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मिथिला की लाइफलाइन कोसी नदी कैसे बन गई बिहार का 'शोक'? 8 बार तोड़ चुकी है तटबंध

कोसी जब रौद्र रूप धारण करती है तो सबकुछ तबाह कर देती है. लाखों लोगों को बेघर होना पड़ता है. खेतों में रेत के टीले बन जाते हैं, जिससे वहां खेती करना भी मुश्किल हो जाता है. इसके रौद्र रूप को देखते हुए ही कोसी को 'बिहार का शोक' भी कहते हैं.

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कोसी नदी ने बिहार में धारण किया रौद्र रूप, लाखों लोगों पर संकट.
कोसी नदी ने बिहार में धारण किया रौद्र रूप, लाखों लोगों पर संकट.

लहलहाती फसलें, उपजाऊ जमीन... फिर बालू के ढेर से लदे खेत और बेसहारा होते लोग...ये दर्द है बिहार के उन लोगों का जो हर साल कोसी नदी के जलप्रलय की मार झेलते हैं. बिहार के लिए कोसी एक पल वरदान है तो दूसरे पल अभिशाप. कोसी इन दिनों फिर बिहार में रौद्र रूप दिखा रही है. लाखों लोगों की जिंदगी अचानक से बदल गई है. लेकिन बिहार के लिए ये 'छुई-मुई' वाली जिंदगी उनका हिस्सा है, जिसे वो हर साल झेलते हैं. वो कोसी जो शांत होकर बहती है तो किसानों को खुशहाल कर देती है वही अचानक ऐसा रौद्र रूप धारण करती है जो सबकुछ तबाह कर देती है. 

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पहले बात जीवनधारा कही जाने वाली कोसी की...

कोसी की महत्ता का जिक्र वेदों और पुराणों में भी है. फणीश्वरनाथ रेणु समेत कई लेखकों ने कोसी पर खूब लिखा है. कोसी बिहार के जिन इलाकों से बहती है वहां की जमीन खूब उपजाऊ है. फसलें लहलहाती हैं. इसीलिए कोसी को मिथिला की जीवनधारा भी कहा जाता है. इसे मिथिला की संस्कृति का पालना भी कहते हैं. लेकिन इस नदी का ये रूप जितना खुशहाल कर देने वाला है उतना ही दर्द देने वाला इसका विनाशकारी रूप भी है.

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जब रौद्र रूप धारण करती है कोसी

कोसी जब रौद्र रूप धारण करती है तो सबकुछ तबाह कर देती है. लाखों लोगों को बेघर होना पड़ता है. खेतों में रेत के टीले बन जाते हैं, जिससे वहां खेती करना भी मुश्किल हो जाता है. इसके रौद्र रूप को देखते हुए ही कोसी को 'बिहार का शोक' भी कहते हैं. इस नदी ने राज्य के बड़े इलाके में ऐसी अनिश्चितता पैदा की है कि लोग हमेशा संशय में ही रहते हैं. 

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8 बार टूट चुका है तटबंध

कोसी नदी वैसे तो हर साल तबाही मचाती है. लेकिन अबतक आठ बार कोसी का तटबंध टूट चुका है. पिछली बार 2008 में नेपाल के कुसहा में बांध टूटा था. 2008 की तबाही भला कौन भूल सकता है. लाखों लोगों को बेघर होना पड़ा था. 526 लोगों की जान गई थी. इससे पहले 1991 में भी नेपाल के जोगनिया में, 1987 में गण्डौल में, 1984 सहरसा जिले के नवहट्‌टा में, 1981 में बहुआरा में, 1971 में भटनियां में, 1968 में जमालपुर में और 1963 में डलवां में तटबंध टूटा था.

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यह भी पढ़ें: बिहार में कोसी-गंडक का जलतांडव जारी, डूब गया वाल्मिकी टाइगर रिजर्व, इन जिलों का बुरा हाल

क्यों खत्म नहीं हो रही तबाही...

नेपाल और भारत सरकार आजादी के बाद से ही कोसी की तबाही को रोकने की कोशिश में जुटे हैं. 1954 में इसे लेकर पहली बार कवायद शुरू की गई थी. तब बांधों, तटबंधों और नदी प्रशिक्षण कार्यक्रमों के जरिए बाढ़ को नियंत्रित करने की योजना बनाई गई थी. उसके बाद से कई तटबंध बनाए भी गए. पानी के बहाव को कंट्रोल करने के लिए बैराज बनाए गए. लेकिन ये तमाम कोशिशें नाकाफी साबित हो रही हैं. दरअसल, इन राहत और बचाव कार्यों को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं. 

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इस बार क्यों है बड़ा खतरा इस बार खतरा 

इसलिए ज्यादा बताया जा रहा है क्योंकि कोसी नदी पर बीरपुर (नेपाल) बैराज से 6.61 लाख क्यूसेक पानी छोड़ा गया है, जो 56 वर्षों में सबसे अधिक है. वहीं 2008 के मुकाबले करीब 3 गुना है. वहीं, ये आंकड़ा 1968 में 7.88 लाख क्यूसेक के बाद सबसे बड़ा है. वहीं, गंडक पर वाल्मिकीनगर बैराज से 5.62 लाख क्यूसेक पानी छोड़ा गया है जो 2003 के बाद सबसे अधिक है.

13 जिले बुरी तरह प्रभावित 

अधिकारियों ने बताया कि बक्सर, भोजपुर, सारण, पटना, समस्तीपुर, बेगूसराय, मुंगेर और भागलपुर सहित गंगा के किनारे स्थित लगभग 13 जिले पहले से ही बाढ़ जैसी स्थिति का सामना कर रहे हैं और मूसलाधार बारिश के बाद नदियों के बढ़ते जलस्तर से निचले इलाकों में रहने वाले लगभग 13.5 लाख लोग प्रभावित हुए हैं. प्रभावित जिलों से बड़ी संख्या में लोगों को निकालकर राहत शिविरों में पहुंचाया गया है.

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