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करोड़ों की कारें, भव्य हॉल, आदमकद तस्वीरें और बाउंसरों की फौज....शिष्य ने कहा- शौकीन हैं हमारे गुरुजी, करौली आश्रम की आंखों देखी

इस रिपोर्ट में कोई हड़कंप नहीं. किसी बड़े खुलासे का दावा नहीं. यहां सिर्फ यह समझने की कोशिश है कि कुछ साल पहले कानपुर में जमीन माफिया कहलाता संतोष भदौरिया कैसे करौली सरकार में बदल गया. सरकार! जिसके पास मंत्री भी हैं, सेनापति भी. और प्रजा भी. ढेर की ढेर प्रजा. कोई लेप लगाकर डिप्रेशन भगा रहा है. कोई कैंसर की आखिरी स्टेज से लौट रहा है. यहां हर मर्ज की दवा है. बस, कीमत चुकानी होगी. पैसे देकर या जयकारे लगाकर.

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करौली सरकार इन दिनों लगातार चर्चा में है. (Graphic image- Aaj Tak)
करौली सरकार इन दिनों लगातार चर्चा में है. (Graphic image- Aaj Tak)

बाबा के मायाजाल को देखने सुबह 8 बजे हम कानपुर-दिल्ली हाईवे से करौली के लिए निकले. लोकेशन डाल रखी थी, लेकिन फिर समझ आया कि उसकी कोई जरूरत नहीं. रास्ते भर कोई न कोई बोर्ड दिखेगा, जो बताएगा कि कहां मुड़ें तो सीधा करौली सरकार के आश्रम पहुंचेंगे.

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वो आश्रम, जिसके मालिकनुमा बाबा पर नोएडा के एक डॉक्टर ने मारपीट का आरोप लगाया. आरोप और भी हैं. जमीन हड़पने के. बात न मानने पर धमकाने के. साथ चल रहा सोर्स दबी आवाज में कहता है- कई चक्कर हैं, लेकिन कोई नहीं कहेगा. 

कैसे चक्कर?

वो चुप हो जाता है. मैं कुरेदती हूं- आसाराम जैसे! वो चुप ही रहता है. आंखों में 'क्यों बोल दिया' जैसा डर और झुंझलाहट. 

लगभग घंटेभर बाद हमारी गाड़ी एक ऐसी सड़क से गुजरती है, जिसके दोनों तरफ मेला-ठेला सजा था. कोई फूल-पान बेच रहा है, कोई चाट-बतासे. एक ने घरेलू कपड़ों की दुकान सजा रखी है. चायवाले के पास टूथब्रश और लोशन दिख जाएगा. मुंह धोकर, कपड़े बदलने से लेकर खा-पीकर अघाने का पूरा सरंजाम. जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, दुकानें भी घनी होती जाएंगी. मतलब आश्रम करीब है. 

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गाड़ी रोककर तस्वीरें खींचने लगी तो किसी ने टोका- बाबाजी से मिलने जा रही हैं! मेरे हां कहने पर आंखें मूंदकर बोल पड़ा- 'त्रिकालदर्शी हैं. सब जान लेते हैं. सब हर लेते हैं. आपका भी कष्ट हर लेंगे'. वेलकम टू करौली-लैंड! दिल ही दिल में अपने कष्ट हरने के लिए बाबा की शरण में जाने की कल्पना करती हुए मैं आश्रम पहुंच चुकी थी.

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नारंगी रंग का एक किला, जिसके दोनों तरफ मगरमच्छ या खाईयां नहीं हैं, लेकिन चौकसी भरपूर है. कहीं भी जाएं, बाबा हर कोने में मिलेंगे. उनके आदमकद पोस्टर या नाम हर जगह खुदा दिखता है. मौजूदा आश्रम लगभग 14 एकड़ में फैला हुआ. लेकिन बाहर भी इसका साम्राज्य कम नहीं. एक लंबा-सा हॉल खुले में बना हुआ दिखा. ये डॉरमेट्री है, जहां फ्री की पूजा करने वाले ठहरते हैं. दौड़कर एक से दूसरे सिरे तक जाना चाहें तो कम से कम 5 मिनट लग जाएं, इतने लंबे-चौड़े हॉल में तीन ही पंखे लगे हुए. जमीन पर गद्दों में मरीज और तीमारदार सोए हुए. 

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हॉल की सीधी दीवार पर मोहर, यानी बाबाजी की विशालकाय तस्वीर मुस्कुरा रही है. 

सामने एक युवक दिखा, जिसके सिर पर जादुई लेप लगा हुआ था. पूछा तो पता लगा कि सालभर से डिप्रेशन का इलाज चल रहा था. फायदा नहीं हुआ तो उसे यहां लेकर आए. डिप्रेशन क्यों? एमबीबीएस की तैयारी कर रहे थे, दिमाग के बहुत तेज थे, ज्यादा पढ़ गए- पिता कुछ गर्व से बताते हैं. वाराणसी से आई पिता-पुत्र जोड़ी से पूछती हूं- साथ में कोई पर्चा है, तो दिखाइए. नहीं में सिर हिला. 

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अच्छा, आधार कार्ड ही दिखा दीजिए. वो तो जमा हो चुका- ये जवाब आता है. 
पता लगा कि आने पर पहचान पत्र जमा हो जाता है, जो जाते हुए मिलता है. 

यहां से निकलकर मेन किले की तरफ बढ़े तो गेट पर ही एक काउंटर दिखा. भंडारे में मदद की अपील करते काउंटर के सामने किताबें सजी हुईं. ये धर्म-दर्शन-इतिहास नहीं, बाबाजी का साहित्य है. किताब में हिंदी-अंग्रेजी में कहानियां ही कहानियां. आश्रम में हवन करते ही किसी का ब्लड कैंसर छूमंतर हो गया, कोई पैरों से लाचार लड़की दौड़ने लगी. डिप्रेशन के मरीज खुशदिल होकर दोगुना जीवन जीने की सोचने लगे. हर कहानी के साथ यूट्यूब लिंक और एक बार कोड. आप चाहें तो यूट्यूब पर उनको सीधा सुन सकते हैं.

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अब बारी थी करौली सरकार के किसी शिष्य से मिलने की. बात देर रात पक्की हो चुकी थी, लेकिन यहां माजरा बदल गया. हमें किले की दूसरे गेट पर रोक दिया गया. बंदूकधारी शख्स ने बड़ी देर फोन पर यहां-वहां बात करने के बाद आखिरकार दरवाजा खोला. सामने ही कई लोग वॉकीटॉकी लिए टहलते हुए. सबके-सब ग्रे रंग की सफारी में. सोर्स धीरे से कहता है- ये बाउंसर हैं. पहले हर जगह दिखते थे, लेकिन मीडिया के आने के बाद कम हो गए. अब शायद सिविल ड्रेस में होते हों. 

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लेकिन बाउंसरों से ज्यादा दिलचस्पी मेरी वहां के इंटीरियर में थी. भव्य, शानदार चीजें. दीवार पर एंटीक घड़ी टंगी हुई. टाइम उसपर रुका हुआ था. पेड़ पर चिड़िया के नकली घोंसले. सब के सब खाली. दीवारों पर नक्काशी. ऊपर जाने के लिए चौड़ी, आरामदेह सीढ़ियां. वहां एक हॉलनुमा कमरे में मुझे इंतजार करने को कह दिया गया. जाते हुए एक अटेंडेंट ने पूछा- कहां बैठेंगी, ऊपर या नीचे. कमरे में सारे इंतजाम थे. मैं नीचे बैठ गई. कीमती कालीन बिछा हुआ. पास में एक मसनद पर कुछ तस्वीरें और फूल चढ़े हुए. यहां भी बाबाजी की मोहर दीवार पर आपको देखती मिलेगी. 

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कुछेक मिनटों में अजय यादव नाम के एक शख्स पहुंचे. वो शायद मीडिया देखते होंगे. बातचीत से यही अंदाजा लगा. फैक्चुअल डिटेल सुनते हुए मैंने टोका- करौली सरकार बैठे-बैठे किडनी बदल देने की बात करते हैं. दिल्ली वाले यकीन नहीं करते. आपको काउंटर में कुछ तो करना चाहिए!

देखिए मैडम, वैदिक साइंस बड़ी चीज है. अभी मैं आपको एक उदाहरण देता हूं. मैं आपको छू नहीं रहा. प्रेम से बतिया रहा हूं. कोई चोट नहीं पहुंचा रहा. अब बैठे-बैठे मैं बहुत खराब शब्द कह दूंगा. आप भीतर से डर जाएंगी. पसीना आ जाएगा. मैं आपको छुऊंगा नहीं, लेकिन ये कर दूंगा. ये एनर्जी है. इसे ही समझने की जरूरत है. 

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करौली सरकार ने इन्हीं शिष्य से हमारी लंबी बातचीत हुई. 

