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1440 मिनट रोज हम सबके पास हैं... लेकिन 8 अरब लोग अपना समय कहां-कहां बिताते हैं? जानकर होगी हैरानी

दुनिया के हर देश और इलाके के इंसानों की आदतें, उसकी जीवन की स्थिति, भौगोलिक स्थिति, आर्थिक स्थिति सब अलग-अलग होती हैं लेकिन क्या आप जानते हैं इन फैक्टर्स का आपके रोज के टाइम स्पेंड हैबिट पर क्या असर होता है? हम सबके पास रोज 24 घंटे यानी 1440 मिनट ही होते हैं. लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि दुनिया के 8 अरब लोग रोजाना के इस टाइम को काफी अलग-अलग तरीके से बिताते हैं.

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समय बड़ा है बलवान...!

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आपने ये कहावत तो सुनी होगी. लेकिन क्या इसका असली मतलब जानते हैं आप? क्या आपने गौर किया है कि आप अपने रोज के एक-एक मिनट समय के इस्तेमाल का तरीका कैसे तय करते हैं? आपके आस-पास के लोग अपने टाइम स्पेंड का पैटर्न कैसे तय करते हैं? इस बारे में दुनिया में हुई स्टडीज में काफी रोचक आंकड़े सामने आए जिन्हें जानकर आप अपने टाइम स्पेंड पर फिर से विचार करने को मजबूर हो जाएंगे.

दुनिया की आबादी आज 8 अरब के पार है. इस शताब्दी की शुरुआत में दुनिया की आबादी 6 अरब थी जो कि पिछले 23 साल में 2 अरब से अभी अधिक बढ़ चुकी है. लेकिन दुनिया में हर इंसान एक दूसरे से जुदा है, हर देश का क्लाइमेट अलग है, टाइम जोन अलग है. भौगोलिक स्थितियां अलग हैं... तो जाहिर है इंसान की लाइफस्टाइल भी अलग-अलग है. लेकिन दुनिया के 8 अरब लोगों के पास एक चीज जो एक बराबर है वह है टाइम. धरती पर मौजूद हर इंसान के पास रोज 24 घंटे यानी 1440 मिनट, साल में 365 दिन यानी 8,760 घंटे ही हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि इंसानों की समय बिताने को लेकर आदतें कितनी अलग-अलग हैं?

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कुछ कॉमन पैटर्न!

क्या आप जानते हैं कि हम इंसान अपना रोज का समय कहां और किन कामों में बिताते हैं? 8 अरब लोगों में समय को लेकर कुछ आदतें तो एक समान हैं. जैसे- हम सभी रोज सोते हैं, काम करते हैं, खाना खाते हैं और फुर्सत के पल बिताते हैं. लेकिन इन एकसमान आदतों के अलावा रोज के हमारे वक्त का एक बड़ा हिस्सा है जो हर इंसान अलग-अलग तरीके से बिताता है. इन आदतों को तय करने वाले फैक्टर इंसानों की सहूलियत के अनुसार अलग-अलग हो सकते हैं.

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सोने की आदतें भी अलग-अलग

आम तौर पर हम अपने रोज के टाइम को तीन हिस्सों में बांटते हैं- काम, आराम और मनोरंजन. रोज हमारे पास 24 घंटे यानी 1440 मिनट होते हैं. इंसान रोजाना अपने समय का एक बड़ा हिस्सा सोने में बिताता है. अलग-अलग देशों के लोगों के सोने की आदतें भी काफी अलग-अलग हैं. जैसे साउथ कोरिया के लोग रोज औसतन 7 घंटे 51 मिनट सोते हैं. वहीं दूसरी ओर अमेरिका और भारत के लोगों की आदतें हैं जहां लोग औसत से एक घंटे ज्यादा वक्त सोने में बिताते हैं.

काम के घंटे, सोने और खाने की टाइमिंग अलग-अलग

काम के घंटे भी अलग-अलग देशों में काफी अलग-अलग हैं. उदाहरण के लिए चीन और मैक्सिको के लोगों का रोज का वर्क आवर इटली और फ्रांस के लोगों की तुलना में लगभग दोगुना है. यानी एक तरफ 6 घंटे तो दूसरी ओर 12 घंटे औसतन. इन देशों के बीच सांस्कृतिक कारणों से भी टाइम स्पेंड में फर्क है. जैसे फ्रेंच लोग ब्रिटिश लोगों की अपेक्षा खाने पर अधिक समय बिताते हैं. फ्रांस, ग्रीस, इटली, स्पेन जैसे देशों का फूड कल्चर ऐसा है कि लोग ज्यादा समय डाइनिंग टेबल पर बिताते हैं जबकि अमेरिका के लोग सबसे कम औसतन 63 मिनट रोजाना खाने के टेबल पर बिताते हैं.

