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कभी भारत को ऑफर हुआ था पाकिस्तान का ग्वादर, जानिए क्यों नेहरू ने कर दिया लेने से इनकार

1950 के दशक में ग्वादर मछली पकड़ने का एक छोटा सा गांव था तब ओमान ने उसे भारत को बेचने की पेशकश की थी. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार ने इस ऑफर को ठुकरा दिया और 1958 में पाकिस्तान ने इसे तीन मिलियन पाउंड में खरीद लिया. आज वही ग्वादर,जो भारत का हो सकता था, वह एक अहम रणनीतिक बंदरगाह है. 

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कभी भारत को मिलने वाला था CPEC वाला ग्वादर पोर्ट
कभी भारत को मिलने वाला था CPEC वाला ग्वादर पोर्ट

1974 में इंदिरा गांधी की सरकार ने जिस 'कच्चातिवु' द्वीप को श्रीलंका को दे दिया था वह इस  लोकसभा चुनाव के दौरान मुद्दा बन गया है. बीजेपी और कांग्रेस इसे लेकर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं. इन सबके बीच शायद कम लोगों को यह जानकारी होगी कि बेशकीमती पाकिस्तानी बंदरगाह शहर ग्वादर कभी भारत को मिलने वाला था. ओमान द्वारा 1950 के दशक में इसे भारत को बेचने की पेशकश गई की थी लेकिन तब नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था.

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उस समय ग्वादर मछुआरों और व्यापारियों का एक छोटा-सा शहर हुआ करता था. हथौड़े के आकार वाला मछली पकड़ने वाला गांव आज पाकिस्तान का तीसरा सबसे बड़ा बंदरगाह है.  चीन की मदद से यहां ना केवल विकास को रफ्तार मिली है बल्कि यह रणनीतिक रूप से भी बेहद अहम हो गया है. ग्वादर 1783 से ओमान के सुल्तान के कब्जे में रहा और 1950 के दशक तक ग्वादर पर लगभग 200 वर्ष तक ओमान का शासन रहा था. 1958 में पाकिस्तान के कब्जे में आने से पहले इसे भारत को बेचने की पेशकश की गई थी लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने इस ऑफर को ठुकरा दिया.

तो क्या नेहरू की रणनीतिक भूल थी?

हालाँकि, कश्मीर "ब्लंडर", "तिब्बत को चीन के हिस्से के रूप में स्वीकार करना" (1953 और 2003) और कच्चातिवु श्रीलंका को देना (1974) के उलट ग्वादर प्रस्ताव को ठुकराना सामान्य कदम नहीं था. ब्रिगेडियर गुरुमीत कंवल (सेवानिवृत्त) ने 2016 के ओपिनियन पीस 'द हिस्टोरिक ब्लंडर ऑफ इंडिया नो वन टॉक्स अबाउट' (भारत की ऐतिहासिक भूल पर कोई बात नहीं करता है) में कहा, "ओमान के सुल्तान से अमूल्य उपहार स्वीकार न करना आजादी के बाद की रणनीतिक भूलों की लंबी लिस्ट में एक और बड़ी गलती थी." ग्वादर के हाथ से फिसलने की यह कहानी से कुछ सवाल तो जरूर खड़े होते हैं कि आखिर कैसे ओमान की संकरी खाड़ी के पार एक छोटा सा मछली पकड़ने वाला शहर ओमानी सुल्तान के अधीन हो गया? जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत सरकार ने इस बंदरगाह शहर को स्वीकार करने से इनकार क्यों कर दिया? अगर 1956 में भारत ने ग्वादर पर कब्ज़ा कर लिया होता तो आगे क्या क्या होता?

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ग्वादर पर ओमान का कब्ज़ा कैसे हुआ?
पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के मकरान तट पर स्थित, ग्वादर पहली बार 1783 में ओमानी कब्जे में आया था. कलत के खान, मीर नूरी नसीर खान बलूच ने इस क्षेत्र को मस्कट के राजकुमार, सुल्तान बिन अहमद को उपहार (Gift) में दिया था. यूरेशिया ग्रुप के दक्षिण एशिया प्रमुख प्रमित पाल चौधरी IndiaToday.In को बताते हैं, "राजकुमार सुल्तान और कलत के खान दोनों ने यह सोचा कि अगर राजकुमार ओमान की गद्दी पर बैठा, तो वह ग्वादर को वापस लौटा देगा."

