कर्नाटक का रण कांग्रेस जीत चुकी है और इसी के साथ भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी में एक नए तरह का कॉन्फिडेंस देखा जा रहा है. यह आत्मविश्वास अगले साल 2024 में होने जा रहे लोकसभा चुनावों को लेकर है. असल में कर्नाटक की जीत ने कांग्रेस के सामने ये उदाहरण पेश किया है कि अगर बहुत कसी हुई रणनीति हो और स्थानीय मुद्दों को ठीक से जनता के बीच उठाया जाए तो भाजपा के विजय रथ को रोका जा सकता है और केंद्र की जिस राजनीति से कांग्रेस बीते 9 साल से हाशिये पर है, वहां फिर से बढ़त बनाई जा सकती है.
2024 के लिए जारी है तैयारी
2024 के लिए कांग्रेस ने तैयारी शुरू भी कर दी है. विपक्ष की एकता को लेकर वह सभी विपक्षी नेताओं को एक छाते के नीचे लाने की योजना पर काम कर रही है, लेकिन, कई मोर्चों पर इस छत के नीचे खींचतान दिख जाती है. विपक्षी एकता वाली गुटबंदी के बीच जहां ये सवाल बड़ा है कि इसका अगुआ कौन होगा, वहीं सबसे बड़ी चुनौती इस एकता को बनाए रखना भी है. 2024 लोकसभा चुनाव को सिर्फ एक साल बचा है और ऐसे समय में 'विपक्षी एकता की दीवार' में 'दरार' बड़े राजनीतिक नुकसान की वजह बन सकती है. ये दरार कभी एनसीपी चीफ शरद पवार के तौर पर दिखती है, कभी केसीआर के नाम पर और कभी-कभी दिल्ली सीएम केजरीवाल भी इस भूमिका में नजर आते हैं.
राजनीतिक महत्वकांक्षा है वजह
एकता की इस दरार के पीछे की वजह क्या हो सकती है? जानकार कहते हैं कि इसके पीछे वजह सिर्फ एक है, राजनीतिक महत्वाकांक्षा. एनसीपी चीफ शरद पवार के मामले में तो ये साफ नजर आता है. बीते दिनों उन्होंने खुद को हर उस लीक से किनारे कर लिया, जिस पर चलकर कांग्रेस विपक्षी एकता को मजबूत करने के सपने देख रही थी और बीजेपी पर भारी पड़ने के मंसूबे पाले थी. पीएम मोदी की डिग्री मामले से शरद पवार ने खुद को अलग किया. अडाणी मामले में जांच समिति बनाए जाने को लेकर उनका रुख अलग था. उन्होंने कांग्रेस को सावरकर मामले में भी गुगली दे दी और महा विकास अघाड़ी को लेकर उन्होंने कहा कि, 2024 में होने वाले चुनाव में साथ रहेंगे या नहीं, इसके बारे में अभी से कुछ बोला नहीं जा सकता.
शरद पवार, कई बार कर चुके हैं विपक्षी एकता से किनारा!
शरद पवार के इस रुख को लेकर, आज तक के वरिष्ठ पत्रकार ऋत्विक भालेकर कहते हैं कि पार्टी में ही नहीं राजनीति में भी शरद पवार का वर्चस्व बना हुआ है. शरद पवार की महत्वाकांक्षा रही है कि वह राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा चेहरा बनें और लीडर की भूमिका में सामने आएं, लेकिन कांग्रेस के रहते यह मंशा पूरी होती नहीं दिखती है. यही स्थिति 1999 में भी थी. अब इधर कांग्रेस या ऐसा कह लें कि गांधी परिवार से कोई सदस्य पीएम बनने की संभावनाओं के साथ आगे बढ़ता है तो सवाल उठता है कि क्या शरद पवार उसे लीडर मानेंगे? ये बात अगर राहुल गांधी को केंद्र में रखकर की जाए तो शरद पवार उनसे कहीं ज्यादा सीनियर लीडर हैं, इसलिए राहुल गांधी पर शरद पवार स्वीकृति देंगे, ऐसा गारंटी से नहीं कहा जा सकता.
केसीआर को लेकर भी स्थिति स्पष्ट नहीं
ऐसी ही कुछ बातें केसीआर को लेकर भी सामने आती हैं. विपक्षी एकता और थर्ड फ्रंट बनाने को लेकर जब कई तरह के दावे होते हैं तो इसमें केसीआर का नाम भी आता है, लेकिन कई मौकों पर केसीआर अलग ही राह पर चलते दिखते हैं. दूसरी ओर केसीआर, लगातार कांग्रेस के सामने प्रमुख टक्कर देने वालों के तौर पर उभर रहे हैं. तेलंगाना में इस साल चुनाव होने वाले हैं, जहां कांग्रेस से केसीआर की पार्टी का सीधा मुकाबला है. साल 2018 चुनाव में भी कांग्रेस दूसरे नंबर की पार्टी थी. तब केसीआर को 47.4 प्रतिशत वोट के साथ 88 सीटें मिली थीं, जबकि कांग्रेस 28.7% वोट के साथ 19 सीटों पर काबिज हुई थी. ऐसे में कांग्रेस केसीआर को भी मुख्य विपक्षी के तौर पर ही देखती है. केसीआर ने हाल ही में महाराष्ट्र में अपनी पार्टी के विस्तार का ऐलान किया है. अगर केसीआर अपनी कोशिशों में सफल होते हैं, तो कांग्रेस को राज्य में नुकसान उठाना पड़ सकता है.
