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'पानी में घिरे हुए लोग
प्रार्थना नहीं करते
वे पूरे विश्वास से देखते हैं पानी को
और एक दिन
बिना किसी सूचना के
खच्चर, बैल या भैंस की पीठ पर
घर-असबाब लादकर
चल देते हैं कहीं और...'
बाढ़ पर कवि केदारनाथ सिंह की कविता की ये चंद पंक्तियां वो वास्तविकता है जो हर साल इस देश के लाखों-करोड़ों लोगों की जिंदगी का उसी तरह हिस्सा बन जाती हैं जैसे लोग नियमित तौर पर खाना खाते हैं, पानी पीते हैं या दूसरे जरूरी काम करते हैं. हर साल की तरह एक बार फिर बरसात का मौसम आ गया है, एक बार फिर उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में मॉनसून ने दस्तक दे दी है और इसी के साथ शुरू हो चुका है बाढ़, बारिश और बर्बादी का अंतहीन सिलसिला भी, जो साल दर साल पिछले कई सालों या दशकों से ये देश ऐसे ही देखता आ रहा है.
तबाही का खतरा फिर दरवाजे पर है!
फिर से असम में लाखों लोग बाढ़ के पानी में घिरे हुए हैं, उनके घर-मकान-दुकान सब डूब चुके हैं. नाव ही उनके यातायात का आखिरी सहारा बची है, दिल्ली-मुंबई की सड़कें पानी में डूबी दिखने लगी हैं, और निचले इलाकों के घरों के ग्राउंड फ्लोर में बारिश का पानी घुसने लगा है. उत्तराखंड, हिमाचल के पहाड़ बारिश, बाढ़ और लैंडस्लाइड की तबाही झेलने को फिर से मजबूर हैं.
उत्तर भारत की अधिकांश नदियां फिर उफान पर आने लगी हैं, और इसके साथ ही राजस्थान का रेगिस्तान और गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के शहर और कस्बे फिर पानी में घिरने लगे हैं. हर साल की तरह फिर बिहार और यूपी के अधिकांश इलाके बाढ़ के पानी में घिरने का बस इंतजार ही कर रहे हैं. इससे अलग सीन की किसी को उम्मीद भी नहीं है क्योंकि पिछले कई सालों से या कई दशकों से हर साल मॉनसून आने के साथ ही यही नजारा दिखता है.
इस दौरान, तमाम सरकारी प्लानिंग सामने आईं लेकिन न तो बाढ़ को कंट्रोल किया जा सका और ना ही तबाही वाले इलाकों में लोगों को बचाने के लिए कुछ ठोस कदम उठाया जा सका. बाढ़ राहत के तमाम प्रोग्राम कागजों पर ही दिखते रहे और हर साल बर्बादी के बाद राहत कैंप, खाना वितरण, अस्थायी कैंप और फिर तबाह हुए लोगों को कुछ हजार रुपयों के राहत चेक बांटने पर जाकर थम जाती है, फिर अगले साल के मॉनसून, बारिश और बाढ़ तक के लिए.
बाढ़ कितनी बड़ी मुसीबत है भारत के लिए?
चक्रवाती तूफान, बाढ़, बेहिसाब बारिश... हमारी भौगोलिक स्थिति कहें या क्लाईमेट चेंज का असर लेकिन बांग्लादेश, चीन, वियतनाम, पाकिस्तान जैसे एशियाई देशों की तरह भारत दुनिया में बाढ़ की तबाही झेलने के मामले में सबसे खतरनाक जोन वाले देशों में से एक है. दुनिया भर में बाढ़ से जितनी मौतें होती हैं, उसका पांचवा हिस्सा भारत में होता है. देश की कुल भूमि का आठवां हिस्सा यानी तकरीबन चार करोड़ हेक्टेयर इलाका ऐसा है जहां बाढ़ आने का अंदेशा बना रहता है. भारत में 39 करोड़ आबादी बाढ़ के खतरे वाले इलाकों में रहती है. भारत में औसतन हर साल बाढ़ से 75 लाख हेक्टेयर भूमि प्रभावित होती है, 1600 लोगों की जाने जाती हैं तथा बाढ़ के कारण फसलों व मकानों तथा जन-सुविधाओं को होने वाली क्षति 1805 करोड़ रुपए औसतन है.
पूरे देश में बाढ़ से तबाही के एक जैसे हालात हैं. आंकड़ों पर गौर करें तो साल 1952 से 2018 के 65 सालों में देश में बाढ़ से एक लाख से अधिक लोगों की जान जा चुकी है. 8 करोड़ से अधिक मकानों को नुकसान पहुंचा जबकि 4.69 ट्रिलियन से अधिक का आर्थिक नुकसान हुआ. असम, बिहार, बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य बाढ़ की तबाही हर साल झेलते हैं.
