कर्नाटक के मूर्तिकार अरुण योगीराज चर्चा में हैं. उन्होंने रामलला की जिस मूर्ति को तराशा है, उसे अयोध्या में नए राम मंदिर के गर्भगृह में स्थापित कर दिया गया है. अरुण योगीराज खुद को 'सबसे भाग्यशाली व्यक्ति' मानते हैं. अरुण कहते हैं कि ऐसा लगता है जैसे 'एक सपना जी रहे हैं. अरुण वर्तमान में देश में सबसे अधिक डिमांड वाले मूर्तिकार हैं. उन्होंने कई मूर्तियां बनाई हैं. लेकिन इससे पहले कभी भी पूरी दुनिया उनकी बनाई किसी मूर्ति का इतनी बेसब्री से इंतजार नहीं कर रही थी. आजतक ने अरुण योगीराज से खास बातचीत की है.
अरुण योगीराज ने 5 साल के राम के रूप की मूर्ति को तराशा है, जिसकी ऊंचाई 51 इंच है. उन्होंने बातचीत में बताया कि एक कलाकार भक्त के हृदय में भगवान कैसे उतरते हैं और मतिष्क तक जाते है. फिर पत्थर में समाहित होते और मूर्ति भगवान का आकार लेती है.
'दिन-रात सिर्फ मूर्ति तराशने के बारे में सोचते थे'
अरुण योगीराज कहते हैं कि मुझे बहुत बड़ी जिम्मेदारी दी गई थी. 7 महीने से मूर्ति को तराशने के काम में लगे थे. दिन-रात सिर्फ यही सोचते थे कि देश को भगवान के दर्शन कैसे करवाएंगे. सबसे पहले हमने पांच साल के बच्चों की जानकारी जुटाई. पांच साल के बच्चे के अंदर राम भी ढूंढने की चुनौती थी. आज पूरी दुनिया खुश है तो हमें बहुत आनंदित महसूस हो रहा है. रामलला सारे देश के हैं. रामलला पर देश की जनता का प्यार देखने को मिल रहा है.
'अपनी पांचवी पीढ़ी का आर्टिस्ट हूं'
अरुण योगी राज कहते हैं कि हमारा परिवार 300 साल से मूर्ति तराशने का काम करता आ रहा है. मैं पांचवीं पीढ़ी का आर्टिस्ट हूं. राम की कृपा से ही काम मिलते हैं. पूर्वजों का आदर्श है. मेरे पिता ही मेरे गुरु हैं. 300 साल से काम कर रहे थे, भगवान ने बोला कि आओ और मेरा काम करो. मैं दुनिया का बहुत भाग्यशाली इंसान हूं.
'बच्चों के साथ ज्यादा वक्त बिताता था'
राम लला की मुस्कान पर अरुण योगीराज कहते हैं कि पत्थर में आपके पास काम करने का सिर्फ एक ही मौका होता है. सुधार करने का मौका कम ही रहता है. पत्थर के साथ एक भाव बाहर लेकर आना होता है. पत्थर के साथ आपको बहुत वक्त भी बिताना जरूरी होता है. मैंने एक हजार से ज्यादा फोटो सेव करके रखी थीं. बच्चों के बारे में जानकारी लेने के लिए उनके साथ ज्यादा वक्त बिताता था. काम पर फोकस रखने के लिए बाहरी दुनिया से अलग हो गया था. अनुशासन बनाया और तय किया कि पत्थर के साथ ज्यादा समय देना है. अगले दिन के काम के बारे में होमवर्क करना दिनचर्या में शामिल था. बच्चों के चेहरे को दिमाग में रखना है. किसी बच्चे के मुस्कुराने पर चेहरे में क्या-क्या बदलाव होते हैं, वो सब समझना होता था. मेरे रामलला ने मुझे आदेश दिया और मैंने फॉलो किया.
'चिंता यह थी कि देश के लोगों को पसंद आएगी या नहीं?'