केसीआर ने कसा है तंज
दूसरी ओर केसीआर ने कर्नाटक में कांग्रेस की जीत को लेकर भी तंज कसा है. तेलंगाना सीएम केसीआर ने कहा कि 'हाल ही में आपने कर्नाटक चुनाव देखा है, बीजेपी सरकार हार गई और कांग्रेस सरकार जीत गई. कोई जीत गया, कोई हार गया. लेकिन क्या बदलेगा? क्या कोई बदलाव होगा? नहीं, कुछ बदलने वाला नहीं है. पिछले 75 सालों से कहानी दोहराई जाती रहती है, लेकिन उनमें कोई बदलाव नहीं है.' उन्होंने कांग्रेस को लेकर ये तंज किया है और अब वह इशारे में कह रहे हैं कि कर्नाटक में कुछ भी बदलने वाला नहीं है.
केसीआर का ये तंज, ऐसे समय में सामने आया है, जब लोकसभा चुनाव को महज एक साल बचा है और विपक्षी राजनीतिक दल, बीजेपी के खिलाफ एक साथ चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी में जुटे हैं. इन सभी का एक लक्ष्य बीजेपी को हराना है. ऐसी ही बात केसीआर अपने हाल ही में किए गए कई राजनीतिक दौरों में कह चुके हैं. बीते दिनों बिहार सीएम नीतीश कुमार ने भी बीजेपी को हराने के लिए एकजुट होने की बात कही थी, वहीं राहुल गांधी की सदस्यता जाने के बाद, कांग्रेस विपक्षी एकता से जुड़े इस अभियान में और तेजी से जुट गई है.
क्या ममता बनर्जी भी तोड़ सकती हैं विपक्षी एकता?
विपक्षी एकता की बात होती है पूर्वी राज्य पं. बंगाल का जिक्र किए बिना ये पूरी नहीं हो सकती. सीएम ममता बनर्जी का रुख भी विपक्षी एकता को लेकर बहुत क्लियर नहीं है. शुक्रवार को उन्होंने कर्नाटक में सिद्धारमैया के शपथ ग्रहण में अपनी सांसद प्रतिनिधि को भेजने का फैसला किया है, जबकि वह इस कार्यक्रम में आमंत्रित थीं. उन्होंने कर्नाटक के सीएम के शपथग्रहण समारोह से दूरी बनाते हुए अपनी प्रतिनिधि को कार्यक्रम में भेजने का फैसला किया है. इसकी जानकारी देते हुए सांसद डेरेक ओब्रायन ने कहा कि टीएमसी सांसद काकोली घोष दस्तीदार बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ओर से कर्नाटक के मनोनीत मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार के शपथग्रहण समारोह में शामिल होंगी.
बीते दिनों सीएम ममता ने कहा था कि, जहां भी कांग्रेस मजबूत है, उन्हें लड़ने दीजिए. हम उन्हें समर्थन देंगे, इसमें कुछ भी गलत नहीं है. लेकिन उन्हें अन्य राजनीतिक दलों का भी समर्थन करना होगा.’ ममता बनर्जी ने 2024 के चुनावों में कांग्रेस का समर्थन करने पर कहा था कि 'वे क्षेत्रों में कांग्रेस का समर्थन करने के लिए तैयार हैं, बशर्ते वे पश्चिम बंगाल में मेरा समर्थन करें. इसके अलावा कई मौकें पर टीएमसी और कांग्रेस में दोराहे वाली स्थिति नजर आती रही है.
किस हद तक कांग्रेस का साथ देंगे केजरीवाल?
दिल्ली सीएम केजरीवाल की स्थिति भी विपक्षी एकता को लेकर स्पष्ट नहीं कही जा सकती. यह भी तय नहीं है कि वह कांग्रेस का साथ किस हद तक देंगे. आम आदमी पार्टी का जन्म ही कांग्रेस विरोध के साथ हुआ है. इसके अलावा दिल्ली-पंजाब में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच की राजनीतिक रार किसी से छिपी नहीं है. एक तरफ जिस शराब घोटाले की जांच की आंच सीएम केजरीवाल तक पहुंची थी, वह मामला कांग्रेस का उठाया हुआ था. वहीं पंजाब में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया है.
जब सीएम केजरीवाल को सीबीआई ने पूछताछ के लिए बुलाया था तो उससे पहले कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने उन्हें कॉल किया था, लेकिन अभी ताजा उदाहरण देखें तो सीएम केजरीवाल उस लिस्ट में शामिल हैं, जिन्हें सिद्धारमैया के शपथग्रहण समारोह में नहीं बुलाया गया है. इसे लेकर सौरभ भारद्वाज ने कहा कि, इसमें क्या बड़ी बात है, कोई बुलाता है और कोई नहीं.' इसलिए विपक्षी एकता वाली दीवार में केजरीवाल मजबूत ईंट बनेंगे या नहीं, कहना मुश्किल है.