विशेषकर बिहार के करीब 74 प्रतिशत इलाके और 76 प्रतिशत आबादी बाढ़ की जद में हमेशा रहती है. बिहार में नेपाल से आने वाली नदियां, जिनकी उत्पति हिमालय की वादियों में होती हैं और ढलान के कारण पानी हर साल तेज रफ्तार में बिहार की ओर आ जाता है. बिहार के 38 में 28 जिले हर साल बाढ़ की तबाही झेलते हैं. कोसी, गंडक, बागमती, कमला बलान, गंगा, बूढ़ी गंडक, सरयू, पुनपुन, महानंदा, सोन, लखनदेई, अवधारा, फाल्गू... ये वो नदियां हैं जो बिहार में जितनी खुशहाली नहीं लातीं उससे ज्यादा तबाही का कारण हर साल बन जाती हैं.
बाढ़ से कितनी बड़ी है तबाही?
देश के कई रिवर बेसिन तबाही के इलाके साबित हुए हैं. हर साल सूखे दिनों में लोग अपना आशियाना बनाते हैं और बरसात में आने वाली बाढ़ सबकुछ बहा ले जाती है. इसी के साथ किसानों के खेतों में खड़ी फसल भी तबाह हो जाती है. एशियन डेवलपमेंट बैंक के मुताबिक भारत में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी घटनाओं में बाढ़ सबसे अधिक तबाही का कारण बनती है. प्राकृतिक आपदाओं से देश में होने वाले नुकसान में बाढ़ की हिस्सेदारी करीब 50 प्रतिशत है. अनियमित मॉनसूनी पैटर्न और कुछ इलाकों में कम और कहीं अधिक बरसात इस तबाही को कुछ इलाकों में और ज्यादा बढ़ा देता है. मकान, कारोबार, फसलों को हुए नुकसान पर एक अनुमान के मुताबिक बाढ़ के कारण भारत में पिछले 6 दशकों में करीब 4.7 लाख करोड़ का आर्थिक नुकसान हुआ है.
देश के फ्लड बेल्ट
देश की कई नदियां हर साल मॉनसूनी बाढ़ लाती हैं और तबाही का कारण बन जाती हैं. हम यहां देश के फ्लड बेल्ट के रूप में जाने जाने वाले 10 इलाकों की चर्चा करेंगे जहां की नदियां हर साल मॉनसून में उफान पर आती हैं और बाढ़ का पानी जहां हर साल तबाही मचाता है-
1. असम में ब्रह्मपुत्र से बर्बादी
चीन से आने वाली ब्रह्मपुत्र नदी का पानी मॉनसून की शुरुआत से ही इस साल तबाही का रूप दिखाने लगा है. असम में बाढ़ वाले इलाकों में 5 लाख से अधिक लोग घिरे हुए हैं. चीन से निकलने वाली ब्रह्मपुत्र नदी दुनिया की 9वीं सबसे लंबी नदी है. हर साल बरसात में यहां का पानी असम ही नहीं, अरुणाचल प्रदेश और बांग्लादेश के कई इलाकों में भी तबाही मचाता है.
2. बिहार में कोसी का कोहराम
हर साल आसपास के इलाकों में तबाही के कारण कोसी नदी को बिहार का अभिशाप कहा जाता है. खासकर सहरसा, सुपौल, मधेपुरा और आसपास के जिलों में तबाही हर साल की बात है. साल 2008 में कोसी नदी में आई सबसे भयानक बाढ़ में 23 लाख लोग प्रभावित हुए थे.
3. बिहार में इनके अलावा गंडक-बागमती-कमला बलान नदियों से तबाही भी हर साल की बात हो गई है. नेपाल से आने वाली ये नदियां उत्तर बिहार के कई इलाकों में हर साल बड़ा नुकसान करती हैं. पश्चिम चंपारण, पूर्वी चंपारण, गोपालगंज, मुजफ्फरपुर, वैशाली, सारण, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, दरभंगा और मधुबनी जिलों के कई इलाके बाढ़ की तबाही का हर साल सामना करते हैं.
4. यूपी में भी गोमती नदी से तबाही हर साल की बात है. गोमती नदी का उद्गम पीलीभीत जिले की तहसील माधौटान्डा के पास फुल्हर झील से होता है. भारी बारिश के कारण गोमती समेत कई नदियों का पानी जब उफान आता है तो सैंकड़ों गांवों में पानी घुसता है और घर-मकान-फसलें सब तबाह हो जाती है.