वे आंखों में आंखें डाले बोल रहे थे. मैं सुनते हुए सब समझ रही थी. ये इशारा था कि मैं ज्यादा आगे न बढ़ूं. मैं रिस्क लेती हूं- अच्छा, बाबाजी का पास्ट तो खासा विवादित रहा. ऐसे में बहुत लोग भरोसा नहीं कर पाते. 

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सवाल खत्म होते ही जवाब आया- अब ऐसा है मैडम कि पास्ट तो वाल्मिकी का भी अच्छा नहीं था. फिर उन्होंने रामायण रच डाली. तो पास्ट सबका होता है. गलतियां सबसे हो सकती हैं. लेकिन फिर वही इंसान कुछ और बन जाता है.  

मुझे गर्मी लग रही थी. वाकई पसीना आने लगा. ये देखकर पास बैठे एक और शिष्य ने एसी चला दिए. कमरे में कई टन वाले कई एसी लगे हुए. इधर-इधर की बातों में वक्त लगाने की बजाए मैं आश्रम घूमना चाहती हूं. जाते-जाते सवाल किया- क्या पांचेक मिनट के लिए बाबाजी से मिल सकती हूं.

नहीं, वो सो रहे हैं. रातभर आप लोगों का इलाज करते हैं. अब इतना आराम तो हम उन्हें दे ही सकते हैं.

दिन के 11 बज चुके. मैं सोते हुए बाबाजी से बगैर मिले नीचे उतर आती हूं. घड़ी दोबारा दिखती है. ठिठके हुए टाइम वाली. मैं पूछती हूं- आश्रम का इंटीरियर किसने किया? गुरुजी ने. वे बड़े शौकीन हैं. हर चीज उन्होंने दूर-दूर से मंगवाई.

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वहां से निकली तो एक चेंज दिखा. जिस दरवाजे से मैं भीतर घुसी थी, उसपर एक पोस्टर चिपक चुका था- मीडिया टाइमिंग, दोपहर- 1 से 2 बजे.

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बाहर एक अलग ही दुनिया खुली हुई. सैकड़ों की भीड़ यहां से वहां जा रही थी. कहीं अनाउंसमेंट चल रहा था कि करौली बाबा को याद करने पर दुख-दवा सब छूट जाएगी. एक-एक कोने में करौली सरकार की आदमकद तस्वीरें. भूलने की कोई गुंजाइश नहीं. 

एक हॉल में स्मृति उपचार चल रहा था. सामने डेढ़ लखिया लोग बैठे थे, जिन्हें 24 घंटों के भीतर खराब किडनी, कैंसर, सफेद दाग और ब्लैक मैजिक से छुटकारा पाना था. इसके लिए उन्होंने रकम चुकाई थी. पास ही कई तरह की हवन किट रखी हुई. ये सिद्ध थी, यानी घर बैठे-बैठे आप बस हवन कर डालिए, मंत्रों के तामझाम की भी जरूरत नहीं. सब पहले से सिद्ध है. लेकिन इसकी भी कीमत चुकानी होगी. 

बाहर एक काउंटर पर लेप मिल रहा था. सिर पर लगाते ही ब्रेन की सूजन, डिप्रेशन और गुस्सा सब गायब होने की बात पोस्टर में लिखी थी. एक पैकेट की कीमत 14 सौ रुपए, जो पांच बार चलेगा.

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महंगे लेपन को एक बार ट्राय करने की इच्छा दबाते हुए मैंने पूछा- इसमें क्या-क्या डलता है. शिष्य हंसते हुए कहता है- 'ये तो गुरुजी का सीक्रेट है. आप कैसे जान सकती हैं! बाहर जंगलों से सारी चीजें आती हैं. लंदन से एमबीए करके आया उनका बड़ा बेटा ये डिपार्टमेंट देखता है'. जंगल और लंदन के इस मारक कॉम्बिनेशन पर बात करने की कोई कोशिश काम नहीं आई. शिष्य ने साफतौर पर मना कर दिया. 

14 एकड़ के कैंपस में जगह-जगह नई इमारतें बन रही हैं. एक हवन कुंड तैयार हो चुका है, जिसमें सैकड़ों लोग एक साथ हवन कर सकेंगे. घूमते हुए हम गैराज की तरफ पहुंचे. कारों को लेकर बाबाजी पहले भी चर्चा में रह चुके. भीतर घुसती हूं तो लंबी-चौड़ी कारों का काफिला दिखा. शिष्य सीना चौड़ा करते हुए कहते हैं- ऐसा शेड बनाया है कि किसी भी मौसम का कोई असर न हो. आग बुझाने वाले लगे हुए हैं. आखिर इतने साल गुरुजी ने घास तो नहीं छीली.

