यूं ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है हिंदुस्तान. इसको बड़ा बनाता है हमारे बड़े नेताओं का बड़प्पन जिसमें वैचारिक मतभेद कभी संवैधानिक और मानवीय मर्यादाओं के आड़े नहीं आते. ऐसी ही महानता पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के कदमों से मिलान करके चलती थी. तभी तो उनकी बात करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भावुक हो जाते हैं और उनका गला रुंध जाता है.
राष्ट्रपति बनने से पहले प्रणब मुखर्जी ने 5 दशक तक कांग्रेस में रहकर राजनीति की और सरकार से लेकर संगठन में बड़े पदों पर रहे. लेकिन 2014 में जब केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में एनडीए की सरकार बनी तो राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी थे. तब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के रूप में दोनों नेताओं ने अपना जो रिश्ता जोड़ा उसको बेहद मजबूती से निभाया.
2017 में प्रणब दा राष्ट्रपति भवन से बाहर निकले तो भी उनके सम्मान में प्रधानमंत्री मोदी के हाथ हमेशा जुड़े रहे और लोग उस समय दंग रह गए जब पिछले साल मोदी सरकार ने प्रणब दा को सबसे बड़ा नागरिक सम्मान भारत रत्न देने का ऐलान किया. प्रणब दा राजनीति की उस जमात से आते थे जहां राजनीतिक छुआछूत के लिए कोई जगह नहीं थी. इसलिए जिस अटल बिहारी वाजपेयी से संसद में तीखी बहस होती थी, उनसे भी प्रणब दा के बहुत मधुर संबंध रहे. उन संबंधों की भावुक झलक तब दिखी जब वाजपेयी को भारत रत्न से नवाजने के लिए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी उनके घर पहुंचे थे.
संघ कार्यालय पहुंचे थे प्रणब मुखर्जी
2019 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी को प्रचंड बहुमत मिला. उस बहुमत की जिम्मेदारी निभाने से पहले वो प्रणब दा से मिलने उनके घर पहुंचे थे. तब प्रणब मुखर्जी ने अपने हाथों से उनको मिठाई खिलाई थी. लेकिन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के संबंधों से आगे सियासी हंगामा तब मचा जब 2018 में आरएसएस ने प्रणब मुखर्जी को अपने कार्यक्रम में आने का न्योता दिया. तब कांग्रेस ने ही नहीं बल्कि उनकी बेटी ने भी अपने पिता से अपील की कि वो संघ के कार्यक्रम में न जाएं.
लेकिन प्रणब दा आरएसएस के कार्यक्रम में नागपुर पहुंचे. वहां उन्होंने आरएसएस के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार को बड़ी शिद्दत से याद किया, जो हिंदुओं का सबसे बड़ा सगठन खड़ा करने से पहले कांग्रेस के नेता थे. संघ के कार्यक्रम में प्रणब दा गए तो जरूर लेकिन संघ की एक परंपरा भी उनकी वजह से टूटी. संघ में किसी मुख्य अतिथि के बोलने के बाद सरसंघचालक का भाषण होता है लेकिन प्रणब मुखर्जी के मामले में वो परंपरा टूट गई. वहां भी प्रणब दा ने धर्मनिरपेक्षता के अपने मूल्यों की अलख जगा दी. प्रणब दा ने लोकतंत्र को मजबूत बनाने में संवाद की भूमिका को हमेशा तवज्जो दी. वही भूमिका उनको अपने समकालीन नेताओं से अलग करती थी.
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