74 साल बाद भारत की धरती पर एक बार फिर चीता देखने को मिला है. शनिवार को नामीबिया से 8 चीतों को लाया गया, जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में छोड़ा गया. इसको लेकर राजनीति भी शुरू हो गई है. इस बीच कांग्रेस ने 'प्रोजेक्ट चीता' की पहल करने का दावा किया है. जिसमें कहा गया है कि कांग्रेस ने 2008-09 में इस प्रस्ताव को हरी झंडी दी थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की रोक की वजह से तब ये पूरा नहीं हो पाया था. दरअसल, 2010 में जब ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो इस पर कोर्ट ने रोक लगा दी थी. आइए जानते हैं 'प्रोजेक्ट चीता' को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कब क्या हुआ.
बता दें कि तत्कालीन यूपीए सरकार में वन और पर्यावरण मंत्री रहे जयराम रमेश की योजना और परिकल्पना थी कि भारत के जंगलों में चीते दौड़ें. वो तो कुछ तकनीकी पहलुओं की वजह से शीर्ष अदालत ने रोक लगा दी थी, वरना चीते दस साल पहले ही भारत के जंगलों में आ जाते और अब तक उनकी दूसरी पीढ़ी भी जवान हो गई होती.
एनटीसीए के आवेदन पर सुनवाई हुई थी शुरू
सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के आवेदन पर सुनवाई शुरू की थी. उस अर्जी में नामीबिया से अफ्रीकी चीता को भारत में लाने की अनुमति मांगी गई थी. क्योंकि अदालत ही सरकार की इस महत्वाकांक्षी वन्य जीव संरक्षण परियोजना की निगरानी कर रही है. इस बाबत शीर्ष अदालत ने विशेषज्ञों की तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था. उसमें भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट (डब्ल्यूटीआई) के पूर्व निदेशक, रंजीत सिंह, एक सेवानिवृत्त भारतीय वन सेवा अधिकारी और पर्यावरण मंत्रालय के एक अधिकारी शामिल थे. इस समिति को एनटीसीए का मार्गदर्शन करते हुए इस मुद्दे पर निर्णय लेने में अपनी राय रखते हुए मदद करना था.
तब के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे, न्यायमूर्ति बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की पीठ ने कहा था कि शीर्ष अदालत परियोजना की निगरानी करेगी. समिति हर चार महीने में अपनी रिपोर्ट उसके सामने पेश करेगी. शीर्ष अदालत ने अपने आदेश में यह भी कहा था कि अफ्रीकी चीता को स्थानांतरित करने का निर्णय उचित सर्वेक्षण के बाद लिया जाएगा. चीतों को लाने की कार्रवाई एनटीसीए के विवेक पर छोड़ दी जाएगी. तब अदालत ने कहा था कि चीता को सबसे उपयुक्त आवास में प्रयोगात्मक आधार पर पेश किया जाएगा, ताकि यह देखा जा सके कि यह भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल हो सकता है या नहीं.
पूर्व मंत्री ने किया प्रोजेक्ट को शुरू करने दावा
कार्यक्रम की परिकल्पना करने वाले पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इस फैसले का स्वागत किया था. अब आज जब इतिहास बन चुका है तो लगता है कि यह एक महत्वपूर्ण अवसर है, जिसके हकीकत में बदलने में 10 साल लग गए हैं. चीते भारत आए तो जयराम रमेश ने कहा कि आधुनिक समय में भारत में विलुप्त होने के लिए शिकार किया जाने वाला चीता एकमात्र स्तनपायी है और उनके कार्यकाल के दौरान जंगली में उनके परिचय को संभव बनाने के लिए बहुत काम किया गया था.
भारत में 1952 में विलुप्त घोषित हुआ था चीता
भारतीय वन सेवा के अधिकारी परवीन कस्वां ने बताया कि भारत में चीता 1952 में विलुप्त घोषित कर दिया गया था. 2010 में, केंद्र सरकार ने भारत में चीते को फिर से बसाने के लिए विशेषज्ञो का पैनल बनाया था. इस पैनल ने सिफारिश की थी कि दुनिया में सबसे तेज़ दौड़ने वाले जंगली जानवर का घर मध्य प्रदेश में कूनो पालपुर, गुजरात में वेलावदार राष्ट्रीय उद्यान और राजस्थान में ताल छापर अभयारण्य हो सकता है. कूनो पालपुर भी मूल रूप से मध्य प्रदेश में गुजरात के एशियाई शेरों को रखने के लिए तैयार किया गया था. फिर बाद में यह चीतों के पुनर्वास की शुरूआत के लिए पसंदीदा स्थान था.
