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जब 'साजिश' की आग में जला भारत का सेमीकंडक्टर ड्रीम, इंदिरा के सपने पर किसने किया था आघात? IB भी पता नहीं कर पाई

Semiconductor Industry in India: अरबों डॉलर की सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री में भारत ने देरी से ही सही लेकिन सधे कदमों के साथ प्रवेश किया है. बुधवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि चुनौतियां आने पर दुनिया भारत पर दांव लगा सकती है. लेकिन इस इंडस्ट्री की क्षमताओं को इंदिरा गांधी ने 40-41 साल पहले समझ लिया था जब उन्होंने 1976 में भारत का पहला सेमीकंडक्टर प्लांट लगाने का फैसला किया था. लेकिन आग की एक घटना ने इस संभावना के फलने-फूलने से पहले ही उसका विनाश कर दिया.

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सीपीयू ऑपरेटिंग चिपसेट कंप्यूटर इलेक्ट्रॉनिक सर्किट बोर्ड पर भारत का झंडा, भारत गणराज्य प्रौद्योगिकी या हार्डवेयर विकास से संबंधित वैचारिक
सीपीयू ऑपरेटिंग चिपसेट कंप्यूटर इलेक्ट्रॉनिक सर्किट बोर्ड पर भारत का झंडा, भारत गणराज्य प्रौद्योगिकी या हार्डवेयर विकास से संबंधित वैचारिक

इंदिरा गांधी सत्ता में थीं. देश-दुनिया में विज्ञान नई करामातें पेश कर रहा था. महात्वाकांक्षी इंदिरा चाहती थीं कि भारत इस रेस में किसी तरह से पीछे न रहे. अमेरिका-रूस में औद्योगिक प्लांट के दौरे पर जा चुकीं इंदिरा छोटी सी, मगर काम में जादुई क्षमता रखने वाले सेमीकंडक्टर की अहमियत को 1976-77 में ही समझ गईं थीं. उन्होंने तय किया कि इस इंडस्ट्री में भारत को किसी से भी पीछे नहीं रहना है. 

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अभी जो ताईवान, अमेरिका और चीन सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री के सिरमौर बने हैं उस वक्त भी ये देश सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री के लीडर थे. अमेरिका के पास जो भी एक्सपर्टीज थी वो किसी भी हालत में इसे दूसरे देशों को नहीं देना चाहता था. अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर और रोनाल्ड रीगन संवेदनशील तकनीक की एक्सपोर्ट रोकने के लिए कानून भी लेकर आए थे. 

बता दें कि अमेरिका जैसे देश द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के तुंरत बाद ही इस इंडस्ट्री में आ चुके थे. 1956 में अमेरिका में सेमीकंडक्टर बनना शुरू हो चुका था. चीन ने अपना पहला सिलिकॉन सिंगल क्रिस्टल 1958 में बनाया था. जापान भी इसी रेस में था और इस इंडस्ट्री की तकनीक किसी को नहीं देना चाहता था.

तब कोई नहीं बांटना चाहता था सेमीकंडक्टर का ज्ञान

अमेरिका की अगुवाई में ये देश तीसरी दुनिया या औद्योगिक रुप से कम विकसित देशों को टेक्नॉलजी ट्रांसफर रोकने के लिए एक कानून लेकर आए, इस कानून का नाम था  Coordinating Committee for Multilateral Export Controls यानी कि COCOM.

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खैर भारत का विज्ञान जगत और इंदिरा तो ऐसी कितनी ही समस्याओं का सामना कर रहा था और इससे निपट भी रहा था. सरकार से ग्रीन सिग्नल मिलने के बाद भारत का डिपार्टमेंट ऑफ इलेक्ट्रॉनिक्स इस दिशा में आगे बढ़ गया. इस मंत्रालय ने तय किया कि भारत को सेमीकंडक्टर की डिजाइनिंग और फेब्रिकेशन में अपनी क्षमता विकसित करनी चाहिए. तुरंत ही कैबिनेट ने सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी की स्थापना की इजाजत दे दी. उस समय इंदिरा के वैज्ञानिक सलाहकार और इलेक्ट्रानिक्स मंत्रालय के सचिव थे अशोक पार्थसारथी. पार्थसारथी काबिल टेक्नोक्रेट थे. इंदिरा ने उन्हीं की अगुवाई में इस सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री को भारत में लगाने की जिम्मेदारी दी. 

