scorecardresearch
 

पांच राज्यों में चुनावी 'बंपर सेल', सुप्रीम कोर्ट में केस... अठन्नी की आय वाले राज्य कैसे खर्च करेंगे रुपया?

पांच राज्यों में सत्ताधारी दल और सत्ता चाहने वाले दलों की योजनाओं-वादों पर गौर करेंगे तो मुफ्त बिजली, महिलाओं को मुफ्त में पैसा, महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा, सस्ता सिलेंडर, महिलाओं को मुफ्त मोबाइल फोन, एक साल के लिए मुफ्त इंटरनेट, छात्रों को मुफ्त लैपटॉप, ई-स्कूटी समेत तमाम चीजें मुफ्त में या तो दी जाने लगी हैं या देने का वादा किया जा रहा है.

Advertisement
X
इसी साल पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं
इसी साल पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं

देश के पांच राज्यों में इसी साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. ये राज्य हैं- मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम. इन पांच राज्यों में सत्ताधारी दल और सत्ता चाहने वाले दलों की योजनाओं-वादों पर गौर करेंगे तो मुफ्त बिजली, महिलाओं को मुफ्त में पैसा, महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा, सस्ता सिलेंडर, महिलाओं को मुफ्त मोबाइल फोन, एक साल के लिए मुफ्त इंटरनेट, छात्रों को मुफ्त लैपटॉप, ई-स्कूटी समेत तमाम चीजें मुफ्त में या तो दी जाने लगी हैं या देने का वादा किया जा रहा है. 

Advertisement

हालांकि ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है. लेकिन इस फ्रीबीज यानी मुफ्त की रेवड़ी से वोट कैश कराने वाली चुनावी कुप्रथा को बंद करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. शुक्रवार 6 अक्टूबर को देश की सर्वोच्च अदालत ने केंद्र सरकार, चुनाव आयोग, राजस्थान और मध्य प्रदेश सरकार को नोटिस जारी किया है. चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अदालत ने 4 हफ्ते में जवाब मांगा है.

राज्यों पर बढ़ता जा रहा कर्ज

इस बीच जिन राज्यों की आमदनी अठन्नी है, वहां चुनाव में वोट के लिए रुपया खर्च करके सत्ता चाहने वाले और सत्ताधारी, दोनों कह रहे हैं मुफ्त मुफ्त मुफ्त. मध्य प्रदेश का कुल कर्जा 3 लाख 31 हजार करोड़ रुपए पहुंच चुका है. प्रति व्यक्ति कर्ज मध्य प्रदेश में 50000 रुपए चढ़ चुका है. राजस्थान का कुल कर्ज तो 5 लाख 31 हजार करोड़ रुपए तक हो चुका है. गहलोत राज में प्रति व्यक्ति कर्ज 65,541 रुपए हो चुका है. लेकिन इसके बावजूद चुनावी राज्य में सरकार और विपक्ष दोनों जमकर मुफ्त में सरकारी खजाना बांटने में लगे हैं. इसके चलते सुप्रीम कोर्ट तक चिंतित हो चुका है, जहां कई याचिकाओं को एक साथ सुना जा रहा हे. 

Advertisement

सुप्रीम कोर्ट में चुनाव से पहले वोट के बदले मुफ्त की चीजें दिए जाने के खिलाफ कार्रवाई की गुहार हुई. एक याचिकाकर्ता ने कहा कि चुनावों के ठीक 6 महीने पहले मुफ्त चीजें जैसे मोबाइल, टैब, टीवी बांटे जाते हैं. राज्य सरकारें इसे जनहित का नाम दे देती हैं और चुनावी फायदा उठाती हैं. याचिकाकर्ता के एक वकील पहले कह चुके हैं कि चुनावी गिफ्ट देने के लिए पार्टियां पैसे कहां से लाएंगी? ये मतदाता को जानने का अधिकार है, साथ ही टैक्स पेयर्स को भी पता होना चाहिए कि ये पैसा उनकी जेब से जा रहा है. इसलिए राजनीतिक दलों/उम्मीदवारों को चुनाव घोषणापत्र में ये बताना होगा कि पैसा कहां से आएगा.

इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम देश के कल्याण के लिए इस मुद्दे को सुन रहे हैं. इस मामले में सभी राजनीतिक दल एक तरफ हैं. हर कोई चाहता है कि फ्रीबीज़ जारी रहे.

किसी के लिए मुफ्ते के वादे रेवड़ी हैं तो किसी के लिए मुफ्त के वादे प्रसाद. कोई मुफ्त के वादों को जनकल्याण कहता है तो कोई कहता है कि मुफ्त की चीजें बांटकर राज्य को कर्ज के जाल में फंसाया जाता है. हर दल वोट के लिए अपने अपने हिसाब से परिभाषा बना चुका है. यही वजह है कि ना तो मुफ्त की रेवड़ी किसे कहेंगे और किसे जनकल्याण कहेंगे, इसकी परिभाषा तय हो पा रही है. ना नियम बन पा रहा है. 

Advertisement

कारण, देश में जब चुनावी रेवड़ी को लेकर बहस छिड़ी तो चुनाव आयोग ने सभी दलों से पिछले साल जवाब मांगा. अब किसने क्या जवाब दिया था जानें-

मुफ्त चुनावी सौगात और कल्याणकारी नीतियों के बीच फर्क स्पष्ट करते हुए बीजेपी ने अपने जवाब में कहा है कि लोगों को मकान और मुफ्त राशन देने का अलग उद्देश्य है जबकि बिजली मुफ्त देना अलग बात है. 

कांग्रेस ने जवाब देते हुए कहा था कि मतदाता ऐसे चुनावी वादों पर खुद समझदारी से फैसला करता है. ऐसे मुद्दों पर अधिकार न तो चुनाव आयोग, न ही सरकार और न ही अदालतों के पास है. इसलिए आयोग के लिए इस पर फैसला करने से बचना सबसे अच्छा होगा.

दावा है कि लेफ्ट दलों में सीपीआई, सीपीएम और तमिलनाडु की सत्ताधारी डीएमके ने राय रखी कि चुनाव आयोग अपने दायरे से बाहर जाकर कदम ना उठाए. 

अकाली दल ने जरूर समर्थन करते हुए लिखा है कि सरकार बनने के बाद भी अगर कोई पार्टी अपने बड़े वादों को लागू करने में विफल रहती है, तो अगले आम चुनाव से पहले उस पार्टी के खिलाफ कुछ ठोस कार्रवाई की जानी चाहिए.

खुद चुनाव आयोग आखिर में पिछले साल कह चुका है कि मुफ्त के वादों पर रोक लगाने का अधिकार उसके पास नहीं है. तो घूमकर फिर सवाल वहीं आ जाता है कि क्या सिर्फ सियासत होगी और रास्ता कोई नहीं निकलेगा. 

Advertisement

मुफ्त के वादे वोट दिलाते हैं. इसके उदाहरण कई सारे हैं. तो इन्हीं वादों को पूरा करने के लिए होने वाले खर्च का बोझ जनता पर आता है, इसके भी कई सबूत हैं. मुफ्त में जो कुछ सरकारें देती हैं, उसका खर्च पूरा करने के लिए अलग अलग तरह तरह के टैक्स जनता पर लगाती हैं. सरकार के पास पैसा कम बचता है तो भर्तियां जल्दी-जल्दी नहीं निकालती हैं. पैसा सरकार के खजाने में कम होता है तो कर्मचारियों को वेतन वक्त पर नहीं दे पातीं. असली विकास के कामों के लिए पैसे कम पड़ते हैं. यानी नुकसान जनता का ही होता है. इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने चार हफ्ते का नोटिस दिया है. 

(आजतक ब्यूरो)

Live TV

Advertisement
Advertisement