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Memories of Independence Day: 14-15 अगस्त 1947 की रात की आंखों देखी... वो रात-वो सुबह जब आजाद मुल्क भारत ने ली पहली करवट

Memories of 15 August 1947: आज हमें आजाद हुए 75 साल हो गए. एक मुल्क आजादी के पहले पल में क्या महसूस करता है, कैसी रही होगी आजादी की वो रात...वो पहली सुबह? जब लोगों ने पहली बार दिल्ली की इमारतों पर तिरंगे को लहराते हुए देखा होगा. जब हमारे मुल्क ने एक पल में अंग्रेजी राज की तीन शताब्दियों की धूल चेहरे से पोंछ दी होगी. हम आपको 14-15 अगस्त 1947 की रात और अगली सुबह के उन मोमेंट्स को जीवंत रूप से पेश करेंगे ताकि आप भी उस पल को महसूस कर सकें.

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memories of 15 August 1947 (File Photo)
memories of 15 August 1947 (File Photo)

देश आज आजादी की 75वीं वर्षगांठ (75th independence day) का जश्न मना रहा है. हाथों में तिरंगा और जुबां पर जय हिंद के नारे लिए आज हर हिंदुस्तानी उस रात के बारे में जानना चाहता है जब हमारे पूर्वजों ने पहली बार एक आजाद मुल्क में सांस ली होगी. कैसी रही होगी 14-15 अगस्त 1947 की रात. कैसा रहा होगा अपनी दिल्ली का नजारा? कैसे पूरी रात जागकर देश भर में लोगों ने एक आजाद होते हुए देश को न सिर्फ देखा होगा बल्कि जिया भी होगा. कैसे अंग्रेजी शासन के खौफ से पीछा छुड़ाकर खुद के पैरों पर खड़े होकर भारत ने एक रात में शताब्दियों के गर्द-ओ-ग़ुबार झाड़कर फेंक दिए होंगे? कैसी रही होगी वो रात और वो आजादी की पहली सुबह?

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मशहूर लेखक डोमिनिक लैपीयरे और लैरी कॉलिन्स अपनी किताब 'फ्रीडम एट मिडनाइट' में 14 अगस्त 1947 के ऐतिहासिक दिन का चित्रण करते हुए लिखते हैं- 'सैन्य छावनियों, सरकारी कार्यालयों, निजी मकानों आदि पर फहराते यूनियन जैक को उतारा जाना शुरू हो चुका था. 14 अगस्त को जब सूर्य डूबा तो देश भर में यूनियन जैक ने ध्वज-दण्ड का त्याग कर दिया, ताकि वह चुपके से भारतीय इतिहास के भूत-काल की एक चीज बन कर रह जाए. समारोह के लिए आधी रात को धारा सभा भवन पूरी तरह तैयार थी. जिस कक्ष में भारत के वायसरायों की भव्य ऑयल-पेंटिंग्स लगी रहा करती थीं, वहीं अब अनेक तिरंगे झंडे शान से लहरा रहे थे.'

लैपीयरे और कॉलिन्स लिखते हैं- '14 अगस्त की सुबह से ही देश के शहर-शहर, गांव-गांव में जश्न शुरू हो गया था. दिल्ली के वाशिंदे घरों से निकल पड़े. साइकिलों, कारों, बसों, रिक्शों, तांगों, बैलगाड़ियों, यहां तक हाथियों-घोड़ों पर भी सवार होकर लोग दिल्ली के केंद्र यानी इंडिया गेट की ओर चल पड़े. लोग नाच-गा रहे थे, एक-दूसरे को बधाइयां दे रहे थे और हर तरफ राष्ट्रगान की धुन सुनाई पड़ रही थी.'

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'चारों दिशाओं से लोग दिल्ली की ओर दौड़े चले आ रहे थे. तांगों के पीछे तांगे, बैलगाड़ियों के पीछे बैलगाड़ियां, कारें, ट्रकें, रेलगाड़ियां, बसें सब लोगों को दिल्ली ला रही थीं. लोग छतों पर बैठकर आए, खिड़कियों पर लटककर आए, साइकिलों पर आए और पैदल भी, दूर देहात के ऐसे लोग भी आए जिन्हें गुमान तक नहीं था कि भारत देश पर अब तक अंग्रेजों का शासन था और अब नहीं है. लोग गधों पर चढ़े, घोड़ों पर चढ़े. मर्दों ने नई पगड़ियां पहनीं, औरतों ने नई साड़ियां. बच्चे मां-बाप के कंधों पर लटक गए. देहात से आए बहुत से लोग पूछ रहे थे कि यह धूम-धड़ाका काहे का है? तो लोग बढ़-बढ़ कर बता रहे थे- अरे, तुम्हे नहीं मालूम, अंग्रेज जा रहे हैं. आज नेहरूजी देश का झंडा फहराएंगे. हम आजाद हो गए.'