1. Omani Qila was built in 1880 the Omani rule in Gwadar. (Image: Getty) 2. A surviving building from the Omani rule in the old city of Gwadar, Balochistan, Pakistan. (Image: Getty)

('द इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज़' पत्रिका में 1863 में ग्वादर की एक तस्वीर (फोटो: Getty))
(पाकिस्तान के बलूचिस्तान के पुराने शहर ग्वादर में ओमानी शासन की एक इमारत(फोटो:Getty)

पाकिस्तानी तट पर ग्वादर से सटे दो अन्य मछली पकड़ने वाले गांव पेशुकन और सुर बंदर भी ओमानी के कब्जे में थे. सुल्तान बिन अहमद ने 1792 तक, तट के उस पार अरब पर आक्रमण के लिए ग्वादर को तब तक अपना बेस बनाए रखा, जब तक कि उसने मस्कट के सिंहासन पर कब्ज़ा नहीं कर लिया. लेकिन, ग्वादर को कलत के खान को वापस नहीं किया गया जिससे दोनों के बीच विवाद पैदा हो गया.

आर्किविस्ट मार्टिन वुडवर्ड के लेख 'ग्वादर: द सुल्तान पजेशन' के अनुसार, 1895 और 1904 के बीच कलत के खान और (ब्रिटिश) इंडिया सरकार दोनों की तरफ से ओमान से ग्वादर खरीदने के लिए प्रस्ताव दिए गए, लेकिन कोई फैसला नहीं लिया गया. 1763 से ग्वादर को एक ब्रिटिश सहायक राजनीतिक एजेंट द्वारा प्रशासित किया गया  लेकिन इस क्षेत्र में तेल भंडार होने की अटकलों के बीच कलत के खान अक्सर ग्वादर को उन्हें सौंपने की मांग करते थे.

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इस बीच, ओमान के सुल्तान भी विद्रोहियों के खिलाफ सैन्य और वित्तीय मदद के बदले में संभावित हैंडओवर के बारे में अंग्रेजों के साथ बातचीत करते रहे. यह वही कलत का खान था जिसने बलूचिस्तान पर तब तक शासन किया था, जब तक कि इसे मार्च 1948 में मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में बने नए स्वतंत्र पाकिस्तान की ओर से कब्जा नहीं कर लिया गया था.

प्रमित पाल चौधरी IndiaToday.In को बताते हैं, "बलूचिस्तान का अधिकांश हिस्सा 1948 में पाकिस्तान द्वारा अपने हिस्से शामिल कर लिया गया था, लेकिन ग्वादर के आसपास की तटीय पट्टी, जिसे मकरान कहा जाता है, 1952 तक पाकिस्तान में शामिल नहीं हुआ था." ग्वादर अभी भी पाकिस्तानी नियंत्रण से बाहर है.

Aerial view of the Gwadar and the port, from 2013, that came up with Chinese investment in Pakistan. (Image: Getty)

ग्वादर और पोर्ट का एरियल व्यू (तस्वीर: Getty)

जब ओमान ने भारत को ग्वादर बेचने की पेशकश की
यही वह समय था जब ओमान के सुल्तान ने भारत को ग्वादर को बेचने की पेशकश की. यदि यह सौदा हो जाता तो दक्षिण एशियाई भू-राजनीतिक परिदृश्य और इतिहास बदल सकता था. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के पूर्व सदस्य प्रमित पाल चौधरी IndiaToday.In को बताते हैं, "दो भारतीय राजनयिकों के साथ निजी बातचीत के अनुसार, जो रिकॉर्ड से परिचित थे, ओमान के सुल्तान ने भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को ग्वादर की पेशकश की थी."

