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कैसे शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या के चलते 2 महीने की जगह 2 साल खिंच गई थी भारत में इमरजेंसी, इंदिरा का वो किस्सा...

15 अगस्त 1975 को इंदिरा गांधी लाल किले की प्राचीर से इमरजेंसी पर कुछ बड़ा ऐलान करनी वाली थीं. तभी उनके प्रोटोकॉल चीफ ने इंदिरा को कुछ ऐसा बताया कि वे सहसा यकीन नहीं कर सकीं. ये खबर थी बांग्लादेश में शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या की. इस खबर को सुन इंदिरा बेहद डर गईं. इंदिरा पर इस घटना का ऐसा असर पड़ा कि वो संजय गांधी को अपने पास वाले कमरे में सोने कहती थीं.

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भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान (फाइल फोटो)
भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान (फाइल फोटो)

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कार सुबह-सुबह लुटियंस दिल्ली की सड़कों पर फर्राटा भरते हुए आगे बढ़ रही थी. वो दिन खास था. लिहाजा सिविक एडमिनिस्ट्रेशन ने सड़कों से भिखारियों और इधर-उधर टहलने वाली गायों को हटा दिया था. इमरजेंसी का एक असर ये भी था कि राजधानी की सड़कें अब साफ और करीने से सजी नजर आ रही थीं. 

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इंदिरा लाल किले की ओर जा रही थीं. ये 15 अगस्त 1975 का दिन था. उन्हें लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित करना था. उन्हें लोगों की खोई आजादी वापस करनी थी. इंदिरा इमरजेंसी पर कुछ बड़ा ऐलान करनी वाली थीं. तभी उनके प्रोटोकॉल चीफ ने एक खबर दी. ये ऐसी खबर थी जिसे सुनकर भारत में इमरजेंसी की घोषणा कर चुकीं प्रधानमंत्री इंदिरा सन्न रह गईं. इसकी कल्पना भी नहीं थी. ये अविश्वसनीय था. प्रोटोकॉल चीफ ने उन्हें बताया कि उनके मित्र और बांग्लादेश के राष्ट्रपति का परिवार समेत खात्मा कर दिया गया है. इंदिरा बुरी तरह बिखर गईं. उनका मानना था ये CIA का काम है. 

बांग्लादेश में 5 अगस्त को हुई तख्तापलट की घटना ने इतिहास के पन्नों में दर्ज कई घटनाओं को फिर से जीवंत कर दिया है. नए राष्ट्र के रूप में बांग्लादेश का उदय, भारत में आपातकाल की घोषणा, फिर शेख मुजीबुर्रहमान के परिवार का कत्लेआम; इन घटनाओं का कोई न कोई शिरा आपस में एक दूसरे से मिलता था. 

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आज जब बांग्लादेश हिंसा के दौर से गुजर रहा है तो ये घटनाएं हमें 1970 के दशक में दक्षिण एशिया में राजनीतिक उथलपुथल की याद दिलाती हैं. 

स्पैनिश लेखक जेवियर मोरो ने सोनिया गांधी की शख्सियत पर लिखी किताब 'द रेड सारी' में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम, भारत में आपात काल, इंदिरा के व्यक्तित्व पर बड़ी विस्तार से कलम चलाई है. 

इंदिरा गांधी ने असाधारण परिस्थितियों में 25 जून 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा तो कर दी थी लेकिन वे इसे ज्यादा दिन तक खींचना नहीं चाहती थीं. 

दो महीने के लिए ही इमरजेंसी चाहती थीं इंदिरा

जेवियर मोरो इस किताब में लिखते हैं, "इंदिरा ने पुपुल को बताया कि वे केवल दो माह के लिए ही आपातकाल लगाना चाहती हैं और वे इस दौरान बीस सूत्रीय कार्यक्रम को लागू करना चाहती हैं ताकि देश को विकास के पथ पर चलाया जा सके."