'गांव-देहात से आए लोग अपने बच्चों को आजादी का मतलब अपने-अपने हिसाब से समझा रहे थे कि अब अंग्रेज चले गए. अब हमारे पास ज्यादा पशु होंगे, अब हमारे खेतों में ज्यादा फसल हुआ करेगी, अब कहीं आने-जाने पर रोक नहीं रहेगी, ग्वालों ने अपनी पत्नियों से कहा कि अब गायें ज्यादा दूध देंगी, क्योंकि आजादी मिल गई है. लोगों ने बसों में टिकट खरीदने से इनकार कर दिया, भला आजाद मुल्क में भी कोई टिकट लगा करते हैं. आजादी का समारोह देखने आया एक भिखारी उस विभाग में दाखिल होने लगा, जो विदेश के राजनीतिज्ञों के लिए आरक्षित था. जब सिपाही ने पूछा कि तुम्हारा आमंत्रण पत्र कहां है? तो वह चकित हो गया. 'आमंत्रण'? उसने कहा- अब कैसा आमंत्रण? हम आजाद हो गए हैं. समझे! अब कोई बड़ा-छोटा नहीं होगा. सब बराबर होंगे... सबकी आंखों में आजाद भारत को लेकर अपनी एक समझ थी, अपनी एक सोच थी, अपना एक सपना था... क्योंकि इनमें से कोई भी कभी आजाद मुल्क में नहीं रहा था. लोग देखना चाहते थे कि एक आजाद मुल्क होता कैसा है?'

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मशहूर लेखक राजेंद्र लाल हांडा ने अपनी 'किताब दिल्ली में दस वर्ष' में वर्ष 1940 से 1950 के बीच की दिल्ली की जिंदगी, सत्ता के गलियारों में हो रहे बदलावों और सामाजिक-आर्थिक पहलूओं पर काफी विस्तार से लिखा है. आजादी की रात की आंखों देखी लिखते हुए उन्होंने धारासभा की भीड़ और लोगों के उत्साह का भरपूर चित्रण किया है. वे लिखते हैं- ''रात के लगभग दो बजे स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू धारा सभा से निकल कर वायसराय भवन की ओर गवर्नर जनरल को आमंत्रित करने गए. स्वतंत्रता के उत्साह में भीड़ भी उनके पीछे-पीछे हो ली. खाली स्थान था ही नहीं और जनसमूह इतना बड़ा था कि यह पता लगाना असंभव था कि लोग किधर जा रहे हैं.

कुछ देर बाद प्रधानमंत्री गवर्नर जनरल को साथ ले धारा सभा भवन में आ गए. उस समय लोगों का जोश चरम सीमा को पहुंच चुका था. नेताओं के अभिनंदन में बराबर नारे लगाए जा रहे थे. उस समय सभी कुछ नवीन और अपूर्व दिखाई देता था- अपूर्व समारोह, अपूर्व दृश्य, अपूर्व उत्साह, अपूर्व देशभक्ति और अपूर्व जनसमूह.

धारासभा भवन में ही नहीं, उसके बाहर हरी घास पर, सड़कों पर, सेक्रेटेरियट के सामने विशाल मैदान में तिल रखने की भी कहीं जगह दिखाई न देती थी. ऐसी भीड़ तो लोगों ने प्रायः देखी होगी, पर आधी रात को किसी भी स्थान पर किसी समय दो तीन लाख आदमी इकट्ठे न हुए होंगे. दिल्ली ने अतीत में अनेक उत्सव, अनेक पर्व देखें. बड़े-बड़े चक्रवर्ती दिग्विजयी सम्राटों के समारोह देखे लेकिन अतीत के वे सभी महोत्सव उस महान पर्व के आगे फीके पड़ गए, जो दिल्ली के लोगों ने 14-15 अगस्त 1947 की रात को देखा. उस रात दिल्ली में स्वतंत्रता का अवतरण हुआ. ठीक आधी रात के समय जिस क्षण 15 अगस्त के दिन ने जन्म लिया. लाखों नर-नारियों को ऐसा आभास हुआ मानों गंगा की तरह स्वर्ग से स्वतंत्रता धरती पर उतर रही हो.''