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ब्रिगेडियर गुरमीत कंवल (सेवानिवृत्त) ने अपने 2016 के लेख में लिखा, "आजादी के बाद, राजनयिक समुदाय के अनुसार, ग्वादर को ओमान के सुल्तान की तरफ से भारत द्वारा प्रशासित किया गया था क्योंकि दोनों देशों के बीच उत्कृष्ट संबंध थे." प्रमीत पाल चौधरी कहते हैं, 'मेरा मानना है कि यह प्रस्ताव 1956 में आया था. जवाहरलाल नेहरू ने इसे ठुकरा दिया और 1958 में ओमान ने ग्वादर को 3 मिलियन पाउंड में पाकिस्तान को बेच दिया.'

ब्रिगेडियर गुरमीत कंवल (सेवानिवृत्त) के अनुसार, यह प्रस्ताव संभवतः मौखिक रूप से दिया गया था. प्रमित पाल चौधरी बताते हैं, 'राष्ट्रीय अभिलेखागार में ग्वादर विवाद पर दस्तावेज़ और कुछ समाचार पत्रों के लेख हैं, लेकिन भारतीय अधिकारियों के विचारों को एडिट किया गया है.' दरअसल, भारत का जैन समुदाय ओमान से ग्वादर खरीदने में दिलचस्पी रखता था. अज़हर अहमद ने अपने पेपर 'ग्वादर: ए हिस्टोरिकल कैलिडोस्कोप' में लिखा है, "ब्रिटिश सरकार द्वारा सार्वजनिक किए गए दस्तावेज़ों से पता चलता है कि भारत में जैन समुदाय ने भी ग्वादर को खरीदने की पेशकश की थी. जैन समुदाय के पास बड़ी संपत्ति थी और वे अच्छी कीमत की पेशकश कर सकते थे."

The opening ceremony of the pilot trade programme between Pakistan and China in November 2016. Pakistan's weak economy was confident of the CPEC bailing out its economic woes. (Image: Aamir Qureshi/AFP)

नवंबर 2016 में पाकिस्तान और चीन के बीच ट्रेड कार्यक्रम के उद्घाटन की तस्वीर (फोटो: आमिर कुरेशी/एएफपी)

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अजहर ने पाकिस्तान के पूर्व विदेश सचिव, चीन और अमेरिका में पाकिस्तानी राजदूत रहे अकरम जाकी के साथ 2016 की बातचीत के आधार पर कहा " जैसे ही 1958 में पाकिस्तान को पता चला कि भारतीय भी ग्वादर को खरीदने की कोशिश कर रहे थे, तो वहां की सरकार ने अपने प्रयास तेज कर दिए और 1 अगस्त, 1958 को ब्रिटिश सरकार के साथ एक समझौता करने में सफल रही." ग्वादर को ओमान से ब्रिटिश नियंत्रण में ट्रांसफर कर दिया गया और बाद में यह हिस्सा पाकिस्तान में चला गया.

नेहरू ग्वादर को क्यों नहीं खरीदना चाहते थे?
तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ग्वादर के ओमानी प्रस्ताव को अस्वीकार का निर्णय नहीं ले सके थे. ओमानी प्रस्ताव को अस्वीकार करने का निर्णय भी परिस्थितियों से तय हुआ था. राष्ट्रीय सुरक्षा विशेषज्ञ प्रमित पाल चौधरी IndiaToday.In को बताते हैं, "तत्कालीन विदेश सचिव, सुबिमल दत्त और संभवतः भारतीय खुफिया ब्यूरो प्रमुख, बी एन मलिक ने सुल्तान के प्रस्ताव को स्वीकार न करने की सिफारिश की थी."

यदि नेहरू ने ग्वादर को स्वीकार कर लिया होता और खरीद लिया होता, तो यह पाकिस्तान में बिना किसी की लैंड एक्सेस का भारतीय क्षेत्र होता. स्थिति वैसी ही होती जैसे पाकिस्तान को पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के साथ तार्किक रूप से सामना करना पड़ा था. प्रमित पाल चौधरी बताते हैं,"तर्क यह था कि ग्वादर पाकिस्तान के किसी भी हमले से बचाव योग्य नहीं था. नेहरू अभी भी पाकिस्तान के साथ एक सौहार्दपूर्ण संबंध बनाने की उम्मीद कर रहे थे." 

