जस्टिस हंस राज खन्ना ने 1976 में अपनी बहन से कहा था, 'मैंने वह जजमेंट तैयार कर लिया है जिसके कारण मुझे भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद गंवाना पड़ेगा.' हरिद्वार में गंगा के किनारे बैठे सुप्रीम कोर्ट के जज खन्ना उस जजमेंट का जिक्र कर रहे थे जिसे देकर वह इतिहास रचने जा रहे थे. वह आपातकाल के दिनों का एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला का केस था, जो इमरजेंसी के दौरान मौलिक अधिकारों के निलंबन से संबंधित था.
बेंच के फैसले पर जस्टिस खन्ना की असहमति काफी चर्चा में रही. आज भी न्यायिक निडरता के मामले में इस केस के जजमेंट को याद किया जाता है. हालांकि इंदिरा गांधी के खिलाफ जस्टिस एचआर खन्ना की असहमति के कारण उन्हें मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी गंवानी पड़ी, लेकिन एडीएम जबलपुर मामले में उनका रुख लगभग पांच दशकों के बाद भी गूंज रहा है. उन्होंने आपातकाल की स्थिति में भी मौलिक अधिकारों के मूल, 'जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार' (Right to Life and Liberty) को बरकरार रखा था.
भतीजे जस्टिस संजीव खन्ना बने सीजेआई
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के समय उनकी अनदेखी की और एक जूनियर जज को भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) के रूप में नियुक्त किया, जिसके बाद जस्टिस एचआर खन्ना ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के पद से इस्तीफा दे दिया था. 48 साल बाद, जस्टिस हंस राज खन्ना के भतीजे, जस्टिस संजीव खन्ना ने अपने पूर्ववर्ती जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के रिटायरमेंट के बाद सोमवार को 51वें सीजेआई के रूप में शपथ ली.
कुछ लोग सीजेआई के रूप में जस्टिस खन्ना की नियुक्ति को 'प्रकृति का चक्र पूरा होना' बता रहे हैं. सोशल मीडिया पर एक यूजर ने लिखा, 'सीजेआई का पद, न्यायमूर्ति एचएस खन्ना, 48 साल पहले डिजर्व करते थे. उनके भतीजे न्यायमूर्ति संजीव खन्ना यह पद लेंगे. यह प्रकृति के चक्र का पूरा होने जैसा लगता है.'
क्या था एडीएम जबलपुर Vs. शिवकांत शुक्ला का केस?
जनवरी 1977 में, न्यायमूर्ति एचआर खन्ना भारत के 15वें चीफ जस्टिस हो सकते थे. लेकिन उनकी जगह सुप्रीम कोर्ट के जूनियर जज न्यायमूर्ति मिर्जा हमीदुल्ला बेग को यह पद मिल गया. एडीएम जबलपुर का केस आपातकाल (1975-1977) के दौरान सामने आया जब तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने पीएम इंदिरा गांधी की सरकार की सिफारिश पर अनुच्छेद 359 के तहत मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया था.
नागरिकों, विपक्षी नेताओं, आलोचकों को बिना मुकदमे के हिरासत में ले लिया गया और उनके अधिकारों को निलंबित कर दिया गया. लिहाजा उन्होंने न्याय के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. अब उनके अधिकारों की रक्षा के लिए फैसला कोर्ट को करना था, जिसमें अनुच्छेद 21 के तहत 'जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार' भी शामिल था, जो मौलिक अधिकारों की आधारशिला है.
इंदिरा सरकार ने HC के फैसले को दी चुनौती
उच्च न्यायालयों ने फैसला सुनाया था कि आपातकाल के बावजूद, नागरिकों को न्यायपालिका के पास जाने का अधिकार है. पीएम इंदिरा गांधी की सरकार ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. सुप्रीम कोर्ट की बेंच में न्यायमूर्ति एचआर खन्ना के अलावा मुख्य न्यायाधीश एएन रे, न्यायमूर्ति एमएच बेग, वाईवी चंद्रचूड़ और पीएन भगवती शामिल थे.
भारत के अटॉर्नी जनरल निरेन डे ने कम इच्छाशक्ति के साथ सरकार का प्रतिनिधित्व किया. एडीएम जबलपुर मामले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 4:1 के बहुमत से कहा कि नागरिकों को आपातकाल के दौरान न्यायिक मदद लेने का कोई अधिकार नहीं है.
जस्टिस खन्ना ने जताई असहमति
हालांकि, असहमति जताते हुए, जस्टिस खन्ना ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संरक्षण के लिए तर्क देते हुए कहा कि आपातकाल की स्थिति के दौरान भी, 'जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार' को कम नहीं किया जा सकता है.
उन्होंने तर्क दिया कि आपातकाल के समय में भी, अदालतों को व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए. उनकी असहमति को कानून के शासन और संवैधानिक मूल्यों की साहसी रक्षा के रूप में देखा गया.
एक जजमेंट के चलते नहीं मिला CJI का पद
कुछ महीनों बाद जनवरी 1977 में, जब मुख्य न्यायाधीश एएन रे का कार्यकाल समाप्त हुआ, तो सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश न्यायमूर्ति खन्ना को नजरअंदाज कर दिया गया. इसके बजाय, न्यायमूर्ति एमएच बेग, जो एडीएम मामले में बहुमत का फैसला देने वालों में से एक थे, को भारत का मुख्य न्यायाधीश बनाया गया.
हालांकि न्यायमूर्ति एचआर खन्ना सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश थे, लेकिन 1977 में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें मुख्य न्यायाधीश के पद से वंचित कर दिया. विरोध में, न्यायमूर्ति खन्ना ने उसी दिन इस्तीफा दे दिया. संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के कारण उन्हें सीजेआई की नौकरी गंवानी पड़ी.