इंदिरा ने 40 साल पहले पहल की

अब समझिए भारत जिस इंडस्ट्री के पैर अपने यहां अब रोपने की कोशिश अब कर रहा है, इंदिरा ने लगभग 40 साल पहले ही उस उद्योग का सपना देखा था. भारत सरकार ने इस प्लांट को नाम दिया सेमीकंडक्टर कॉम्पलेक्स लिमिटेड (Semiconductor Complex Limited). यहां 100 फीसदी भारत सरकार के स्वामित्व में सिर्फ सेमीकंडक्टर या चिप बनाया जाना था. 

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1976 में एक एक्सपर्ट पैनल ने इस इंडस्ट्री के लिए दो संभावित जगहों की पहचान की- मोहाली और मद्रास. डिपार्टमेंट ऑफ इलेक्ट्रानिक्स के विशेषज्ञों को इस प्लांट के लिए सही जगह मद्रास लगी. लेकिन तभी यहां जैसा कि भारत में होता है राजनीति आ घुसी. तब ज्ञानी जैल सिंह पंजाब के मुख्यमंत्री थे. ज्ञानी जैल सिंह चाहते थे कि इस प्लांट का गौरव पंजाब को मिले. वे समझते थे कि इससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा. वो इस प्लांट को मोहाली में ही लगाने पर अड़ गए. 

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राजनीति यहां भी हुई

इंदिरा ने इस स्थिति से निपटने के लिए अशोक पार्थसारथी को लगाया. पार्थसारथी ने ज्ञानी जैल सिंह को समझाया कि इससे स्थानीय स्तर पर शायद ही लोगों को नौकरियां मिल पाए क्योंकि इस इंडस्ट्री के लिए काफी दक्ष और तकनीकी कौशल रखने वाले कर्मियों की आवश्यकता होती है. लेकिन ज्ञानी जैल सिंह नहीं माने और आखिरकार 1978 में पंजाब के मोहाली में सेमीकंडक्टर कॉम्पलेक्स लिमिटेड बनाने का फैसला लिया गया. गौरतलब है कि तब मोहाली भारत का उभरता हुआ औद्योगिक शहर था. 

मोहाली स्थित सेमीकंडक्टर प्रयोगशाला

सरकार ने तब इस इंडस्ट्री के लिए 15 करोड़ की रकम आवंटित की. 1983 में इस प्लांट का उद्घाटन हुआ. वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता बताते हैं कि इस प्रोजेक्ट के लिए आईआईटी और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस से गणित, भौतिकी और इलेक्ट्रॉनिक्स में स्नातक छात्रों का चयन किया गया.1984 में इस प्लांट से बेसिक प्रोडक्शन शुरू हो गया. 

सेमीकंडक्टर कॉम्प्लेक्स लिमिटेड का लक्ष्य हाई टेक सर्किट और इलेक्ट्रॉनिक्स का डिजाइन और निर्माण करना था. सरकार का दृष्टिकोण यह था कि ये कंपनी एक देशी भारतीय इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग की नींव बन सकती है. 

शेखर गुप्ता इस इंडस्ट्री के विशेषज्ञों के हवाले से बताते हैं कि सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री को चलने के लिए चार चीजें चाहिए होती है.  ये चीजें हैं- वित्तीय पूंजी, मानव संसाधन, इंफ्रास्ट्रक्चर और चौथा मैन्युफैक्चरिंग टेक्नॉलजी. चूंकि इंदिरा ने इस सपने में पूरा दम-खम लगा दिया था इसलिए पहली तीन चीजें तो भारत को हासिल हो गई, लेकिन चौथी और अहम चीज जो भारत को नहीं मिल रही थी वो थी मैन्युफैक्चरिंग टेक्नॉलजी. 

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भारत ने इस तकनीक के लिए कई देशों में हाजिरी दी, लेकिन ज्यादातर जगहों से निराशा मिली. पहला तो अमेरिकी दबाव, दूसरा कोई भी देश इस नए वंडर को भारत के साथ शेयर नहीं करना चाहता था, तीसरा चूंकि ये इंडस्ट्री दुनिया में अभी फल-फूल ही रही थी इसलिए इसके खिलाड़ी भी चुनिंदा थे. लिहाजा भारत के पास बहुत ज्यादा विकल्प नहीं था. 