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खेल इवेंट, कंप्यूटर गेम्स और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी इंसानों के समय बिताने के आंकड़े काफी अलग-अलग हैं. खास कर अमीर देशों में जहां लोग एक्स्ट्रा एक्टिविटीज में ज्यादा समय बिताते हैं वहां हैपीनेस इंडेक्स अधिक पाया जाता है वहीं जिन देशों में लोग पेड और सेकेंड जॉब पर ज्यादा समय देते हैं और फुर्सत के पल कम हासिल कर पाते हैं वहां लाइफ सैटिफैक्शन और हैपीनेस इंडेक्स काफी लोवर लेवल पर होता है.

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कौन से फैक्टर कैसे तय करते हैं टाइम स्पेंड?

1. जेंडर गैप

इंसानों की आदतों पर असर डालने वाले कई फैक्टर हैं जैसे देशों के अपने हालात, जैसे आर्थिक स्थितियां आदि. एक अहम फैक्टर है जेंडर गैप जो अलग-अलग देशों में लोगों की आदतों को तय करता है. जैसे अधिकांश देशों में पुरूषों के पास फुर्सत का समय ज्यादा होता है. Ourworldindata की रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार- दुनिया में नॉर्वे में पुरूषों और महिलाओं के पास फुर्सत वाले टाइम में सबसे कम गैप है. वहां पुरूषों के पास रोज 370 मिनट फुर्सत वाले हैं यानी लेजर टाइम तो वहीं महिलाओं के पास भी 360 मिनट से ऊपर का समय उपलब्ध है.

वहीं यूरोप के ही दूसरे देश पुर्तगाल में ये अंतर 50 फीसदी से अधिक का है. वहां पुरूषों के पास जहां औसत फुर्सत का टाइम 280 मिनट है तो महिलाओं के पास 200 मिनट है. भारत जैसे एशियाई देशों के लिए ये आंकड़ा काफी अलग है. पुरूषों के लिए एशियाई देशों में जहां फुर्सत का पल या लेजर टाइम रोजाना 280 मिनट का है तो वहीं महिलाओं के लिए ये 240 मिनट का है. इंसान के पास ज्यादा वक्त का मतलब है कि वह अपने शारीरिक देखभाल, फिटनेस, मानसिक स्वास्थ्य आदि पर ज्यादा फोकस रख सकता है. इसका उसकी जीवनशैली और हैपीनेस पर असर पड़ता है.

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2. एज फैक्टर

टाइम स्पेंड का दूसरा बड़ा फैक्टर सामने आया एज फैक्टर के रूप में. इंसान की एज जैसे जैसे बढ़ती जाती है वह ज्यादा सामाजिक होता जाता है यानी ज्यादा लोगों से मिलने-जुलने लगता है, सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जुड़ने लगता है. उसकी टाइम स्पेंड हैबिट एकदम बदलने लगती है. आज डिजिटल होती दुनिया में युवा आबादी के समय का एक बड़ा हिस्सा डिजिटल स्पेस पर और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बीतता है.

अंतरराष्ट्रीय पत्रिका फोर्ब्स के अनुसार, जेनरेशन Z यानी 16 से 24 साल की उम्र वाली युवा आबादी रोजाना औसतन सोशल नेटवर्क पर 3 घंटे 11 मिनट बिताती है. जबकि मध्यम उम्र के पुरूष 2 घंटे 40 मिनट, वहीं अधिक उम्र के यानी 55 साल के ऊपर के लोगों में सोशल मीडिया को लेकर उतनी ज्यादा रुचि देखने को नहीं मिलती. उनकी सोशल लाइफ ज्यादा होती है.

उम्र के अनुसार अमेरिकी परिवारों में लोगों के टाइम स्पेंड का क्या फर्क आता है उस पर सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, युवावस्था के बाद 30 साल से आगे जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है वैसे-वैसे इंसान कोवर्कर्स और दोस्तों की जगह परिवार, लाइफ पार्टनर और बच्चों के साथ ज्यादा समय बिताने लगता है. 60 साल की उम्र पार करने के बाद कोवर्कर्स के साथ इंसान कम समय बिताने लगता है और रिटायरमेंट लाइफ की ओर बढ़ता है और परिवार के साथ-साथ सोशल होने लगता है. 40 साल की उम्र के बाद इंसान अकेले में भी ज्यादा वक्त बिताने लगता है. उसकी आदतें एकांत में रहने वाली होने लगती हैं, वह स्वास्थ्य पर ज्यादा ध्यान देने लगता है और इसी के साथ उसकी रोजाना की आदतें भी बदलने लगती हैं.

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3. वर्किंग आवर...

कुछ दशक पहले तक इंसानों के कामकाज का तरीका काफी अलग था लेकिन अब आधुनिक नौकरियों ने इंसानों की रोज की लाइफस्टाइल पर काफी फर्क डाला है. आज बिजी वर्किंग आवर वाली कई नौकरियों में 14-15 घंटे तक लोग दफ्तरों में बिताते हैं. उपलब्ध रिसर्च डेटा के अनुसार, 19वीं शताब्दी तक इंसानों के लिए कोई तय वर्किंग आवर नहीं होता था, लेकिन पिछले 150 सालों में वर्किंग आवर तय हुए हैं, काम के तय घंटे घटते गए हैं, खासकर अमीर देशों में वर्किंग आवर रोज 6 घंटे तक और हफ्ते में 4 दिन के वर्किंग दिन तक तय हो गए हैं.

