24 अप्रैल 1973...ये वो तारीख है जब भारत में दो अहम बातें हुईं. इस दिन को भारत की यात्रा का एक मोड़ भी आप कह सकते हैं. क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर का जन्म इसी दिन यानी कि 24 अप्रैल 1973 को हुआ था. अब ये बताने की जरूरत नहीं कि जिस दिन सचिन पैदा हुए उसका हमारे लिए क्या महत्व है.
इसी दिन भारत के न्यायिक शास्त्र के इतिहास में एक और परिघटना हुई. ये घटना थी 'केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य' में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला. ये वो केस था जिसने हमें याद दिलाया कि सरकारें संविधान से ऊपर नहीं हो सकती हैं. इस केस ने हमें बताया कि भारत में सत्ता का स्रोत संविधान है. संविधान सुप्रीम है. संसद संविधान में संशोधन कर सकती है लेकिन संविधान को संशोधित करने की संसद की शक्ति असीमित नहीं है.
केशवानंद भारती इस मुकदमे में मुख्य याचिकाकर्ता थे. 6 सितंबर 2020 को 79 साल की उम्र में केरल में उनका निधन हो गया. केशवानंद भारती की अपील पर ही सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत का प्रतिपादन किया. ये सिद्धांत कहता है कि संविधान का मूल ढांचा (Basic structure) नहीं बदल सकता है.
संसद की संविधान संशोधन की शक्तियां असीमित नहीं
आज जब देश में प्रचंड बहुमत की सरकार हैं तो कई बार संविधान की मूल भावना को लेकर चिंता जताई जाती है. कहा जाता है कि संविधान की मूल भावना के साथ संसद में बहुमत के दम पर समझौता किया जा सकता है. लेकिन इस केस के बहाने सुप्रीम कोर्ट ने 47 साल पहले ही संविधान संशोधन को लेकर संसद की शक्तियों की सीमा तय कर दी थी, एक लक्ष्मण रेखा खींच दी थी. इस रेखा के बाहर चुनी हुई सरकारों को भी बाहर जाने की इजाजत नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट क्यों गया मठ का महंत
केशवानंद भारती केरल के कासरगोड़ स्थित इडनीर मठ के प्रमुख थे. 19 साल की आयु में ही उन्होंने संन्यास ले लिया था और इडनीर मठ के प्रमुख बन गए थे. साठ-सत्तर के दशक में इस मठ के नाम सैकड़ों एकड़ जमीन थी.
1969 में केरल सरकार भू-सुधार कानून लेकर आई और मठ की 400 एकड़ जमीन का टेकओवर कर लिया. केरल सरकार के इस फैसले के बाद मठ की आय में जबर्दस्त गिरावट आई.
युवा महंत केशवानंद भारती इस मामले को अदालत में ले गए. हाई कोर्ट में तो उन्हें कामयाबी नहीं मिली. इसके बाद केशवानंद ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. उन्होंने अदालत से संविधान द्वारा अनुच्छेद 25, 26, 14, 19 और 31 के तहत प्रदत्त अधिकारों को लागू कराने की मांग की. केशवानंद भारती का कहना था कि सरकार का बनाया कानून उनके संवैधानिक अधिकार के खिलाफ है.
सुप्रीम कोर्ट में गठित हुआ अबतक का सबसे बड़ा बेंच
तब देश की प्रधानमंत्री थीं इंदिरा गांधी. ये मामला काफी अहम था, क्योंकि इससे संविधान के बरक्स संसद की ताकत यानी कि सरकार की ताकत यानी प्रधानमंत्री की ताकत तय होने वाली थी. इंदिरा चाहती थीं कि सुप्रीम कोर्ट ये फैसला केरल सरकार के पक्ष में दे.
मामले की सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 13 जजों की एक भारी-भरकम बेंच बनाई. आजाद भारत के न्यायिक इतिहास में पहली बार इतनी बड़े बेंच का गठन किया गया. उस समय देश के मुख्य न्यायाधीश थे एसएम सीकरी. केशवानंद भारती की ओर से सुप्रीम कोर्ट में मुकदमे की पैरवी कर रहे थे प्रख्यात वकील नाना पालकीवाला.