5. MP में नर्मदा नदी को विशाल योगदान के कारण जीवन रेखा कहा जाता है. लेकिन इसी नर्मदा का उफनता पानी मध्य प्रदेश और गुजरात के कई इलाकों में हर साल तबाही का कारण भी बनता है. जून 2015 में आए मॉनसून ने गुजरात को पानी-पानी कर दिया था. गुजरात के कई हिस्से जलमग्न हो गए थे. इस बाढ़ में कुल 123 लोगों की मौत हो गई थी.
6. गोदावरी की तलहटी में... उधर गोदावरी नदी महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से बहते हुए राजमुन्दरी शहर के समीप बंगाल की खाड़ी में जाकर मिलती है. इसकी उपनदियों में प्रमुख हैं प्राणहिता, इन्द्रावती, मंजिरा. गोदावरी नदी में आई बाढ़ ने आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी और पश्चिमी गोदावरी जिले और महाराष्ट्र के नासिक के कई हिस्सों में लगातार तबाही मचाई है.
7. दामोदर नदी पश्चिम बंगाल और झारखंड में बहने वाली प्रमुख नदी है. यह लगभग 290 KM का सफर झारखंड में तय करती है. उसके बाद पश्चिम बंगाल में प्रवेश कर 240 KM का सफर तय करती है. हुगली नदी के समुद्र में गिरने के पूर्व यह उससे मिलती है. इसके पानी में उफान से दोनों राज्यों के कई इलाकों पर असर होता है.
8. उत्तर भारत की जीवनरेखा कही जाने वाली गंगा नदी भारत और बांग्लादेश में कुल मिलाकर 2525 किलोमीटर की दूरी तय करती है. इसका जलस्तर बढ़ते ही यूपी-बिहार और बंगाल में आसपास बसे इलाकों से विस्थापन शुरू हो जाता है.
9. उधर, कावेरी कर्नाटक तथा उत्तरी तमिलनाडु में बहने वाली सदानीरा नदी है. दक्षिण पूर्व में प्रवाहित होकर कावेरी नदी बंगाल की खाड़ी में मिलती है. सिमसा, हिमावती, भवानी इसकी उपनदियां हैं. कावेरी का जलस्तर बढ़ने से कोडग़ू, मैसूरु, मंड्या आदि जिलों में बाढ़ का खतरा उत्पन्न हो जाता है.
10. उत्तराखंड जहां से उत्तर भारत की अधिकांश नदियां निकलती हैं वहां भी हर साल मॉनसून आते ही बाढ़ से तबाही शुरू हो जाती है. इस बार भी हालात ऐसे ही बन रहे हैं. भागीरथी, भिलंगना, मंदाकिनी, सरस्वती, अलकनंदा और गंगा जैसी नदियों से जुड़ी 614 किलोमीटर लंबाई क्षेत्र को बाढ़ मैदान क्षेत्र के रूप में चिन्हित किया गया है.
आने वाले वक्त के खतरे?
क्लाईमेट चेंज से जुड़ी एजेंसियों का अनुमान है कि आने वाले वक्त में ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ने के कारण मौसम अनियमित होता जाएगा और आबादी बढ़ने के साथ-साथ प्राकृतिक आपदाओं से तबाही भी बढ़ जाएगी. सदी के आखिर तक 2 फीसदी तापमान में बढ़ोत्तरी हो सकती है और प्राकृतिक आपदाओं में 30 फीसदी तक की बढ़ोत्तरी का अनुमान भी पर्यावरण एजेंसियों ने जताया है.
क्या कदम उठाए गए?
साल 1953 में बिहार में भयंकर बाढ़ आई थी. उसके बाद बाढ़ के पानी को रोकने के लिए 1954 में कई फैसले हुए. तटबंधों को बाढ़ नियंत्रण का मुख्य जरिया मानकर प्लान शुरू किया गया था. उस समय राज्य में कुल 160 किलोमीटर इलाके में तटबंध बने थे और बाढ़ प्रभावित कुल इलाकों का आकलन था 25 लाख हेक्टेयर इलाका. तब से अबतक राज्य में 13 नदियों पर 3790 किलोमीटर एरिया में तटबंध बनाए जा चुके हैं. इनके निर्माण, मरम्मत, रखरखाव पर हर साल औसतन 156 करोड़ से अधिक का खर्च आता है लेकिन बाढ़ के हालात में कोई बदलाव नहीं देखने को मिला. उल्टे इन सात दशकों में बिहार में बाढ़ के खतरे वाला इलाका बढ़कर 68 लाख हेक्टेयर हो गया है क्योंकि नदियों का लगातार विस्तार हो रहा है और नए शहर-कस्बों और गांव के इलाकों के फैलने से ज्यादा से ज्यादा इलाके बाढ़ के खतरे वाले जोन में आते जा रहे हैं.