बता दें कि पुपुल जयकर इंदिरा की खास सहेली थीं और उनकी पहुंच इंदिरा गांधी के इाइनिंग टेबल तक थी. 

इंदिरा और शेख मुजीबुर्रहमान (फाइल फोटो)

तो क्या 15 अगस्त 1975 को यानी कि इमरजेंसी लागू करने के लगभग 50 दिन बाद वो समय आ चुका था जब इंदिरा इमरजेंसी खत्म करना चाहती थीं? 
 
जेवियर मोरो 'द रेड सारी' में लिखते हैं, "इंदिरा 15 अगस्त 1975 को उसी स्थान और समय पर आपातकाल हटाने की घोषणा करना चाहती थीं जहां उनके पिता ने 28 साल पहले अपना प्रसिद्ध भाषण दिया था." 

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आगे उन्होंने लिखा है, "इंदिरा लाल किले की ओर जा रही थीं, तभी उनके प्रोटोकॉल चीफ ने ऐसी खबर दी जिसने उन्हें भीतर तक व्यथित कर दिया, उनके मित्र बांग्लादेश के राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान को एक सैन्य आक्रमण में परास्त कर दिया गया, इससे भी बदतर बात यह थी कि शेख उनकी पत्नी, तीन बेटों, बहुओं और दो भतीजों को जान से मार दिया गया, ताकि उनके वंश का कोई नामलेवा न रहे."

भावनाओं के ज्वार से ओत-प्रोत इंदिरा का भाषण

ये एक ऐसी खबर थी जिसने इंदिरा को हिलाकर रख दिया. इंदिरा के उस दिन का भाषण का जिक्र करते हुए जेवियर मोरो लिखते हैं,"उस दिन उन्होंने लाल किले से जो भाषण दिया वह भावनाओं के ज्वार से ओत-प्रोत था, मानो वे अपने आप को भावनाओं को रौ में बहने से रोक रही हों, जाने उनका जोर कहां चला गया था. पुपुल उस भाषण को सुन रही थीं. जिसमें इंदिरा ने आजादी, कड़े कदम उठाने की आवश्यकता, बलिदान, सेवा व साहस, विश्वास व प्रजातंत्र की बात की. परंतु उन्होंने आपातकाल के बारे में एक शब्द तक नहीं कहा." 

जेवियर के मुताबिक इस घटना ने इंदिरा को काफी असुरक्षा में डाल दिया था. उन्हें पूरा यकीन था कि उन्हें ही अगला निशाना बनाया जाएगा. RAW चीफ ने भी यही बताया था कि उन्हें ऐसे कई साजिशों का पता चला है जो इंदिरा को मिटाने के लिए बनाए गए थे. पुपुल के अनुसार वे बुरी तरह आशंकित थीं और उन्हें सब पर संदेह हो रहा था. उन्हें ऐसा लगता मानो हर साये के पीछे कोई दुश्मन छिपा हो. 

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मेरा पोता भी तो शेख रहमान के बेटे की आयु का है, कल को...

स्पैनिश लेखक जेवियर लिखते हैं कि इंदिरा ने पुपुल जयकर से कहा, "मैं किसका विश्वास कर सकती हूं? मेरा पोता भी तो शेख रहमान के बेटे की आयु का है, कल को उसका नंबर भी लगाया जा सकता है, वे हरसंभव साधन से, मुझे और मेरे परिवार को तबाह कर देना चाहते हैं. इंदिरा को पहली बार एहसास हो रहा था कि न केवल उनकी बल्कि उनके पूरे परिवार की जान खतरे में थी."

अगर तत्कालीन राजनीतिक हालात पर नजर डालें तो इंदिरा ऐसे दुष्चक्र में उलझ गईं थी कि इससे बाहर निकलने का उन्हें कोई रास्ता नहीं दिख रहा था. मोरो के अनुसार वे भीड़ में सुरक्षित महसूस करती थीं पर अब घर में ही उन्हें डर लगने लगा था. वे दरअसल जान के खतरे से भयभीत थीं. सत्ता छिनने के भय से भयभीत थीं. वे अनेक मोर्चों पर संघर्ष करते हुए मनपसंद नतीजे न पाने से कुंठित थीं. 