साल 1870 में जहां अमेरिका में सालाना वर्किंग आवर 3000 घंटे तक था यानी हर हफ्ते 60 से 70 घंटे, जो कि आज वह घटकर 1700 घंटे तक आ गया है यानी 5-डे वीकली सिस्टम से रोजाना औसतन 7 से 8 घंटे. इकोनॉमिक हिस्टोरियन माइकल ह्यूबरमैन और क्रिस मिन्स की रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार, 1870 की तुलना में आज जर्मनी में वर्किंग आवर 60 फीसदी तक घटा है. ब्रिटेन में 40 फीसदी घटा है.

लेबर लॉ में इन बदलावों के पहले लोग जनवरी माह से जुलाई माह के बीच ही इतने घंटे काम कर लेते थे जितने आज पूरे साल में लोग करते हैं. हालांकि, इसमें भी अलग-अलग देशों में फर्क है. ज्यादा औद्योगिकरण वाले देशों में लेबर लॉ में बड़े बदलाव हुए हैं वहां वर्किंग आवर ज्यादा घटा है जबकि गरीब देशों में अब भी कम बदलाव हुआ है. इसके साथ ही कर्मचारियों के लिए बढ़ीं छुट्टियों ने भी टाइम स्पेंड में बदलाव किया है. औसतन दुनिया में कर्मचारियों को साल में 240 दिन काम करना पड़ता है और साप्ताहिक अवकाश और बाकी छुट्टियां मिलाकर 120 दिन आराम के लिए मिलती हैं.

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इससे लाइफस्टाइल में भी काफी बदलाव आया है. पिछले कुछ सालों में भारत में महिलाओं के लिए 6 महीने की प्रेग्नेंसी लीव मंजूर हुई है साथ ही सरकारी नौकरी वाली महिलाओं के लिए 2 साल की फैमिली लीव ने भी महिलाओं के लिए नौकरी और परिवार के बीच संतुलन बनाने के मौके बढ़ाए हैं. इसी तरह यूएई में कामगारों के लिए 30 से लेकर 100 दिन की छुट्टियों का सालाना प्रावधान किया गया है.

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4. बच्चों के साथ परिवार में टाइम स्पेंड कैसा है?

पहले संयुक्त परिवारों के दौर में बच्चों के पास खेलने के लिए ज्यादा लोग होते थे लेकिन आज एकल परिवारों में मां-बाप को ही बच्चों के दोस्तों का रोल भी निभाना होता है. इसलिए फैमिली के अंदर लोगों के टाइम स्पेंड का ये भी एक अहम हिस्सा है. एकल परिवार, सिंगल पेरेंट, टूर वाले जॉब, लंबे वर्किंग आवर के कारण बच्चों के साथ परिवार के लोगों की टाइम स्पेंड में बड़ा फर्क आया है. अमेरिका में फैमिली एडवाइजरी काउंसिल के सर्वे में ये बात सामने आई कि काम और परिवारों के साइज में बदलाव के बीच पेरेंट्स के लिए हफ्ते में 22 घंटे यानी 14 फीसदी वक्त कम हो गया है जो वे पहले अपने बच्चों के साथ बिताते थे.

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एशियन देशों में जहां महिलाएं नौकरियों पर कम हैं वहां माताएं पुरूषों की तुलना में बच्चों के साथ ज्यादा समय बिताती हैं लेकिन यूरोपीय देशों और अमेरिकी समाजों में महिलाएं बच्चों को उतना समय नहीं दे पातीं.

5. फूड हैबिट

आज के इंसान के टाइम स्पेंड पर बदलते फूड हैबिट से भी बड़ा फर्क आया है. भारत जैसे देशों में पहले अधिकांश परिवारों में तीन टाइम का खाना बनना एक अनिवार्य नियम था लेकिन आज के वक्त में स्विगी-जोमैटे जैसी होम डिलिवरी ऐप के कारण लोगों के बीच घर पर खाना मंगाने का चलन तेजी से बढ़ा है. Swiggy कंपनी ने जहां साल 2019 में 1 करोड़ 40 लाख फूड ऑर्डर डिलिवर किए वहीं Zomato ने साल 2020 में 40 करोड़ फूड ऑर्डर डिलिवर किए. साल 2026 तक इसके बढ़कर चार गुना हो जाने का अनुमान है. ये दो कंपनियां ही नहीं बहुतेरी कंपनियां इस फील्ड में हैं और सबका कारोबार तेजी से बढ़ ही रहा है. इससे लोगों के खाना बनाने का टाइम बच रहा है और इसका इस्तेमाल लेजर टाइम के तौर पर वे कर पाते हैं.

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