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दरकतीं दीवारें... धंसती जमीन... टूटते मकान... और फटी हुई सड़कें... सालों से रह रहे अपने घरों को छोड़कर रिलीफ कैम्प में रहने को मजबूर लोग...
ये मंजर कुछ दिन से जोशीमठ में दिख रहा है. एक-एक मिनट भारी पड़ रहा है. समय गुजरने के साथ दरारें और चौड़ी होती जा रहीं हैं. जोशीमठ उत्तराखंड के चमोली जिले में पड़ता है.
जोशीमठ में 700 से ज्यादा घरों को असुरक्षित घोषित कर दिया गया है. लगभग 150 परिवारों को सुरक्षित जगहों पर शिफ्ट किया जा चुका है. इसके अलावा सैकड़ों घरों के बाहर रेड क्रॉस बना दिया है और उन्हें रहने के लिए असुरक्षित बताया है. प्रशासन ने लोगों से कहा है कि वो या तो रिलीफ कैम्प में रहें या फिर किराये से दूसरी जगह घर ले लें. सरकार की ओर से किराये से रहने वालों को चार हजार रुपये दिए जा रहे हैं.
पल-पल में हालात बिगड़ते जा रहे हैं. उत्तराखंड के चीफ सेक्रेटरी एसएस संधु का कहना है कि एक-एक मिनट जरूरी है और प्रभावित इलाकों से लोगों को जल्द से जल्द निकलने को कहा है.
इस पूरी आपदा ने लोगों को पलायन करने को भी मजबूर कर दिया है. एक्सपर्ट ने चेताया है कि जोशीमठ को फिर से बसाना खतरनाक हो सकता है.
पलायन को मजबूर लोग...!
वैसे तो उत्तराखंड में पलायन हमेशा से एक बड़ा मुद्दा रहा है. इस पहाड़ी राज्य में स्थानीय लोगों को कभी मूलभूत सुविधाओं और विकास की कमी के चलते पलायन करना पड़ा है तो कभी अंधाधुंध 'विकास' की वजह से.
अब जोशीमठ में हो रहे भू-धंसाव के चलते लोग एक बार फिर अपना घर छोड़ने को मजबूर हैं. जोशीमठ के मामले में विस्थापन या संभावित पलायन की वजह संवेदनशील पहाड़ी इलाके में इमारतों के जंगल, सड़कों के जाल, पहाड़ों को खोखला करने वाली परियोजनाओं को माना जा रहा है.
ऐसे में सवाल ये उठ रहा है कि विकास के बिना और 'विकास' के बाद भी उत्तराखंड के लोगों को पलायन का दंश क्यों झेलना पड़ रहा है?
इस बारे में उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार शीशपाल गुसाईं कहते हैं, 'उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल के साथ समय बहुत धोखा कर रहा है. पहले विकास न होने के कारण पलायन होता था और अब जो थोड़ा बहुत विकास हुआ है, वो अनियोजित है. इस कारण जोशीमठ समेत टिहरी डैम की बेल्ट के ऊपर के सभी गांव पलायन को मजबूर हैं. टनल निर्माण और बांध निर्माण में होते विस्फोटों से पहाड़ हिल गया है. पहले सालों तक टिहरी डैम का ऊपरी हिस्सा हिलता रहा, जिस कारण बांध के ऊपर काफी गांव में दरारें आईं, वैसी ही दरारें अब जोशीमठ में दिखाई देने लगी हैं.'
वहीं, उत्तराखंड के हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय के जियोलॉजी डिपार्टमेंट के हेड यशपाल सुंदरियाल कहते हैं, 'अंधाधुंध विकास ही पलायन का मुख्य कारण नहीं है. विकास कार्यों या हाइड्रो प्रोजेक्ट्स से हिमालयी इलाकों में या तो जमीन कमजोर हो रही है या दूसरी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.'
सुंदरियाल बताते हैं कि पौड़ी जिले में कोई हाइड्रो प्रोजेक्ट का काम नहीं चल रहा है पर वहां भी पलायन की दर कहीं ज्यादा है.
पलायन पर क्या कहते हैं आंकड़े?
17 सितंबर 2017 को तब के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने 'पलायन आयोग' का गठन किया. इसका मकसद उत्तराखंड में हो रहे पलायन के कारणों का पता लगाना था. इस आयोग ने राज्य के सभी 16 हजार गांवों का सर्वे किया और 2018 में अपनी रिपोर्ट दी.