विशेषज्ञों ने किया था दावा
अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चीता को सबसे उपयुक्त आवास में प्रयोगात्मक आधार पर पुनर्वासित किया जाएगा. पहले तो यह देखा जा सके कि यह भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल हो सकता है या नहीं. चीता 1950 के दशक तक भारत के लंबी ऊंची घास के मैदानों में घूमते रहे. फिर शिकार के जरिए उन्हें देश से विलुप्त कर दिया गया. हालांकि, कई वन्यजीव विशेषज्ञों ने दावा किया था कि इनमें से कोई भी आवास चीतों की मेजबानी के लिए माकूल नहीं था. तंजानिया में सेरेनगेटी नेशनल पार्क का क्षेत्रफल 14,750 वर्ग किलोमीटर है, जो चीतों के भोजन वाले जानवरों से भरा हुआ है, जबकि दक्षिण अफ्रीका में क्रूगर नेशनल पार्क 19,485 वर्ग किमी में फैला हुआ है.
2018 में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई थी रिपोर्ट
सुप्रीम कोर्ट में 2018 में दाखिल की गई एक रिपोर्ट में ऐसे ही कई तथ्य दिए गए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक उन दोनों अफ्रीकी देशों के मुकाबले में भारतीय वन्यजीव आवासों में 1,000 वर्ग किमी से अधिक का क्षेत्र नहीं है. यहां चीतों के अफ्रीकी घरों की तुलना में बहुत कम शिकार आधार वाले जानवर है. अदालत की बनाई वन्यजीव विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि इन बड़ी बिल्लियों को जीवित रहने के लिए हर तीसरे दिन हिरण, बारहसिंगे और ऐसे ही जानवरों की जरूरत होती है.
रिपोर्ट ने देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) द्वारा किए गए दावों को भी खारिज कर दिया कि चीता मनुष्यों के साथ सह-अस्तित्व में रह सकते हैं, कम शिकार के आधार पर जीवित रह सकते हैं और उन्हें विशाल घास के मैदानों की आवश्यकता नहीं है. WII ने कुनो को जानवर के पुनरुत्पादन के लिए चुना. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि चीतों के पुनरस्थापन की योजना की जांच वंयजीवों के विशेषज्ञों वाले राष्ट्रीय बोर्ड के जरिए गहराई से जांच नहीं की गई थी, जबकि सरकार ने यह दावा भी किया था. इसमें कहा गया है कि राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना (2017-2031) भी इस पर खामोश है.
दिल्ली के जीवविज्ञानी फैयाज खुदसर ने एनटीसीए की चीता पुनरस्थापन परियोजना के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर कहा था कि योजना के हरेक पहलू पर विस्तार और गहराई से विचार नहीं किया गया है. उन्होंने दावा किया था कि इसे भारतीय वन सेवा के एक पूर्व अधिकारी के सपने को पूरा करने के लिए जबरन धकेला जा रहा है. खुदसर ने कहा था कि हम गिर से शेरों को स्थानांतरित नहीं कर सकते. ये कैनाइन डिस्टेंपर वायरस के कारण मर रहे हैं. लेकिन, हम ऐसे चीते चाहते हैं जिनके साथ हमें आज के दौर का कोई अनुभव नहीं है.
1947 में हुआ था आखिरी चीतों का शिकार
गौरतलब है कि 1947 में छत्तीसगढ़ के कोरिया इलाके में भारत का आखिरी चीता मारा गया था. बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के दस्तावेज के अनुसार भारत में बचे अंतिम तीन चीतों को 1947 में कोरिया के रामगढ़ गांव के जंगल के पास महाराजा रामानुज प्रताप सिंहदेव ने मार गिराया था. सिंहदेव के निजी सचिव ने ही महाराज की तस्वीर के साथ पूरी जानकारी बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी को भेजी थी. चीता अकेला जंगली जानवर है, जिसे भारत सरकार के दस्तावेज में विलुप्त घोषित किया गया है.
हालांकि मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ में कई सरकारों में मंत्री रहे रामानुज प्रताप सिंहदेव के बेटे रामचंद्र सिंहदेव इस तथ्य से सहमत नहीं हैं कि कोरिया में एक साथ मारे गए तीनों चीते, देश के आखिरी चीते थे. उन्होंने कहा कि जिस इलाके में अंतिम तीन चीते को मारे जाने की बात कही जाती है, लेकिन उसी इलाके में दो साल बाद उन्होंने खुद चीता देखा था.