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रेवड़ी... महाभारत से मुगलिया सल्तनत और रार से राजनीति तक में खूब बंटी! जानें इस मिठाई का इतिहास

राजनीति में अब 'रेवड़ी कल्चर' कोई नया शब्द नहीं है. न ही ये किसी एक राजनीतिक दल तक सीमित है. चुनावी नतीजे भी बताते हैं कि मुफ्त की रेवड़ी अब जीत हासिल करने के लिए एक बड़ा हथियार है. दिल्ली चुनाव में तो बाकायदा 'रेवड़ी पर चर्चा' का अभियान भी देखने को मिला. ऐसे में रेवड़ी की सियासी मिठास के बीच इस मिठाई की यात्रा को जानना दिलचस्प है.

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जानें रेवड़ी मिठाई की यात्रा. (सांकेतिक तस्वीर)
जानें रेवड़ी मिठाई की यात्रा. (सांकेतिक तस्वीर)

राजनीति में अब 'रेवड़ी कल्चर' कोई नया शब्द नहीं है. न ही ये किसी एक राजनीतिक दल तक सीमित है. चुनावी नतीजे भी बताते हैं कि मुफ्त की रेवड़ी अब जीत हासिल करने के लिए एक बड़ा हथियार है. दिल्ली चुनाव में तो बाकायदा 'रेवड़ी पर चर्चा' का अभियान भी देखने को मिला. ऐसे में रेवड़ी की सियासी मिठास के बीच इस मिठाई की यात्रा को जानना दिलचस्प है. आइए जानते हैं कि इस मिठाई का इतिहास क्या है, क्यों ये इतनी फेमस है और क्यों आज भी ये चर्चा में है...

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दुनिया जब चीनी से अनजान थी तब से रेवड़ी फैला रही थी मिठास

गिफ्ट कल्चर के रूप में रेवड़ी हर दौर में प्रासंगिक रही है. दरअसल, इस मिठाई की शेल्फ लाइफ बहुत शानदार है और इसे कहीं भी आसानी से ले जाया जा सकता था. इसलिए इसे गिफ्ट के लिहाज से काफी लोकप्रियता मिली थी. रेवड़ी का जिक्र हड़प्पा, महाभारत, मुगलकाल से लेकर अबतक देखा जाता है. यानी रेवड़ी इस बात का भी प्रमाण है कि भारत में शुगर क्राफ्ट का तब बोलबाला था जब पश्चिमी दुनिया में चीनी को लेकर कोई जानकारी ही नहीं थी.

हजारों साल पुरानी है रेवड़ी

भारत में रेवड़ी का इतिहास हजारों साल पुराना बताया जाता है. हड़प्पा में 2000 ईसा पूर्व के तिल के एक जले हुए ढेर की खोज की गई थी. साथ ही गेहूं और मटर के जले हुए दानों के साथ यह संकेत मिल सकता है कि तिल और अन्य अनाज जलाने की परंपरा रही है. 

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महाभारत में भी मिलता है जिक्र

इतिहासकार केटी अचाया अपनी किताब में जिक्र करते हैं कि महाभारत में भी तिल और गुड़ से बने व्यंजनों को बांटने की परंपरा दिखती है. प्राचीन मान्यता में निहित है कि तिल का दान श्रेष्ठ है. कहा जाता है कि यह शाश्वत पुण्य पैदा करता है. तिल और उससे जुड़े व्यंजन समाज और संबंधों के प्रतीक के रूप में रहे हैं. इसे समझने के लिए महाभारत का एक प्रसंग जानना जरूरी है...

पान, दूब, गंगा, गुड़ और तिल... इन्हें संबंधों के पांच प्रतीक बताए गए हैं. द्रौपदी के स्वयंवर में जब न्योता भेजा जा रहा था, तो ये पांच प्रतीक भेजे गए थे. ये एक पहेली भी थी. एक मिट्टी के घड़े में अग्नि रखी थी. उसके बाहरी भाग में गुड़ रखा था. इसे पान से ढका गया था और इस पूरे पात्र को दूब बिछे एक बर्तन में रखा गया था. जिसके ऊपर तिल रखे थे. 

इसी के साथ एक संदेश वाहक था. जो द्रौपदी के स्वयंवर का आमंत्रण सुनाता था. ये पात्र राज्यसभा में उस राजकुमार को सौंपा जाता था जिसे स्वयंवर में आना था.शर्त ये थी कि बिना हाथ लगे तिल उठाना है और फिर घड़े में रखी वस्तु को बाहर निकालना था. 

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जब ये पात्र हस्तिनापुर आया तो दुर्योधन बड़े ही शान में इस पात्र को उठाने चला. लेकिन जैसे ही उसने पान उठाया तो उसका हाथ जल गया. तब दूत ने कहा कि सम्हल कर युवराज, राजकुमारी द्रौपदी अग्नि सुता हैं उनमें यही आंच है. उनसे विवाह करने के लिए आपको मिट्टी और गंगाजल की तरह शीतल रहना होगा. 

अब दूसरी शर्त थी कि तिल उठाना, वो भी बिना हाथ लगाए. तब दूत ने गुड़ उठाया और तिल पर रखा जिससे वो उसमें चिपक कर उठ गया. तब दूत ने कहा कि वैवाहिक जीवन इसी तरह का होता है, जिसमें  दोनों की प्रकृति समर्पण की हो. 