68 दिन तक लगातार सुनवाई
इस मामले में 31 अक्टूबर 1972 से सुनवाई शुरू हुई और 23 मार्च 1973 तक चली. जबकि फैसला सुनाया गया 24 अप्रैल 1973 को.
'संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर को नहीं बदल सकती संसद'
इतने अहम मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के 13 जज एकमत नहीं हो पाए. सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने 7:6 के बहुमत से फैसला सुनाया. अदालत ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का मूल ढांचा अनुल्लंघनीय है और संसद भी इसमें बदलाव नहीं कर सकती है. अदालत ने कहा कि संसद अपने संशोधन के अधिकार का इस्तेमाल कर संविधान की मूल भावना को बदल नहीं सकती है.
जिन सात जजों ने संविधान को सर्वोपरि माना उनके नाम थे, तत्कालीन CJI एस एम सीकरी, जस्टिस के एस हेगड़े, ए के मुखरेजा, जे एम शेलात, ए न ग्रोवर, पी जगमोहन रेड्डी और एच आर खन्ना. जबकि इस फैसले से असहमति रखने वाले जजों में थे जस्टिस ए एन रे, डी जी पालेकर, के के मैथ्यु, एम एच बेग, एस एन द्विवेदी और वाई के चंद्रचूड़.
संविधान संशोधन की संसद की शक्ति असीमित नहीं
अदालत ने कहा कि संसद के पास अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन करने की शक्ति तो है लेकिन ये शक्ति असीमित नहीं है. संविधान का संशोधन तभी तक मान्य है जब तक वो संविधान की प्रस्तावना के मूल ढांचे को नहीं बदलता है. इसके अलावा अदालत ने कहा कि और कोई भी संशोधन संविधान की प्रस्तावना की भावना के खिलाफ नहीं हो सकता है.
क्या है संविधान की मूल भावना
अगर हम आम बोल चाल की भाषा में सवाल करें तो ये पूछा जा सकता है कि संविधान की मूल भावना क्या है? अथवा संविधान की प्रस्तावना का मूल ढांचा क्या है? इसका जवाब ये है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने न्यायिक समीक्षा, धर्मनिरपेक्षता, स्वतंत्र चुनाव, संघीय ढांचा, संसदीय लोकतंत्र को संविधान की मूल भावना कहा है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सार यही था कि संसद संविधान में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन ये संशोधन तभी तक विधिसम्मत है जब इससे संविधान की मूल भावना का क्षरण न हो.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया ये फैसला न्यायिक शास्त्र में एक सिद्धांत बन गया. इसे 'संविधान की मूल संरचना सिद्धांत' कहा गया. सुप्रीम कोर्ट की यह ज्यूडिशयल थ्योरी आगे चलकर कई अहम फैसलों की बुनियाद बनी.
संविधान सर्वोच्च है, सरकार से भी ऊपर
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मुकदमे से भारत में डंके की चोट पर ये स्थापित हो गया कि देश में संविधान सर्वोच्च है. इससे ऊपर संसद भी नहीं है जहां जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि आते हैं. माना जाता है कि अगर सुप्रीम कोर्ट संसद को संविधान में संशोधन का असीमित अधिकार दे देती तो शायद देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था का भी फलना-फूलना मुश्किल हो जाता.
निरस्त हुए इंदिरा के कई संवैधानिक संशोधन
इस फैसले की वजह से इमरजेंसी के दौरान इंदिरा सरकार के द्वारा किए गए कई संशोधन निरस्त हो गए. इंदिरा गांधी ने संविधान का 39वां संशोधन किया था. इसके अनुसार राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा स्पीकर और प्रधानमंत्री के चुनाव को किसी भी तरह की चुनौती नहीं देने का प्रावधान था. 41वें संशोधन के मुताबिक राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और राज्यपालों के खिलाफ किसी भी तरह का केस नहीं किया जा सकेगा. न उनके कार्यकाल के दौरान, न कार्यकाल खत्म होने के बाद.
इन सब संशोधनों पर बाद में जब सुप्रीम कोर्ट में 'संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर में बदलाव नहीं' की रोशनी में बहस हुई तो इंदिरा की आभा धूमिल हो गई. अदालत ने इन संशोधनों को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया.