूं उत्पादन में पंजाब की हिस्सेदारी में लगातार गिरावट आ रही है. इसलिए, जब गेहूं की बात आती है यानी कि जब रोटियों का सवाल आता है तो पंजाब महज इसका सिर्फ एक बड़ा सप्लायर है.

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धान पैदा कर दिया भूख का समाधान, पर बदल गई है तस्वीर

2.चावल सदियों से भारतीयों का मुख्य वास्तविक आहार रहा है. जेरेड डायमंड की शानदार पुस्तक गन्स जर्म्स एंड स्टील के अनुसार, भारत चावल की खेती करने वाला और इसके चारों ओर नदियों के पास एक बस्तियां बसाने वाला पहली सभ्यताओं में से एक था. एक बार फिर पंजाब ने 1970 के दशक में भारत को चावल उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने का नेतृत्व किया.

खेतों में खाद छिड़कता किसान (फोटो- AFP)

 मेहनतकश पंजाबियों की इस पहल ने उस तिरस्कार और अपमान को हमेशा के लिए मिटा दिया जो भारत को 1943 के दर्दनाक बंगाल अकाल के दौरान झेलना पड़ा था. तब 30 लाख से अधिक भारतीयों की भूख से मृत्यु हो गई थी. आज भारत दुनिया के सबसे बड़े चावल निर्यातक देशों में से एक है. लेकिन गेहूं की तरह धान की पैदावार में भी पंजाब भी बराबरी की तुलना में पहला राज्य नहीं है. उत्पादन के मामले में यह पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश से पीछे है. अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत के कुल उत्पादन में इसका हिस्सा 10% से भी कम है. भारत 135 मिलियन टन का उत्पादन करता है जबकि पंजाब 11.82 मिलियन टन.

दो रुपये किलो भी नहीं कमा सकने वाले किसान प्रदर्शन करते हैं

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3.भोजन का मतलब सिर्फ गेहूं और चावल नहीं है. एक समय अधिकांश गरीब भारतीय मुख्य भोजन के रूप में चावल या गेहूं ही खाते थे. प्रोटीन आहार के रूप में भारत के पास कुछ नहीं था. इसकी वजह से कुपोषण के मानकों पर भारत का प्रदर्शन खराब रहा. लेकिन जब पीवी नरसिम्हा राव ने देश की इकोनॉमी खोली तो भारतीयों की आय बढ़ी, इसके बाद भारतीयों की हैसियत सब्जी खाने लायक हो गई. 

वास्तव में यदि आप फलों को जोड़ दें, तो बागवानी उत्पादन वर्षों पहले के खाद्यान्न उत्पादन से आगे निकल गया है. बागवानी के मामले में पंजाब कहां खड़ा है? कहीं भी नहीं. सब्जियों का उत्पादन 200 मिलियन टन से अधिक हो गया है. अगर इसका टेबल देखें तो टॉप राज्यों में उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, बिहार और गुजरात हैं. सब्जी पैदा करने वाले किसान शायद कृषि बाजार के संकट के सबसे बड़े शिकार हैं. भारत भर में किसानों के ऐसे दर्जनों वीडियो हैं, जो सब्जियों को फेंक रहे हैं क्योंकि उन्हें अपनी उपज के लिए 2 रुपये प्रति किलोग्राम भी कमाई नहीं हो पाई. ऐसे किसान भी पूरे भारत में विरोध प्रदर्शन करते हैं. लेकिन उन्होंने अभी तक "चलो दिल्ली" की घोषणा नहीं की है. 

'पंजाब में दूध की नदियां भी तो नहीं बहती है'

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4. अगर एक बार फिर से कहें तो अनाज का मतलब सिर्फ चावल और गेहूं नहीं है. मिल्लेट यानी कि बाजरा का भी खूब प्रमोशन किया जा रहा है, इसका उत्पादन बढ़ाने में कामयाबी भी मिली है. दाल तो भारतीय थाली का अहम हिस्सा रहे हैं. हैरानी की बात यह है कि यह एकमात्र प्रमुख "खाद्य" आइटम है जहां घरेलू उत्पादन बढ़ती मांग के साथ तालमेल बिठाने में विफल रहा है. और भारत को हर साल दालों के आयात पर अरबों डॉलर खर्च करने के लिए मजबूर होना पड़ा है.

एक और खाद्य पदार्थ हुआ करता था जहां भारत एक समय में दाता देशों की दया पर निर्भर था और आयात करता था. लेकिन लाल बहादुर शास्त्री की दूरदर्शिता और वी. कुरियन के शानदार नेतृत्व की बदौलत देश में हरित क्रांति के साथ-साथ श्वेत क्रांति भी बढ़ी. हम बात दूध की कर रहे हैं.

आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि जैसे-जैसे पारिवार की आय बढ़ती है, दूध मौजूदा समय में भारतीय पारिवारों के भोजन का एक प्रमुख आइटम बन गया है. लेकिन पंजाब टॉप दूध उत्पादक राज्यों की सूची में कहीं नहीं है.  

उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार शीर्ष पांच दूध उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और आंध्र प्रदेश हैं. यदि एक मिडिल क्लास फैमिली की हेल्दी डाइट के लिए कोई दूध को चावल और गेहूं जितना ही महत्वपूर्ण मानता है, तो पंजाब अब भारत का पेट भरने में टॉप होने का दावा नहीं कर सकता है. 

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अंडे का फंडा में भी पंजाब पीछे

5. जब तक आप शुद्ध शाकाहारी (एनएफएचएस सर्वेक्षण के अनुसार, लगभग 28% भारतीय "शुद्ध" शाकाहारी हैं) नहीं हैं तो अंडे स्वस्थ आहार का एक बहुत ही महत्वपूर्ण तत्व हैं.कुछ राज्यों में अंडे छात्रों के लिए मध्याह्न भोजन योजना का हिस्सा बन गए हैं. खुदरा दुकानों पर चार अंडों की कीमत एक गृहिणी द्वारा एक किलोग्राम प्याज के लिए दी जाने वाली कीमत से भी कम है.

दूध की तरह ही भारत दुनिया के सबसे बड़े अंडा उत्पादक देशों में से एक बनकर उभरा है. भारतीयों को अंडे खिलाने के मामले में पंजाब एक बार फिर पिछड़ गया है.भारत में शीर्ष अंडा उत्पादक राज्य आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक हैं. हम तो अन्य "मांसाहारी" खाद्य पदार्थों के उत्पादन पर विस्तृत आंकड़ों में जा भी नहीं रहे हैं.

सब्सिडी वाले खाद न मिले तो...

इन पांच आंकड़ों का विश्लेषण क्या बताता है? पहली बात तो यह है कि चावल और गेहूं के उत्पादन के मामले में पंजाब एक बराबरी वाली तुलना में भी अव्वल नहीं है. और दोनों फसलों के उत्पादन में इसका तीसरे स्थान होना संभवतः खाद के अंधाधुंध प्रयोग के कारण है. पंजाब में उर्वरकों की प्रति व्यक्ति खपत 250 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से अधिक है, जो भारतीय औसत से कई गुना अधिक है.

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यह उस राज्य के लिए अजीब है जहां सिंचाई की बड़ी अच्छी व्यवस्था है और जहां किसान पानी और बिजली की लगभग असीमित सप्लाई का फायदा उठाते हैं. डेटा स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि सब्सिडी वाले उर्वरकों के इतने बड़े पैमाने पर उपयोग के बिना, पंजाब टॉप चावल और गेहूं उत्पादक राज्यों की सूची से भी बाहर हो जाएगा.

यहां हम MSP से जुड़े एक और अहम पहलू की ओर हम ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं. पंजाब में पैदा होने वाला लगभग 99% चावल और 74% चावल और गेहूं को सरकार MSP पर खरीदती थी. दूसरे राज्यों में तो किसान सरकार से ऐसी दरियादिली का सपना ही देख सकते हैं. लेकिन ये किसान दिल्ली चलो का आह्वान नहीं कर रहे हैं. तो फिर पंजाब के किसान क्यों उग्र हैं. हमें इस पर तनिक भी संदेह नहीं है कि पंजाब का औसत किसान उतना ही मेहनती है जितना भारत के किसी और राज्य का किसान. 

लेकिन जैसा कि कई गंभीर विश्लेषक और अर्थशास्त्री राजनीतिक बयानबाजी का सहारा लिए बिना इशारा कर रहे हैं कि पंजाब में खेती आत्मघाती विनाश की राह पर चल पड़ा है. उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग और जल स्तर के ऐतिहासिक निचले स्तर तक नीचे जाने से पंजाब लंबे समय में एक रेगिस्तानी राज्य बनने के खतरे की ओर अग्रसर है.

लगभग हर चीज़ को "मुफ्त" की संस्कृति ने राज्य के वित्तीय व्यवस्था को पंगु बना दिया है और एक समय तेजी से बढ़ रहा औद्योगिक क्षेत्र जहां युवाओं को रोजगार मिलता था वो मौके अब खत्म होने के कगार पर हैं. 

जैसा कि एग्रीकल्चर मार्केट एक्सपर्ट डॉ. अशोक गुलाटी ने इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू के दौरान स्पष्ट रूप से बताया था, "पंजाब में कृषि वर्तमान स्वरूप में टिकने वाली नहीं है और वहां के किसानों को तत्काल खेती में विविधता लाने की आवश्यकता है. इसका मतलब है कि वहां के किसानों को अधिक बाजरा, अधिक सब्जियां, अधिक दूध, अधिक अंडे और वैसी बहुत चीजें पैदा करने की जरूरत है जो आइटम अभी एक हेल्दी फैमिली डाइट का हिस्सा हैं.  

अफसोस की बात है कि पंजाब के किसानों के सामने मौजूद जिन चुनौतियों पर बहस होनी चाहिए थी, उस पर राजनीति हावी हो गई है. ऐसी स्थिति में स्वयं हम जैसे पंजाब के शुभचिंतक कितना भी विश्वसनीय डेटा क्यों न पेश करें, यहां "चलो दिल्ली" और "अन्नदाता" का ही शोर सुनाई देने वाला है. 
 

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