दुर्योधन ने इस पहेली को अपना अपमान समझा और युद्ध की घोषणा कर दी. तब विदुर ने बात संभाली और कहा कि जो राजा आपको पान, गुड़, तिल, डूब और गंगा जल भेजे वह तो मित्र होता है, उससे युद्ध नहीं कर सकते. 

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अचाया अपनी किताब 'A Historical Dictionary of Indian Food'(1998) में जिक्र करते हैं कि ग्रीक लेखक एरिस्टोबुलस जो सिकंदर के साथ उनके अभियानों में शामिल था उसने भारत के बाजारों में रेवड़ी जैसी कोई चीज देखी थी, जिसे गुड़ से बनाया गया था. वह लिखते हैं कि कई लोगों ने 6वीं सदी में बिना भुगतान किए "तिल और शहद" से बने कई केक खाए. जो उन्हें दुनिया के किसी कोने में देखने को नहीं मिली.  

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पंजाब को लेकर भी एक कहानी मशहूर

रेवड़ी की उत्पत्ति की कहानी अलग-अलग क्षेत्रों में भी प्रचलित है. माना जाता है कि रेवड़ी का संबंध विशेष रूप से उत्तर भारत, खासकर पंजाब और दिल्ली से है. इसे सबसे पहले ग्रामीण इलाकों में तिल और गुड़ को मिलाकर बनाया गया था. 

एक लोकप्रिय धारणा के अनुसार, रेवड़ी की उत्पत्ति पंजाब क्षेत्र से हुई थी. पंजाब एक कृषि प्रधान राज्य है.वहां के किसान और श्रमिक सर्दियों के दौरान रेवड़ी खाते थे क्योंकि यह मिठाई उन्हें ऊर्जा और गर्मी प्रदान करती थी. इसे मजदूरों में बांटने का भी लंबा जिक्र मिलता है. भारत के कई मंदिरों में भी रेवड़ी को प्रसाद के रूप में बांटे जाने का जिक्र मिलता है.  

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मुगल से भी जुड़ा है इतिहास

इसी तरह रेवड़ी का एक और ऐतिहासिक संदर्भ मुगल काल से जुड़ा हुआ है. मुगल सम्राटों के दरबार में भी मीठे व्यंजन बड़े चाव से खाए जाते थे. रेवड़ी जैसी मिठाइयां विशेष अवसरों और समारोहों में बनाई जाती थीं. यह उस समय के शाही दरबार में भी एक प्रिय मिठाई बन गई थी. हालांकि, इसका विस्तार मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में ही हुआ था.

लोगों को जोड़ने के लिए मशहूर रही है रेवड़ी

रेवड़ी कल्चर की शुरुआत एक सामूहिक भावना से हुई थी. जिसमें समाज के सबसे कमजोर तबके को मिठास देने की कूव्वत थी. लोहड़ी और मकर संक्रांति जैसे कृषि से संबंधित त्योहारों में रेवड़ी की प्रासंगिकता देखी जाती है. मौसम के लिहाज से भी इस मिठाई का अपना महत्व है जो ये साबित करता है कि इकोसिस्टम का सम्मान किया जाना चाहिए.

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यह भी पढ़ें: अरविंद केजरीवाल के खिलाफ दिल्ली चुनाव में बीजेपी का 'रेवड़ी-संकल्प' कितना कारगर?

पुराणों में क्या है जिक्र

पद्म पुराण में तो कहा गया है कि तिल जिस पानी में होता है वो अमृत से भी ज्यादा स्वादिष्ट हो जाता है. इसके साथ ही 5 अन्य पुराणों में भी तिल का महत्व बताया गया है. यही नहीं, आयुर्वेद के मुताबिक तिल के तेल से मालिश करने और तिल मिले हुए पानी से नहाने से बीमारियां खत्म होती हैं.

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पुराणों में तिल विष्णु, पद्म और ब्रह्मांड पुराण में तिल को औषधि बताया गया है. इनके अलावा मत्स्य, पद्म, ब्रहन्नारदीय और लिंग पुराण में तिल से जुड़े पाशुपत, सौभाग्य और आनंद व्रत बताए गए हैं. इसके साथ ही शिव पुराण में तिल के दान करने का महत्व बताया गया है. बृहन्नारदीय पुराण में कहा गया है कि पितृकर्म में जितने तिलों का उपयोग होता है उतने ही हजार सालों तक पितर स्वर्ग में रहते हैं.

अब सियासत में खास पहचान बना चुकी है रेवड़ी

मौजूदा समय में रेवड़ी की खास पहचान सियासी हो गई है. हर चुनाव की घोषणा के साथ ही रेवड़ी कल्चर वाला बयान आपको देखने को मिल जाएगा. अब हर पार्टियां खुलकर रेवड़ी कल्चर को प्रमोट करती हैं. तर्क भी देती हैं कि इससे कमजोर तबके को मदद मिल रही है. यानी भले ही रेवड़ी अब योजनाओं के रूप में हो लेकिन उसने अपने मूल गुड़ को नहीं छोड़ा है.

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