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आज, लगभग 65 साल बाद, "ओमान के सुल्तान के अमूल्य उपहार" के हाथ से छूटना एक कूटनीतिक भूल की तरह लग सकती है, जबकि अन्य लोगों की धारणा हो सकती है कि यह तो उस समय यह एक सूक्ष्म और व्यावहारिक बात थी.

हथौड़े के आकार के ग्वादर का सामरिक महत्व
ग्वादर, ओमान की खाड़ी की ओर देखने वाला रणनीतिक बंदरगाह, लंबे समय से वैश्विक शक्तियों की रुचि को बढ़ा रहा है. पाकिस्तान लंबे समय से ग्वादर को एक गहरे पानी के बंदरगाह के रूप में विकसित करने के लिए सर्वेक्षण कर रहा था, लेकिन यह अंततः 2008 में एक वास्तविकता बन गया. ग्वादर का कायापलट चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) की वजह से हुआ. चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (China-Pakistan Economic Corridor) परियोजना में ग्वादर बंदरगाह बेहद महत्वपूर्ण है. ये अरब सागर तक चीन की पहुंच के लिए बेहद अहम बंदरगाह है.

2021 में ग्वादर बंदरगाह को लेकर हुआ था समझौता
2021 में पाकिस्तान और चीन ग्वादर बंदरगाह को CPEC के तहत लाने के लिए राजी हुए थे. दोनों देशों ने मिलकर ये समझौता किया था कि वो ग्वादर बंदरगाह की पूरी क्षमता का CPEC के तहत इस्तेमाल करेंगे जिससे पाकिस्तान और चीन, दोनों को फायदा होगा.CPEC प्रोजेक्ट पाकिस्तान के बलूचिस्तान में ग्वादर पोर्ट को चीन के शिंजियांग प्रांत से जोड़ता है. ये चीन की महत्वाकांक्षी अरबों डॉलर की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) की प्रमुख परियोजना है. चीन-पाकिस्तान के बीच CPEC परियोजना की शुरुआत साल 2013 में हुई थी. इसके तहत, चीन पाकिस्तान में कई आधारभूत परियोजनाओं में निवेश कर रहा है. 

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चीन ने CPEC की शुरुआत में कहा था कि वो इस प्रोजेक्ट में 46 अरब डॉलर निवेश करेगा लेकिन 2017 के आते-आते परियोजना की कीमत 62 अरब डॉलर हो गई.भारत शुरुआत से ही CPEC का विरोध करता आया है क्योंकि ये प्रोजेक्ट पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से होकर गुजरता है. भारत इस क्षेत्र में किसी भी तरह के विदेशी निवेश को अस्वीकार्य बताता है.


यदि नेहरू ने ग्वादर प्रस्ताव को अस्वीकार नहीं किया होता तो क्या होता?

यह एक अहम सवाल है. यदि जवाहरलाल नेहरू ने ओमान का गिफ्ट स्वीकार कर लिया था, तो क्या ग्वादर ने भारत के रणनीतिक और आर्थिक हितों के लिए कोई अनुकूल परिणाम दिया था? प्रमित पाल चौधरी ने IndiaToday.In को बताते हैं, अगर भारत ने ओमान से ग्वादर खरीदा होता, तो यह बचाव योग्य होता, लेकिन केवल थोड़े समय के लिए होता.'

चौधरी कहते हैं, 'ग्वादर का भगौलिक और जमीन स्थित रणनीतिक रूप से अहम तो है लेकिन इसकी कमज़ोरी भी है.  यह एक हथौड़े के समान एक प्रांत पर टिका हुआ है, जो मुख्य भूमि से एक पतली स्थलडमरूमध्य (800 मीटर चौड़ा) से जुड़ा हुआ है, जो सैन्य पहुंच में बाधा डालता है. शहर को समुद्र या हवाई मार्ग से आपूर्ति करने की आवश्यकता होगी, जो उस समय भारत के लिए मुश्किल होता.' हालांकि चौधरी का मानना है कि "कश्मीर जैसे अधिक महत्वपूर्ण विवाद पर राजनयिक सौदेबाजी के साधन के रूप में ग्वादर अधिक उपयोगी होता.

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