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डोमिनिक लैपीयरे और लैरी कॉलिन्स लिखते हैं- ''नेहरू के ऐन सामने खद्दरधारियों की जो भीड़ उस भवन में ठसाठस बैठी थी, वह उस राष्ट्र की जनता का प्रतिनिधित्व कर रही थी, जिसका जन्म उस आधी रात को बस होने ही वाला था. वे तमाम प्रतिनिधि परस्पर इतने भिन्न थे, लेकिन उस भिन्नता के बावजूद अब वे इतने एक होने जा रहे थे कि अनेकता में एकता की वैसी मिसाल विश्व में अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलेगी. संविधान सभा के समक्ष नेहरू प्रस्ताव रख रहे थे कि ज्यों ही आधी रात की टंकार समाप्त होगी, हम सब उठ पड़ेंगे और भारतीय जनता की अधिकतम सेवा करने की शपथ लेंगे.

सभा भवन से बाहर, आधी रात के आकाश में अचानक बिजली कड़क उठी और मॉनसूनी बारिश टूट पड़ी. भवन को चारों तरफ से हजारों भारतीयों ने घेर रखा था. वे भीगने लगे. चुपचाप, क्षण-क्षण नजदीक आ रही उस आधी रात की संभावना ने उन्हें इतना रोमांचित और तन्मय कर रखा था कि भीगने का उन्हें पता ही नहीं चल रहा था. आखिरकार आधी रात की वह टंकार शुरू हुई. जिसने एक दिन के समापन और साथ में एक युग के भी समापन की घोषणा कर दी. टंकार के दौरान कोई व्यक्ति बिल्कुल भी न हिला. फिर नेहरू के शंखनाद ने एक बड़े साम्राज्य के अंत और भारत भूमि पर एक नए युग के सूत्रपात की घोषणा कर दी. समारोह एकदम भव्य था. नेहरूजी सूती जोधपुरी पायजामे और बण्डी में थे. वल्लभभाई पटेल सफेद धोती में प्रकट हुए थे.''

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आर. एल. हांडा लिखते हैं- ''रात तीन बजे तक शपथ-ग्रहण आदि के बाद समारोह समाप्त हो गया. कुछ लोग घरों को वापस हो लिए, बहुत से हरे लॉनों और फुटपाथों पर सो रहे. अगले दिन यानी 15 अगस्त की सुबह आठ बजे पं. जवाहरलाल नेहरू ने लाल किले पर यूनियन जैक की जगह भारत का तिरंगा झंडा फहराया. दिल्ली हजारों साल का पुराना शहर है.

अपने इतिहास में उसने एक स्थान में इतना विशाल जनसमूह निश्चय ही कभी नहीं देखा होगा, जितना उस दिन लाल किले के आस-पास आ जुटा था. स्थानीय पत्रों तथा सरकारी अनुमानों के अनुसार, वहां 10 लाख से कम आदमी नहीं थे. दिल्ली गेट से लेकर कश्मीरी गेट तक और जामा मस्जिद से लाल किले तक कहीं सड़क या भूमि दिखाई नहीं देती थी. सिवाय एक अपार जनसमुदाय के और कुछ नहीं था. इस भीड़ को विसर्जित होने में चार घंटे लगे. सभी सड़कें प्रायः एक बजे दोपहर तक भीड़ से खचाखच भरी रहीं.

आजादी की पहली सुबह का ये जश्न आधी रात से ही जारी था. 14-15 अगस्त की आधी रात के जश्न ने लोगों को उत्साहित कर दिया था. उस रात को 'जन गण मन' और 'वंदेमातरम' के राष्ट्रीय गीतों की मधुर ध्वनि कैसी स्वर्गीय सी जान पड़ती थी. ये गीत पहले भी अनेकों बार सुने थे, किन्तु उस रात तो एक-एक शब्द मानों पुकार-पुकार कर अपना अर्थ भी श्रोताओं के कानों में कह रहा था. उस रात वास्तव में शस्यश्यामला, बहुबल घारिणी, रिपुदल वारिणी आदि विशेषणों के ठीक अर्थ समझ में आए. जब 'जन गण मन' आरम्भ हुआ तो इसकी ललित लय में हजारों सिर हिल उठे. किन्तु जैसे ही राष्ट्र गान में पंजाब और सिंध का उल्लेख हुआ एकत्रित भीड़ में सैंकड़ों आदमियों ने सिर उठाकर एक-दूसरे को देखा. वहां उपस्थित जनों को सहसा विभाजन की टीस याद आ गई जो दूसरी ओर पाकिस्तान नाम के मुल्क के रूप में मूर्त रूप ले चुकी थी और सरहदों पर हिंसा को जन्म दे चुकी थी.''

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