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महंगी कारों का पूरा काफिला यहां रहता है. हड़बड़ाने की वजह से तस्वीर पूरी नहीं आ सकी. 

बात काटते हुए मैंने सवाल दागा- कुल कितनी गाड़ियां हैं और करोड़ से ऊपर की कारें कितनी हैं? 
दो-तीन होंगी. गुरुजी काफी शौकीन हैं. यात्रा कार से ही करते हैं! हंसता हुआ जवाब आया.

सामने यस बैंक का एटीएम बना हुआ.

कुछ ही सालों में करौली सरकार का आश्रम नहीं, बल्कि साम्राज्य तैयार हो चुका. यहां प्रजा भी है. सेना भी. और मंत्री भी. सबके रोल देखते हुए मैं एक और हॉल पहुंची, जहां से चीखने की आवाजें आ रही थीं. यहां स्मृति मिटाने का प्रोग्राम चल रहा था. 

हॉल में लगभग 50 लोग होंगे. लगभग सभी शांति से आंखें मूंदे हुए. तीनेक लोग चीख रहे थे. ध्यान देती हूं तो लगता है कि चीख-पुकार की आवाज किसी माइक से आ रही है. रिकॉर्डेड आवाज, जिससे लगे कि पूरा हॉल ही चीखें मार-मारकर रो रहा है. 

करौली सरकार के शिष्य गर्व से कहते हैं- देखिए, जब आए थे, यही लोग ऐसे थे कि हमला करके आपको घायल कर देते. अब सिर्फ चिल्ला रहे हैं! 

सामने विशालकाय सोफा पर बाघ की छाल वाला कपड़ा पड़ा हुआ. बाबाजी इसपर विराजते होंगे. मैं चीख की रिकॉर्डिंग के बारे में बगैर सवाल किए ही बाहर निकल आई.

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हर हॉल में इससे कहीं विशालकाय सोफा सामने रखा है जिसपर बाबा विराजते हैं. 

मेरा आखिरी पड़ाव किचन था, जहां से मसाले भुनने की सौंधी महक आ रही थी. सुबह खाली पेट निकले भूख लग आई थी, लेकिन यहां नहीं खाने का इरादा पक्का था. ये कोई आम रसोई नहीं थी. सारे मॉडर्न उपकरण लगे हुए. आटा गुंथने की मशीनें. रोटी सेंकने की मशीनें. कहीं बड़ी कहाड़ में पूरियों पर पूरियां छनती हुईं. कहीं मशीन पर ही दाल फिंटती हुई. 

नाश्ते की कीमत- लगभग 40 रुपए. 

खाने की थाली- कुल 60 रुपए. 

जो चुका न सके, उसके लिए सब फ्री. पेट भरकर 'अनलिमिटेड' खाएं. अनलिमिटेड पर शिष्य जोर देते हैं. 

शौकीनों के लिए एक और स्टॉल है, जहां चाट-गुपचुप, मंचूरियन और फिंगर चिप्स जैसा चटर-पटर भी मिलेगा. कीमत वाकई में कम. मैं सोच में पड़ जाती हूं कि शायद बहुत से लोग यहां इलाज कम, पेट भरने के लिए ज्यादा आते होंगे. यही प्रजा है. अनलिमिटेड खाने के बदले राजा के जयकारे लगाती हुई. 

पास-पड़ोस के गांव भी प्रजा का हिस्सा हैं. वहां कच्चे मकान वालों ने जुगाड़ करके पक्के कमरे बनवा लिए. वहां एसी और अटैक लेटबाथ का इंतजाम कर लिया. आश्रम फुल होने पर लोग गांवों में होम-स्टे करते हैं.

बाहर निकल ही रही थी कि बाबा के शिष्य ने कहा- अभी हड़बड़ी में आईं, आगे समय बचाकर आइएगा. सब जान जाएंगी. मैं लगभग हकालते हुए ही विदा कर दी जाती हूं. ट्रेन का समय हो चुका. 

मेला-ठेला पार करते हुए मुख्य सड़क आ चुकी. दोनों ओर गेहूं के खेत. बारिश और ओलों से झुलसे हुए. लेकिन खेत में कोई नहीं दिखता. शायद अब इसकी कोई जरूरत भी नहीं. प्रजा के पास खेती के अलावा भी ढेरों ऑप्शन्स हैं.

 

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