5000 nanometers के साथ शुरू किया ICs प्रोडक्शन

बावजूद इसके भारत ने अपने टैलेंट के दम पर कोशिश जारी रखी और भारत ने पहले फेज में 5 माइक्रॉन लेवल  यानी कि 5000 nanometers के आईसी (Integrated circuits) बनाने में सफलता पाई.  यहां 5000 nanometers का मतलब ICs के आकार से है. दूसरे फेज में इस प्लांट ने और कामयाबी पाई और सर्किट के साइज को और भी छोटा कर दिया और 0.8 माइक्रॉन लेवल यानी कि 800  nanometers के सर्किट बनाने में कामयाब हो गया. 

ध्यान रखें कि सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री में ये ट्रेंड है कि ट्रांजिस्टर के साइज को अधिक से अधिक छोटा किया जाए. एक्सपर्ट के मुताबिक इसका ये फायदा होता है कि चिप का परफॉर्मेंस बढ़ता है, एनर्जी की खपत कम होती है और कीमतें भी मुफीद रहती हैं. इसे Moore's law कहते हैं.
  
बता दें कि आज के हिसाब से ये काफी बड़े इंटिगरेटेड सर्किट हैं. इस इंडस्ट्री की दिग्गज कंपनी IBM ने हाल में जो चिप बनाई है वो मात्र 2 नैनोमीटर साइज का है. विशेषज्ञ बताते हैं कि 1985-86 के लिहाज से भारत की ये तरक्की कम नहीं थी और भारत तब इस इंडस्ट्री की कटिंग एज टेक्नॉलजी से मात्र एक ही पीढ़ी पीछे था. और उम्मीद जताई जा रही थी कि आने वाले दस सालों में भारत इस गैप को कवर कर लेगा. 

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एक रहस्यमयी आग और पूरा जल गया सेमीकंडक्टर प्लांट

सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री में भारत की उम्मीदें अभी अंगडाई ले ही रही थीं. साल 1989 का आया और तारीख थी 7 फरवरी. इस दिन कुछ रहस्यमय ढंग से हुआ. मोहाली स्थित सेमीकंडक्टर कॉम्पलेक्स लिमिटेड में न जानें कहां से एक ऐसी आग लगी, जिसमें सब कुछ खाक हो गया. इस आग की लपटें बड़ी भयानक तरीके से विनाशक थी. इस आग में सेमीकंडक्टर प्लांट पूरी तरह से जल गया. यहां प्रोडक्शन शुरू हुए 5 ही साल हुए थे और सबकुछ बेहद निराशाजनक तरीके से स्वाहा हो गया. सारी मशीनें जलकर राख हो गईं. एक आकलन के अनुसार उस समय इस आग से 75 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ. आज के हिसाब से ये रकम अरबों में है. 

सेमीकंडक्टर कॉम्पलेक्स को अब लैब में बदल दिया गया है.

जब सेमीकंडक्टर यूनिट में आग लगने की घटना होती है तो यहां से जहरीली गैस और लपटें निकलती हैं.एक्सपर्ट के अनुसार ऐसी स्थिति में यहां से हाईड्रोजन क्लोराइड, हाइड्रोजन ब्रोमाइड और सल्फर डाई ऑक्साइड जैसे खतरनाक गैसों का उत्सर्जन होता है.

भारत के सेमीकंडक्टर सपने के लिए ये बेहद निराश करने वाली खबर थी. इंदिरा तो तब नहीं रही थीं लेकिन भारत की वैज्ञानिक प्रगति को लेकर देखे गए उनके सपने पर ये घटना बड़ा प्रहार था. 

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साजिश का एंगल और IB की एंट्री

इस आग का कारण हमेशा संदेहों के घेरे में रहा. पंजाब के अखबार द ट्रिब्यून अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि आग की वजह पता लगाने के लिए भारत की खुफिया एजेंसी इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) की टीम प्लांट पहुंची लेकिन इसकी जांच में भी कुछ ठोस निकलकर सामने नहीं आ सका. 