इस रिपोर्ट में सामने आया कि राज्य में खाली हो चुके गांवों की संख्या 1,734 पहुंच गई है. राज्य से 1.18 लाख लोग स्थायी रूप से पलायन कर चुके हैं, जबकि 3.86 लाख ने अस्थायी रूप से पलायन किया. वहीं 400 से ज्यादा गांव ऐसे हैं, जहां 10 से भी कम लोग रहते हैं. 3.5 लाख से ज्यादा घर वीरान पड़े हैं, जहां रहने वाला कोई नहीं. कई गांव खाली हो गए हैं, जिन्हें 'भूतिया गांव' या 'घोस्ट विलेज' कहा जाने लगा है. आयोग ने मूलभूत सुविधाओं के अभाव को पलायन की मुख्य वजह बताया. मूलभूत सुविधाओं और विकास की कमी के चलते लोग पहाड़ी इलाकों से राज्य के मैदानी इलकों या राज्य से बाहर पलायन कर गए.
वहीं, जोशीमठ जिस चमोली जिले में पड़ता है, वहां से पहले ही 10 साल में 46 हजार से ज्यादा लोग पलायन कर चुके हैं. पलायन आयोग की रिपोर्ट बताती है कि चमोली जिले से 10 साल में 46 हजार 309 लोग पलायन कर चुके हैं. इनमें से 32 हजार 20 लोग ऐसे हैं जो समय-समय पर अपने घर आते-जाते रहते हैं. लेकिन 14 हजार 289 ऐसे हैं जिन्होंने स्थायी रूप से पलायन कर लिया है. इतना ही नहीं, 2011 के बाद 41 गांव तो पूरी तरह खाली ही हो गए. हालांकि, रिपोर्ट में दावा किया गया था कि ये पलायन रोजगार की तलाश में हुआ था.
जोशीमठ में पलायन पर क्या कहते हैं आंकड़े?
पलायन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, 10 साल में जोशीमठ के 57 गांवों 2 हजार 756 लोग ऐसे थे, जिन्होंने अस्थायी रूप से पलायन किया था. यानी, ये वो लोग थे जो रोजगार के लिए बाहर गए थे और उनका घर पर आना-जाना लगा रहता है.
वहीं, 23 गांवों के 449 लोग ऐसे थे जिन्होंने पूरी तरह से पलायन कर दिया था. इसका मतलब ये हुआ कि ये लोग अपनी जमीन-जायदाद, घर-बार बेचकर दूसरी जगह बस गए थे.
आंकड़े बताते हैं कि जोशीमठ से पलायन करने वाले 36 फीसदी से ज्यादा लोग ऐसे थे जिन्होंने रोजगार की तलाश में घर छोड़ा था. इनके अलावा 15 फीसदी ने चिकित्सा सुविधा और 28 फीसदी ने शिक्षा सुविधा की कमी के कारण पलायन किया था. इन सबके अलावा भी करीब 9 फीसदी लोग ऐसे थे जिन्होंने सड़क, बिजली और पानी जैसी बुनियादी जरूरतों की कमी की वजह से पलायन किया था.
सरकारी रिपोर्ट ये भी बताती है कि जोशीमठ से पलायन करने वाल करीब 35 फीसदी लोगों की उम्र 25 साल से कम थी. जबकि, 43 फीसदी लोग ऐसे थे जिनकी उम्र 26 से 35 साल के बीच थी. वहीं, 35 साल से ज्यादा की उम्र के बाद पलायन करने वालों की संख्या लगभग 23 फीसदी थी.
हालांकि, इस रिपोर्ट से ये भी सामने आता है कि पलायन करने वाले आधे से ज्यादा लोग आसपास के ही कस्बों में जाकर बस गए थे. 30 फीसदी ही ऐसे थे जो या तो दूसरे जिले चले गए थे या फिर राज्य से बाहर ही चले गए थे.
इस रिपोर्ट की मानें तो 10 साल में चमोली जिले में 26 गांव ही ऐसे थे जहां दूसरे गांव से आकर लोग बसे थे. जोशीमठ में ऐसे गांव सिर्फ तीन ही थे.
अनियोजित विकास पड़ा उल्टा!
उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत कहते हैं, 'इंसान बेहतर जीवन चाहता है और ये विकास के बिना संभव नहीं है. आर्थिक, सामाजिक या भौतिक, हर तरह के विकास का आखिरी मकसद मानव जीवन के स्तर को सुधारना है. ये प्राकृतिक संसाधनों से ही मिलता है, लेकिन इसके लिए अगर प्रकृति से ज्यादती की गयी तो उसका परिणाम जोशीमठ जैसा ही सामने आ सकता है.'
वो कहते हैं, 'प्रकृति से बेतहाशा छेड़छाड़ का ये पहला उदाहरण नहीं है. फरवरी 2021 में धौलीगंगा-ऋषिगंगा में बन रहे बिजली प्रोजेक्ट भी बाढ़ के कारण बंद हो गए. ये संदेश था कि अगर हिमालयी क्षेत्र में प्रकृति के साथ ज्यादती करोगे तो यही हाल होगा. उस बाढ़ में 200 से ज्यादा लोग मारे गए थे. अरबों रुपये की संपत्ति तबाह हो गई थी.'
