Hijab controversy: कर्नाटक हाईकोर्ट ने मंगलवार को हिजाब केस पर सुनवाई करते हुए याचिका खारिज कर दी. साथ ही कहा कि स्टूडेंट्स स्कूल ड्रेस पहनने से इनकार नहीं कर सकते. हिजाब मुद्दे के पीछे 'छिपे हुए हाथ' हो सकते हैं. इतना ही नहीं, कोर्ट ने कहा कि जल्द ही इस मामले में 'गुप्त हाथों' की जांच पड़ताल पूरी होगी और सच सामने आएगा.
'2004 से पहले सब कुछ ठीक था'
हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि ड्रेस कोड को लेकर 2004 से सब कुछ ठीक था. क्योंकि राज्य में कोई वैमनस्य नहीं दिख रहा था. हम ये जानकर प्रभावित हुए कि मुसलमान धार्मिक नगरी उडुपी में 'अष्ट श्री मठ वैष्णव संप्रदाय' के त्योहारों में सभी लोग भाग लेते हैं. लेकिन इसके साथ ही ये बात हमें निराश कर गई कि आखिर कैसे अचानक, अकादमिक सत्र के बीच हिजाब का मुद्दा पैदा हुआ, जिसे बेवजह और जरूरत से ज्यादा हवा दी गई.
'अशांति और द्वेष फैलाने की कोशिश की गई'
जिस तरह सामाजिक अशांति और द्वेष फैलाने की कोशिश की गई, वो सबके सामने है. इसमें अब बहुत कुछ बताने की जरूरत नहीं है. हालांकि हम इस मामले पर टिप्पणी नहीं करेंगे, ताकि पुलिस जांच प्रभावित ना हो. हमने इस मामले की जांच से संबंधित सीलबंद लिफाफे में दिए गए पुलिस के कागजात देखे हैं. हम जल्द और सटीक जांच की उम्मीद करते हैं, ताकि दोषियों को गिरफ्तार किया जा सके.
कोर्ट ने किताब में छपे लेख का जिक्र भी किया
अपने फैसले में कर्नाटक हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ ने कुछ विद्वानों को उद्धृत करते हुए अपने फैसले को मजबूत आधार दिया है. फैसले की शुरुआत में पीठ ने अमेरिकी लेखिका सारा स्लिनिंगर की पुस्तक में छपे लेख veiled women: hijab, religion and cultural practice -2013 यानी 'पर्दा: हिजाब, मजहब और तहजीब' को उद्धृत करते हुए लिखा है कि हिजाब का इतिहास बहुत पेचीदा है. क्योंकि इसमें समय-समय पर मजहब और तहजीब का भी असर है. इसमें कोई शक नहीं कि कई महिलाएं समाज की ओर से डाले गए नैतिक दबाव की वजह से पर्दानशीं रहती हैं, जबकि कई इसलिए खुद को पर्दे में रखती हैं, क्योंकि कई अन्य वजह से वो इसे अपनी पसंद मान लेती हैं. कई बार जीवन साथी, परिवार और रिश्तेदारों की सोच का असर भी होता है. तो कई बार वो पर्दे में रहना इसलिए भी स्वीकार करती है, क्योंकि उनका समाज इसी आधार पर उस महिला के प्रति अपनी राय बनाता है. लिहाजा इस मामले में कुछ भी राय बनाना बेहद पेचीदा है.
अंबेडकर की किताब का हवाला दिया
हाईकोर्ट ने कहा कि इस सिलसिले में डॉ. बीआर अंबेडकर के विचार भी समीचीन हैं. बाबा साहब ने अपनी किताब 'पाकिस्तान और द पार्टिशन ऑफ इंडिया' (1945) के दसवें अध्याय में लिखा है कि 'एक मुस्लिम महिला सिर्फ अपने बेटे, भाई, पिता, चाचा ताऊ और शौहर को देख सकती है. या अपने उन रिश्तेदारों को, जिन पर विश्वास किया जा सकता है. वो मस्जिद में नमाज अदा करने भी नहीं जा सकती. बिना बुर्का पहने वो घर से बाहर भी नहीं निकल सकती. तभी तो भारत के गली-कूचों-सड़कों पर आती जाती बुर्कानशीं मुस्लिम औरतों का दिखना आम बात है.
'मुसलमानों में भी हिंदुओं की तरह सामाजिक बुराई'
कोर्ट ने अंबेडकर की किताब का हवाला देते हुए कहा कि मुसलमानों में भी हिंदुओं की तरह कई जगह उनसे भी ज्यादा सामाजिक बुराइयां हैं. अनिवार्य पर्दा प्रथा भी उनमें से ही एक है. उनका मानना है कि उससे उनका शरीर पूरी तरह ढका होता है. लिहाजा शरीर और सौंदर्य के प्रति सोचने के बजाय वो पारिवारिक झंझटों और रिश्तों की उलझनें सुलझाने में ही उलझी रहती हैं. क्योंकि उनका बाहरी दुनिया से संपर्क कटा रहता है. वो बाहरी सामाजिक कार्यकलाप में हिस्सा नहीं लेतीं, लिहाजा उनकी गुलामों जैसी मानसिकता हो जाती है. वो हीन भावना से ग्रस्त कुंठित और लाचार किस्म की हो जाती हैं. कोई भी भारत में मुस्लिम औरतों में पर्दा प्रथा से उपजी समस्या के गंभीर असर और परिणामों के बारे में जान सकता है.