एक्सपर्ट के अनुसार सेमीकंडक्टर प्लांट में आग लगने की आशंका होती है क्योंकि वहां हाई टेम्प्रेचर में प्रोसेसिंग का काम होता है. सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री में साइलेन, हाइड्रोजन और मिथेन जैसी गैस का इस्तेमाल होता है. यहां जरा सी चूक आग की घटना को आमंत्रण दे सकती है.  

हालांकि जांच एजेंसियों को इस आग के पीछे साजिश की कोई ठोस वजह नहीं मिली. लेकिन 1989 का वर्ष भारत की आतंरिक सुरक्षा के लिहाज से काफी संवेदनशील समय था. 1984 में इंदिरा की हत्या हो चुकी थी, और 1989 में पंजाब में आतंकवाद चरम पर था. यही वो साल था जब जम्मू-कश्मीर में टेररिज्म सिर उठा रहा था. यही वो समय था जब पश्चिमी देश भारत के साथ किसी तरह की तकनीक शेयर नहीं करना चाह रहे थे. 1984 में पहले परमाणु परीक्षण के बाद भारत को अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रतिबंधों का भी सामना करना पड़ा था. 

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सेमीकंडक्टर कॉम्पलेक्स लिमिटेड की आग में साजिश की बू इसलिए भी आ रही थी क्योंकि यहां भारत के डिफेंस से जुड़ी गतिविधियां भी हो रही थी. भारत के मिसाइल प्रोग्राम से जुड़े कई उपकरण यहां बनाए जा रहे थे. माना जाता है कि भारत के स्पेस प्रोग्राम के लिए भी यहां काम हो रहा था. निश्चित रूप से इसकी डिटेल जानकारी बाहर नहीं आती थी. लेकिन इस स्थान की संवेदनशीलता को देखकर नौकरशाही और मीडिया में आग के बारे में कई कयास लगाए जा रहे थे. 

तत्कालीन पंजाब यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष एमएस बिट्टा ने इस मामले में न्यायिक जांच की मांग की थी. 

बाद में सेमीकंडक्टर कॉम्पलेक्स लिमिटेड कर्मचारी संघ ने सरकार को एक ज्ञापन देकर इस मामले में आंतरिक छेड़छाड़ की संभावना से इनकार किया. हालांकि इस संघ ने कहा कि परिसर की सुरक्षा कर रही केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के कुप्रबंधन और उनकी तरफ से प्रयासों की कमी की वजह से आग पर काबू नहीं पाया जा सका. इस आग की जांच करने के लिए बने पैनल ने कहा कि हो सकता है कि आग शॉट सर्किट की वजह से लगी हो. ध्यान रखा जाए कि पैनल ने शॉर्ट सर्किट की ओर सिर्फ आशंका जताई और इतने महत्वपूर्ण संस्थान में लगी आग की कुछ ठोस वजह नहीं बताई.

8 साल बाद शुरू हो पाया प्लांट...लेकिन

इस आग से नुकसान इतना व्यापक था कि इससे उबरने में 8 वर्ष लग गए और फिर 1997 में इस प्लांट को चालू किया जा सके. लेकिन तबतक सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री छलांग लगा चुकी थी. जिस तकनीक पर भारत काम कर रहा था वो पुरानी हो गई थी. इंडस्ट्री की तकनीक, वर्ल्ड मार्केट और टैलेंट का झुकाव पूरी तरह से बदल चुका था.

घटना के बाद तत्कालीन विज्ञान और तकनीकी राज्यमंत्री के आर नारायणन ने कहा था कि प्लांट को फिर से शुरू किया जाएगा. लेकिन भारत की लालफीताशाही, नौकरशाही की बाधाएं और कई सारे कारणों की वजह से ऐसा न हो सका. वर्ष 2000 में सरकार इसके कुछ हिस्से को निजी क्षेत्रों को बेचना चाह रही थी लेकिन शर्तों पर बात नहीं बन पाई और मामला लटक गया. 

आखिरकार साल 2006 में इस कंपनी का पुनर्गठन किया गया और इसे अनुसंधान और विकास केंद्र बना दिया गया. इसे अंतरिक्ष मंत्रालय के तहत कर दिया गया और इस सेंटर को 'सेमीकंडक्टर प्रयोगशाला' बना दिया गया. 

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