अरुण कहते हैं कि काम तो मैं कर रहा था, लेकिन मुझसे क्या बनवाना है- ये रामलला ही तय करते थे. यही भाव में मुझे काम करते वक्त आते थे. पिछले सात महीने मैंने पत्थर के साथ बहुत भावनात्मक रूप से बिताए. मेरा एक बेटा और बेटी भी है. मैं सिर्फ 7 साल की बेटी के साथ बात करता था और काम करके उसे मूर्ति का फोटो दिखाता था. मैं पूछता था कि कैसी दिख रही है? तो बच्ची ने जवाब दिया- बच्चे जैसा ही है अप्पा. मुझे काम करते वक्त यह भी टेंशन थी कि देश के लोगों को पसंद आएगी या नहीं? मगर दो दिन के बाद देश इतना प्यार दे रहा है, जिसे बयां नहीं कर सकते हैं.
'दीपावली की तस्वीरें देखकर मिली प्रेरणा'
अरुण कहते हैं कि दीपावली के दिन अयोध्या में मुझे बहुत जानकारी मिली. वैसे आमतौर पर मैं पत्थर में दो घंटे में कोई भी चेहरा बना सकता हूं, लेकिन, रामलला की मूर्ति तराशने में स्थितियां अलग थीं. हमारे पास बहुत सारी तस्वीरें और जानकारियां थीं. दीपावली मनाने के बाद रात में मैंने दो तीन फोटो देखीं. इसमें बच्चे अपने माता-पिता के साथ दीपावली सेलिब्रेट कर रहे थे. बच्चों की मनोभावना देखने और समझने का मौका मिल गया था.
'गर्भगृह में मूर्ति को देखा तो पहचान नहीं पाया'
रामलला की आंखों के बारे में अरुण योगी राज कहते हैं कि मैं आमतौर पर 10 अलग-अलग तरीकों से आंख बना सकता हूं. मैंने एक आंख बना दी. लेकिन बहुत टेंशन हो गई. अच्छा हुआ या नहीं, यह सोच रहा था. अपने दोस्तों से पूछता था कि आंखें अच्छी दिख रही कि नहीं. मेरे दोस्तों ने मुझे प्रोत्साहित किया. मूर्ति निर्माण होते समय अलग दिखती थी. लेकिन प्राण-प्रतिष्ठा होने के बाद अलग ही फीलिंग आ रही थी. मुझे लग रहा था कि ये मेरा काम नहीं है. ये तो बहुत अलग दिख रही है. जैसे भगवान ने अलग ही रूप ले लिया है. जिस रामलला को सात महीने तक गढ़ा, उसे प्राण-प्रतिष्ठा के बाद मैं खुद नहीं पहचान पाया था. गर्भगृह में जाते ही बहुत बदलाव हो गया. दो दिन के बाद बहुत प्यार आ रहा है. मैं भगवान से कहता था कि पूरे देश के देखने से पहले मुझे आपको देखना है, मुझे अपने दर्शन दे दीजिए. यही वजह है कि मुझे लगातार प्रेरणा मिलती रही.
'रोज बंदर आकर करता था दर्शन'
अरुण योगी राज कहते हैं कि जब वो मूर्ति तराशने का काम करते थे, तब हर दिन शाम 5 बजे एक बंदर आ जाता था. फिर कुछ ठंड के कारण हमने कार्यशाला के तिरपाल को ढक दिया तो वो बंदर बाहर आया और जोर-जोर से खटखटाने लगता था. ये बंदर हर रोज शाम 4-5 बजे के बीच आ जाता था. मैंने ये बात चंपत राय जी को भी बताई थी. शायद उनका (हनुमान जी) भी देखने को मन हो. नक्काशी के दौरान वो किस्सों और आश्चर्य से गुजरे. अरुण कहते हैं कि मैं 7 महीने तक ठीक से सो नहीं पाया. सोने के बाद भी दर्शन होते थे.