उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की अगुवाई में जीएसटी काउंसिल की बैठक हो रही है. कोरोना काल के कारण लंबे वक्त के बाद ये बैठक इन-पर्सन हो रही है. लॉकडाउन के साये से आगे बढ़ रही अर्थव्यवस्था के बीच आम आदमी की नज़र इसपर टिकी है, क्योंकि हर बार की तरह चर्चा थी कि पेट्रोल-डीज़ल को जीएसटी के दायरे में लाने पर विचार हो सकता है. जीएसटी के दायरे में आने से लोगों को सस्ता पेट्रोल-डीजल मिल सकता था.
लेकिन इस विचार पर चर्चा शुरू होते ही कई राज्य सरकारों ने इसका विरोध शुरू कर दिया. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही खड़ा होता है कि जब राजनीतिक दल सस्ते पेट्रोल-डीजल की बात करते हैं, लेकिन पेट्रोल-डीजल को जीएसटी में लाने से सरकारें क्यों कतराती हैं?
इसी साल जून में केरल हाईकोर्ट ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान कहा था कि जीएसटी काउंसिल को पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाना चाहिए. काउंसिल को इसके लिए 6 हफ्ते का वक्त दिया गया था.
क्यों ऐसा करने से बच रही हैं सरकारें?
दरअसल, पेट्रोल और डीजल के जरिए केंद्र और राज्य सरकार को बड़ी कमाई होती है. पेट्रोल और डीजल के दाम भले ही मार्केट तय करती हो, लेकिन इसपर से केंद्र को बड़ा रेवेन्यू मिलता है. इसी तरह राज्य सरकार अपने-अपने हिसाब से पेट्रोल-डीजल पर वैट लगाती हैं, जो रेवेन्यू देता है.
ऐसे में अगर पेट्रोल और डीजल को जीएसटी की किसी एक श्रेणी में डाल दिया जाता है, तो उसपर निश्चित टैक्स ही प्राप्त होगा. जो रेवेन्यू कलेक्शन के मामले में बड़ी समस्या बन सकता है.
उदाहरण के तौर पर अगर दिल्ली में पेट्रोल के दाम का बेस प्राइस देखें तो ये करीब 40 रुपये तक बैठता है, लेकिन इसमें केंद्र की एक्साइज़ ड्यूटी, डीलर कमीशन, राज्य का वैट जोड़ दिया जाए तो जाकर ये दाम 100 रुपये प्रति लीटर तक पहुंच जाता है.
इन राज्यों ने कर दिया है विरोध
जीएसटी काउंसिल की बैठक से पहले ही कर्नाटक, केरल और महाराष्ट्र ने इसका विरोध कर दिया था. केरल के वित्त मंत्री ने साफ किया था कि इस तरह के किसी भी कदम का विरोध किया जाएगा, अगर पेट्रोल-डीजल को इसमें डाला जाता है तो राज्य को 8 हजार करोड़ रुपये का घाटा होगा.
खास बात ये है कि बीजेपी शासित कर्नाटक भी पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने के खिलाफ खड़ा है. महाराष्ट्र की ओर से कहा गया है कि केंद्र सरकार को राज्य के फैसलों में दखल नहीं देना चाहिए.