महाकुंभ जैसे बड़े आयोजन हमेशा से आश्चर्य का विषय रहे हैं. प्रयागराज में आयोजिक महाकुंभ को उत्तर प्रदेश की योगी सरकार बड़े पैमाने पर आयोजित कर रही है, जिसके लिए कई महीनों की तैयारी के साथ प्रशासनिक व्यवस्था तैयार की गई है. कुंभ के इतिहास को देखें तो भारत में सत्ता कोई भी रही है और सल्तनत चाहे किसी की रही हो कुंभ के आयोजनों पर कभी भी कोई असर नहीं पड़ा है. यह परंपरा इतनी प्राचीन है कि इसका ब्योरा और लेखा-जोखा एक अलग ही और भारी-भरकम काम है.
अंग्रेजों ने कुंभ को बनाया था बिजनेस मॉडल
अंग्रेजों ने जब महाकुंभ जैसी व्यवस्था देखी तो वह बहुत चकित हुए और पहले कई साल तो उन्होंने अपने कई अफसर सिर्फ इसकी रिपोर्ट तैयार करने के लिए लगाए. इसी समझ के आधार पर उन्होंने इसे एक बड़े बिजनेस मॉडल के तौर पर ही देखा. पहले तो उन्होंने कई कुंभ के आयोजन को देखकर समझा, फिर इसे पर टैक्स भी लगाए. ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने न सिर्फ कुंभ पर टैक्स लगाए, बल्कि इसके आयोजन के लिए धनराशि भी लगाई और फिर इससे रेवेन्यू भी पैदा किया.
इस तरह कुंभ मेला राजस्व का जरिया भी बना. कुंभ मेले के आयोजन से न केवल सांस्कृतिक और आध्यात्मिक लाभ होता है, बल्कि इसका सरकारों के राजस्व पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. यह कोई नई बात नहीं है. इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि जब से कुंभ मेलों में सरकार का दखल बढ़ा, तब से राजस्व का लाभ भी अस्तित्व में आ गया.
पत्रकार व लेखक धनंजय चोपड़ा अपनी किताब (भारत में कुंभ) में इस बात का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि, 'कुंभ मेले से राजस्व वसूली की परंपरा मुगलकालीन भारत में शुरू हुई थी. बाद में अंग्रेजों ने इसे न केवल जारी रखा, बल्कि इसका दायरा भी बढ़ा दिया. अंग्रेजी शासनकाल में कर्मकांड कराने वालों से लेकर वेणीदान की परंपरा निभाने वालों तक से कर वसूला गया.'
1862 में कुंभ में लगाए गए थे कई टैक्स
इस बारे में प्रयागराज के क्षेत्रीय अभिलेखागार में रखे दस्तावेजों में अंग्रेजी शासनकाल में आयोजित कुंभ मेलों से जुड़ी कई महत्वपूर्ण जानकारियां दर्ज हैं. इनमें वर्ष 1862 के कुंभ मेले के खर्च और आय का ब्योरा भी शामिल है. उस समय उत्तर-पश्चिम प्रांत के सचिव एआर रीड की रिपोर्ट के अनुसार, इस कुंभ मेले में 20,228 रुपये खर्च हुए थे, जबकि राजस्व के रूप में अंग्रेजी सरकार को 49,840 रुपये हासिल हुए थे. यानी, सरकार को 29,612 रुपये का शुद्ध लाभ हुआ था.
इसके अलावा, वर्ष 1894 और 1906 के कुंभ मेलों के दौरान हुए आय-व्यय का लेखा-जोखा भी अभिलेखों में दर्ज है. इनका ब्योरा तत्कालीन मजिस्ट्रेट एच.वी. लॉवेट ने तैयार किया था. वर्ष 1894 के मेले में विभिन्न स्रोतों से 67,306 रुपये 11 आने 3 पैसे का राजस्व प्राप्त हुआ.
साल 1894 में किससे मिला था कितना राजस्व
स्रोत | राजस्व (रुपये) |
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नाइयों से | 1,332 |
फूल बेचने वाले | 1,600 |
दूध बेचने वाले | 1,064 |
नाविक | 3,311 |
गाड़ियाँ चलाने वाले | 1,877 |
टैक्सी ड्राइवर | 2,995 |
कलाकृतियों की बिक्री | 1,125 रुपये 14 पैसे |
इसी तरह, वर्ष 1906 के कुंभ मेले में सरकार को कुल 62,342 रुपये 4 आने 6 पैसे का राजस्व हासिल हुआ था.
स्रोत | राजस्व (रुपये) |
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कुंभ टिकटों से | 20,114 रुपये 8 आने |
नाइयों से | 2,348 |
वेणीदान करने वालों से | 1,301 |
नाविकों से | 3,435 |
टैक्सी ड्राइवरों से | 2,995 |
पुरानी कलाकृतियों की बिक्री | 3,369 रुपये 12 आना 8 पैसे |
कुंभ में अंग्रेजों ने नाइयों पर लगाया था बड़ा कर
कुंभ में स्नान के बाद बाल मुंडवाने की परंपरा भी रही है. 1870 में ब्रिटिशों ने 3,000 नाई केंद्र स्थापित किए थे और उनसे लगभग 42,000 रुपये आए थे. इस राशि का लगभग एक चौथाई हिस्सा नाईयों से लिया गया था, प्रत्येक नाई को 4 रुपये टैक्स देना पड़ता था. उस समय की ब्रिटिश ट्रैवलर फैनी पार्क्स लिखती हैं कि, '1765 में इलाहाबाद की सत्ता ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में आ गई थी. 1801 में कंपनी ने इसे औपचारिक रूप से अपने अधिकार में ले लिया.
ब्रिटिश शासन के शुरुआती दौर में मेला उनके लिए एक चुनौतीपूर्ण प्रबंधन का विषय था, लेकिन जल्द ही उन्होंने इसे आर्थिक अवसर के रूप में देखा. उन्होंने स्नान के लिए एक रुपया कर वसूलना शुरू किया, जो उस समय एक बड़ी रकम थी. यह कर स्थानीय लोगों और तीर्थयात्रियों के लिए असहनीय था. इसके बावजूद ब्रिटिश प्रशासन ने मेले को संगठित रूप देने के लिए नियम बनाए.