जेवियर मोरो के मुताबिक इन घटनाओं ने इमरजेंसी को तत्काल न खत्म करने के उनके फैसले को प्रभावित किया. वे लिखते हैं, "उन्हें लगा कि इस हालात में आपातकाल को न हटाना ही ठीक रहेगा. इसके वपरीत यह आवश्यक था कि बिना किसी अभियोग या कानूनी कार्रवाई के कुछ और लोगों को बंदी बनाया जाए ताकि वे अपनी तथा परिवार की सुरक्षा को सुनिश्चित कर सकें." 

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आपलोग मुख्य दरवाजे के पास वाले कमरे में न सोएं

इस दौरान इंदिरा संजय गांधी की सुरक्षा को लेकर बेहद चिंतित रहती थीं. इंदिरा इतनी डरी हुई थीं कि वे संजय को मेन गेट के पास बने कमरे में सोने से मना करती थीं. 'द रेड सारी' में इसका जिक्र इस तरह है, "मैं नहीं चाहती कि आप लोग मुख्य दरवाजे के निकट के कमरे में सोएं. यह सुरक्षित नहीं है. बेहतर होगा कि आप लोग गलियारे के अंतिम कमरे में, मेरे कमरे के सामने वाले कमरे में सोएं. जब एक दोस्त ने ऐसा करने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि वे अच्छा महसूस नहीं कर रही थीं और अगर संजय साथ वाले कमरे में होंगे तो वे उन्हें रात-बेरात मदद के लिए बुला सकती थीं."

कहा जा सकता है कि आयरन लेडी की छवि के बावजूद इंदिरा गांधी बांग्लादेश में शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या की घटना से काफी प्रभावित हुई थीं. अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित इंदिरा ने इमरजेंसी की दिक्कतों को समझते हुए भी इसे हटाने पर तुरंत फैसला नहीं लिया. हालांकि भारत की अंदरुनी राजनीति में उनके इस फैसले की वजह थी. 

टीचर की नसबंदी की कहानी सुन द्रवित हुईं इंदिरा

संजय गांधी का नसबंदी प्रोग्राम गलत वजहों से देश में सुर्खियां बटोर रहा था. इसका आभास इंदिरा को तब हुआ जब पांच दिन की पदयात्रा के बाद एक गरीब व्यक्ति दिल्ली स्थित अकबर रोड पहुंचा. उसके जूते के तलवे घिस गये थे वो एक गांव का अध्यापक था जो इंदिरा को यह बताने आया था कि उसकी एक ही बेटी थी बावजूद इसके उसकी नसबंदी कर दी थी गई थी. पुलिस ने उसे मुक्कों से पीटा था. इंदिरा इस कहानी को सुनकर द्रवित हो उठीं. 

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इस समय तक इमरजेंसी लागू हुए लगभग 19 महीने गुजर चुके थे. इंदिरा अब इमरजेंसी पर बड़ा फैसला लेना चाहती थीं. लेकिन संजय अब भी एक साल तक रुकना चाहते थे. वे चाहते थे कि नेताओं को रिहा करने के बाद एक साल तक प्रतीक्षा की जाए ताकि लोग सारी समस्याएं भूल जाएं और अफवाहें दब सकें.

इस बार इंदिरा ने अपने जिद्दी बेटे की एक नहीं मानी. उन्होंने 18 जनवरी 1977 को आने वाले दो महीनों में चुनावों की घोषणा के साथ पूरे देश को चौंका दिया. इंदिरा ने कहा कि 'इस अवसर के साथ ही सारे भ्रम और भ्रांतियों का अंत हो जाएगा. इसी के साथ मार्च 1977 में चुनावी नतीजे आने के साथ आपातकाल खत्म हो गया. 
 

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