क्यों जमीन पर कारगर नहीं हैं उपाय?
लगातार मरम्मत के काम और रखरखाव के खर्च के बावजूद हर साल जगह-जगह तटबंध टूट जाते हैं और आसपास के इलाकों में बसे लोगों का सबकुछ बहा ले जाती है बाढ़. बिहार के जल संसाधन विभाग की 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक विभिन्न नदियों पर बने तटबंधों में पिछले तीन दशकों में 400 से अधिक दरारें आईं और बाढ़ का कारण बनीं. भले ही, हर साल फिर करोड़ों रुपये लगाकर इनकी मरम्मत होती है लेकिन फिर से मॉनसून आते ही हालात जस के तस हो जाते हैं. एक्सपर्ट मानते हैं कि तटबंधों का निर्माण बाढ़ का टेंपररी समाधान ही है. लेकिन इसके आगे कोई ठोस प्लान नहीं दिखता. 2008 के कोसी फ्लड के वक्त की भारी तबाही के बाद भी तमाम वादे किए गए. मास्टरप्लान, टास्क फोर्स बनाई गई. हर चुनाव में बाढ़ नियंत्रण के बड़े उपायों के वादे होते हैं लेकिन हालात तब भी जस के तस हैं.
दशकों से है समाधान का इंतजार
लगातार बन रहे इन तटबंधों का हाल ये है कि इनसे नदी का पानी एक जगह पर रोका जाता है तो दूसरे इलाकों में घुस जाता है और बाढ़ की तबाही नए इलाकों में होने लगती है. प्रभावित इलाकों में रहने वाले लोग साल के तीन महीने को बाढ़ वाले महीने मानकर ही चलते हैं. बिहार-असम जैसे राज्यों के कई इलाकों में तो लोगों ने आने-जाने के लिए नाव तक खरीदकर रखा हुआ है ताकि बाढ़ के दौरान जरूरी कामकाज के लिए आ जा सकें. खरीफ के सीजन में खेती करना भी कम जोखिमभरा नहीं है इन इलाकों में. क्योंकि हर साल फसल बाढ़ में बर्बाद ही हो जाती है. हर साल सबकुछ गंवाने वाले लोगों को बाढ़ की इस समस्या के स्थायी समाधान का इंतजार दशकों से है.
क्या है इस प्राकृतिक आपदा का हल?
बारिश-मॉनसून जैसी प्राकृतिक क्रियाओं को तो किसी भी तरह रोका नहीं जा सकता है लेकिन बाढ़ प्रभावित इलाकों में पहले से तैयारी करके होने वाले नुकसान को जरूर कम किया जा सकता है. क्या लगातार तटबंधों और बांधों के बनने से इसका हल हुआ है? नहीं, एक्सपर्ट इससे इत्तेफाक नहीं रखते. आईआईटी कानपुर की एक स्टडी रिपोर्ट में तटबंधों को बाढ़ का अस्थायी समाधान ही माना गया है. जल संसाधन पर नजर रखने वाले एक्सपर्ट मानते हैं कि नेपाल से सटे होने और नदियों की तलहट्टी में बसे होने के कारण बिहार-यूपी की भौगोलिक स्थिति में बाढ़ को टाला नहीं जा सकता. बल्कि बेहतर प्रबंधन से लोगों को हो रहे नुकसान में कमी जरूर लाई जा सकती है.
इसके लिए छोटे-छोटे नहर बनाकर सूखे इलाकों में पानी को डायवर्ट किया जा सकता है. इसके अलावा बड़े जलाशयों का निर्माण कर पानी को संरक्षित किया जा सकता है. इससे जहां ज्यादा से ज्यादा इलाकों में सिंचाई की जरूरत पूरी की जा सकती है. वहीं सूखे वाले इलाकों में पानी मुहैया कराया जा सकता है. साथ ही पीने के पानी के बढ़ते संकट को भी कम किया जा सकता है.
नदियों को जोड़ने की परियोजना सफल हो गई होती तो?