उन्होंने बताया कि इससे पहले 2013 में केदारनाथ में बाढ़ आई थी. उसमें हजारों लोग मारे गए थे. उस बाढ़ ने मंदाकिनी नदी के ऊपर सरकार और लोगों के अतिक्रमण को एक झटके में बहा दिया था.
पत्रकार शीशपाल गुसाईं कहते हैं, 'उत्तराखंड जब उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा था, तब आगराखाल, ब्यासी काठगोदाम के ऊपर का हिस्सा विकास से अछूता था. लोग मीलों चलकर सड़क देखते थे और लगभग सभी गांव विकास से कोसों दूर थे. इसी विकास की भरपाई करने के लिए अलग राज्य की लड़ाई लड़ी गई. 45 लोगों की शहादत के बाद उत्तराखंड अलग राज्य बना.'
गुसाईं बताते हैं, 'अलग राज्य बनने के बाद पहाड़ों पर विकास के लिए जंगलों की अंधाधुंध कटाई हुई. पहाड़ों को सबसे ज्यादा नुकसान हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट्स ने पहुंचाया और हमारा ऊर्जा प्रदेश का सपना भी साकार नहीं हो पाया. मोटे तौर पर उत्तराखंड में 1,200 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है, लेकिन 3,000 मेगावाट से ज्यादा की खपत है. यानी हम आधी से ज्यादा बिजली बाहर से खरीदने को मजबूर हैं.'
जोशीमठ के धंसने का कारण क्या?
इस बारे में यशपाल सुंदरियाल बताते हैं, 'जोशीमठ के लोग जिस पानी का इस्तेमाल कर रहे हैं, वही पानी शहर के नीचे जा रहा है. इस वजह से फाइन मटैरियल और नीचे जा रहा है और वैक्यूम बन रहा है, जिसे भरने के लिए ऊपर के बोल्डर और इन्फ्रास्ट्रक्चर में फर्क पड़ रहा है और वो तिरछा हो रहा है.'
सुंदरियाल के मुताबिक जो ग्राउंड वॉटर सोर्स हैं, उनमें रिसाव हो रहा है और इस कारण पानी निकल रहा है.
क्या विकास के कारण जोशीमठ धंसा? इस पर सुंदरियाल कहते हैं, '1970 में जब ऐसी ही घटनाएं हो रही थीं, तब लोगों की मांग पर मिश्रा आयोग बनाया गया. आयोग ने शहर में विकास के लिए कई सारे सुझाव दिए थे, लेकिन निश्चित तौर पर उन सुझावों पर अमल नहीं किया गया.'
सुंदरियाल का कहना है कि अभी भी शहर का पुनर्निर्माण किया जा सकता है, लेकिन उसके लिए वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और सरकार को साथ बैठकर विचार-विमर्श करने की जरूरत है.
NTPC प्रोजेक्ट बना जोशीमठ की मुसीबत?
जोशीमठ के धंसने के लिए NTPC के एक हाइड्रो प्रोजेक्ट को भी जिम्मेदार माना जा रहा है. स्थानीय लोगों का आरोप है NTPC के हाइड्रो प्रोजेक्ट के लिए सुरंग खोदी गई, जिस वजह से शहर धंस रहा है.
दरअसल, NTPC यानी नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन चमोली जिले की धौलीगंगा नदी पर हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट पर काम कर रहा है, जिसका नाम है- तपोवन विष्णुगढ़ हाइड्रोपावर प्लांट. ये पावर प्लांट अलकनंदा नदी के नीचे बन रहा है और इसमें 130 मेगावॉट के चार पेल्टन टर्बाइन जनरेटर शामिल हैं. धौलीगंगा नदी पर बैराज बन रहा है.
कुल मिलाकर ये पावर प्लांट 520 मेगावॉट का हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट है. इसके बनने के बाद सालाना 2.5 टेरावॉट ऑवर (TWh) बिजली पैदा होने की उम्मीद है. इस प्रोजेक्ट की अनुमानित लागत 2,978.5 करोड़ रुपये है.
सुंदरियाल का कहना है कि जोशीमठ का मौजूदा संकट इंसानों ने ही खड़ा किया है. आबादी कई गुना बढ़ गई है, जिस वजह से पर्यटकों की संख्या भी बढ़ रही है. इसके अलावा बेकाबू तरीके से इन्फ्रास्ट्रक्चर बढ़ाया जा रहा है.
उन्होंने कहा कि हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के लिए सुरंग बनाई जा रही है और इसके लिए ब्लास्ट किए जा रहे हैं, जिस कारण मलबा निकल रहा है और घरों में दरारें पड़ रहीं हैं.