बाढ़ के खतरे के बीच सबसे ज्यादा चर्चा अगर किसी योजना की होती है तो वो है नदियों को आपस में जोड़ने की अटल सरकार की परियोजना की. अक्सर लोग कहते हैं कि अगर नदियां जुड़ गई होतीं तो बाढ़ कंट्रोल हो चुका होता. लेकिन बड़े पैमाने पर पलायन के खतरे और उसके विरोध की आशंका को देखते हुए ये योजना अबतक जमीन पर नहीं उतारी जा सकी है. केंद्र सरकार ने फिर से देश की 31 नदियों को आपस में जोड़ने के लिए विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है लेकिन उसके लिए तमाम राज्यों को मिलकर काम करना होगा. विस्थापन की समस्या से निपटने के लिए राज्यों के बीच और तमाम राजनीतिक दलों के बीच भी आपसी सहमति की जरूरत होगी.
क्या है रिवर लिंकिंग प्रोजेक्ट?
देश की नदियों को आपस में जोड़ने के पीछे आइडिया ये है कि अगर ऐसा संभव हो सका तो मॉनसून के वक्त जब नदियां उफान पर होंगी तो पानी को लिंक कैनल के जरिए सूखे इलाकों में डायवर्ट किया जा सके. इससे जहां आसपास के इलाके डूबने से बच जाएंगे तो वहीं सूखे का सामना कर रहे इलाकों को पीने और सिंचाई के लिए पानी जरूरत के वक्त मिल जाता. इससे देश में बाढ़ और पानी की बढ़ती जरूरतों की समस्या को हल करने में एक साथ मदद मिल जाती.
रिवर लिंकिंग प्रोजेक्ट की हिस्ट्री
रिवर लिंकिंग का आइडिया कोई नया आइडिया नहीं है बल्कि नदियों को आपस में जोड़ने का प्रस्ताव साल 1858 में ब्रिटिश सैन्य इंजीनियर आर्थर थॉमस कॉटन ने दिया था. ताकि ताकि ईस्ट इंडिया कंपनी को बंदरगाहों की सुविधा हो सके और दक्षिण-पूर्वी प्रांतों में बार-बार पड़ने वाले सूखे से निपटा जा सके. अटल सरकार के दौरान इस आइडिया पर टास्क फोर्स भी बनाया गया और बिस्तृत स्टडी भी कराई गई. नदियों को आपसे में जोड़ने के लिए 15,000 किलोमीटर लंबी नई नहरें खोदनी होंगी. ताकि इसमें पानी स्टोर किया जा सके. इसके लिए हिमालयी नदियों गंगा, यमुना से लेकर ब्रह्मपुत्र, महानदी, गोदावरी, कृष्णा, पेन्नार, कावेरी और वैगाई नदियों तक लिंक नहर और डैम विकसित करने होंगे.
रिवर लिंकिंग प्रोजेक्ट की राह के रोड़े
हालांकि, इसमें जितना नदियों को जोड़ने को लेकर समर्थन दिखता है उससे ज्यादा राज्यों के बीच नदी जल बंटवारे के विवाद आड़े आ जाते हैं. साथ हीं, पर्यावरणविद मानते हैं कि हर नदी का एक इकोसिस्टम है और यदि नदी के पानी को जबरदस्ती कहीं मोड़ा जाएगा तो इससे उसके इकोसिस्टम पर असर होगा. साथ ही, इस परियोजना पर अनुमानित खर्च भी बहुत ज्यादा है. अटल सरकार के समय ही इस परियोजना पर 5 लाख 60 हजार करोड़ रुपए का खर्च आने का अनुमान था. अब तो ये काफी ज्यादा पहुंच जाएगा.
पर्यावरणविद् मानते हैं कि बाढ़ के नुकसान को कम करने के लिए ठोस योजनाओं को बनाने और जमीन पर उन्हें लागू करने की जरूरत है. इसके लिए छोटे-छोटे रिजर्वॉयर बनाने होंगे, बांध बनाकर और लिंक नहर बनाकर पानी बढ़ने पर उन्हें डायवर्ट करने के रास्ते बनाने होंगे और निचले इलाकों में रह रहे और हर साल बाढ़ से तबाह हो रहे लोगों को या तो ऊंची जगह शिफ्ट करना होगा या उनके इलाकों को घेरने के लिए बांध और उन इलाकों से पानी निकालने के लिए बड़े पंप लगाने होंगे ताकि बाढ़ का खतरा उत्पन्न होने से पहले ही लोगों को बचाया जा सके. वरना बाढ़ की बर्बादी का ये नजारा अतीत के कई दशकों की तरह ऐसे ही देश को बदहाल करते रहेंगे.