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Mahakumbh 2025: वेदों की परंपरा, सदियों का रिवाज हूं, मैं प्रयागराज हूं... आस्था के इस जमघट में आपका स्वागत

मैं प्रयागराज बाहें फैलाए आपका स्वागत कर रहा हूं. यह जो दिव्य काल 144 वर्ष के अद्भुद संयोग से आया है और जिसे  ग्रहों-नक्षत्रों ने 'महाकुंभ' की संज्ञा दी है, मैं आपको इस एक माह के पुण्य आयोजन के लिए आमंत्रित कर रहा हूं. आप आइए और मनुष्यता से वैसे ही मिल जाइए, जैसे यहां गंगा और यमुना का जल मिल रहा है. जब सबके सुर एक साथ मिलेंगे और जोर से कहेंगे... हर-हर गंगे. हर-हर महादेव...

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महाकुंभ 2025 की आज से हो रही है शुरुआत
महाकुंभ 2025 की आज से हो रही है शुरुआत

मैं प्रयाग हूं, प्रयागराज... वही तीर्थों का राजा प्रयाग, जिसके ऊपर का फैला आकाश आज हर-हर महादेव, हर-हर गंगे के जय घोष से गुंजायमान है. वह देवभूमि जिसे सरस सलिल पुण्यमयी धारा गंगा खुद सींचती है और जहां की भूमि पर बहना देवी यमुना अपना सौभाग्य समझती हैं. मैं वह दिव्य भूमि प्रयाग हूं, जिसकी मिट्टी में सरस्वती की पवित्र धारा का भी आशीष समाया है और जैसे वरदान सिर्फ महसूस किए जा सकते हैं, देखे नहीं जा सकते, ठीक उसी तरह ज्ञान की यह सारस्वत धारा युगों से मेरी मिट्टी में प्रवाहित है. इस तरह मैं प्रयागराज गंगा-यमुना-सरस्वती के त्रिवेणी संगम का पवित्र स्थान बना हुआ हूं. यह कोई आज-कल या परसों-वर्षों की बात नहीं है, यह तो युगों पहले की विरासत है, जो मेरी ही जमीन में फलती-फूलती और विकसित होती रही है. 

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ऋग्वेद ने सबसे पहले बिना मेरा नाम लिए इशारों में ही मेरा जिक्र किया और कहा कि, गंगा के श्वेत निर्मल जल और यमुना के श्यामल जल के संगम में स्नान करने वाला मोक्ष का अधिकारी है, और जो यहां शरीर का त्याग करते हैं, उन्हें अमरता मिलती है. अब गंगा और यमुना का जल एक साथ सिर्फ और सिर्फ मेरे ही माटी में मिलता रहा है तो मैं मान लेता हूं कि अध्यात्म की दिशा तय करने वाले प्रथम वेद ने ये ऋचा मेरी ही प्रशंसा में रची थी. 
सितासिते सरिते यत्र सङ्गते तत्राप्लुतसो दिवमुत्पतन्ति। ये वै तन्वं विजृजन्ति धीरेस्ते जनसो अमृतत्वं भजन्ते। ( ऋग्वेद, खिलसूक्त)

मैं ही वो भूमि हूं, जिसकी गोद में प्रलय भी खेलती रही है और जीवन के बीज का अंकुरण भी हुआ. संगमतट पर हरी कोपलों संग खड़ा और आज की बदली हुई हवा में भी शान से सरसराते हरे सुंदर पत्तों से सजा अक्षय वट मेरी इसी बात की गवाही देता है. विश्वास न हो तो पद्म पुराण खोलकर देखिए, वहां लिखा है कि 'जब प्रलय आती है तो जीवन का एक अंश इस वट वृक्ष के रूप में जीवित रहता है और सृजन के काल में फिर से ज्ञान का प्रसार करता है. तभी तो यह अक्षय वट है. जो सतत है. अनंत है अविनाशी है और इसी के साथ जुड़ गई है मेरी महिमा भी, 

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मैं गर्व से कहता हूं कि मैं जमीन का वह हिस्सा हूं, जिसने आदिकाल से आधुनिक काल तक अनेक विभूतियों के चरण स्पर्श किए हैं. विधाता (ब्रह्म देव) ने मेरे ही आंगन में पहली बार यज्ञ का अनुष्ठान किया. पहली यज्ञभूमि होने के कारण ही मैं प्रयाग कहलाया. फिर मुझे भारद्वाज ऋषि ने अपनी तपस्थली बनाया. मेरे हरे-भरे वन क्षेत्रों में हजारों वर्षों तक ऋषियों के अग्निहोत्र से मिलकर सुगंधित हवा बहती रही और मुझे पवित्र करती रही.

मैं धन्य हुआ उस दिन, जब त्रेता में मेरी इसी भूमि पर श्रीराम के चरण कमल पड़े. मैंने देखा कि उनके पीछे माता सीता भी ऋषि कन्याओं की तरह तापस वेश में चली आ रही हैं तो मैंने खुद ही उनकी राह के कांटे चुन लिए और उन्हें फूलों से भर दिया. भैया लक्ष्मण की अपने श्रीराम में निर्मल भक्ति देखकर तो मेरी आंखें भर आईं. मैं इस बात का भी साक्षी हूं कि काल का पहिया इतना आगे निकल आया है, लेकिन मुझे एक-दूसरे पर मर मिटने वाले ऐसे भाई दूसरे नहीं दिखे.

मेरा नाम आप जब भी सुनते होंगे तो आपके भीतर इतिहास, धर्म, और संस्कृति की अनगिनत परतें जीवंत हो उठेंगी. मैं वह पावन भूमि हूं, जिसे वेद, पुराण, और रामायण- महाभारत जैसे महाकाव्यों में सबसे ऊंचा दर्जा मिला हुआ है. जब मेरी जमीन में नगरीय सभ्यता नहीं बनी थी तो मेरा स्वरूप एक तपोभूमि का था और तकरीबन यहां 88,000 ऋषि-मुनियों के आश्रम फैले हुए थे, और मेरा विस्तार बीस कोस तक माना जाता था. यमुनापार पनासा से लेकर गंगापार दुर्वासा आश्रम और श्रृंगवेरपुर तक का क्षेत्र मेरी सीमाओं में आता था.

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सिर्फ रामायण और महाभारत ही नहीं, पुराणों के कई पन्नों और कई गाथाओं में मेरी मौजूदगी रही है और ऐसे ही इतिहास से मेरे अलग-अलग नाम भी पड़े. इला वंशीय राजाओं का शासन होने से मैं इलावर्त और इलावास कहलाया. प्रतिष्ठानपुर (झूंसी) को अपने राज्य में मिलाकर चंद्रवंश ने अपनी शाखा को आगे बढ़ाया. मैं वो प्रयाग हूं जिसने महान सम्राट ययाति, सम्राट दुष्यंत, और उनके पुत्र भरत की वीरता देखी है और जिनकी जय-विजय के किस्सों की गूंज पूरे भारत में ही नहीं बल्कि विश्व में भी सुनाई देती रही है.

वेदों से निकली विरासत की ये धारा जब इतिहास के पन्नों में बहती है तो यह परंपरा की ऐसी नदी बन जाती है, जिसके किनारों पर मौर्य काल के पदचिह्न बने तो गुप्त, और पाल राजाओं ने भी अपनी सत्ता को इसके जल से सींचा. इतिहास कहता है कि सम्राट अशोक ने मेरी जमीन पर स्तूप और स्तंभ बनवाए, जिसकी एक बानगी आज भी यहां इलाहाबाद के किले में दिखाई देती है. 

इतिहास के पन्ने कहते हैं कि, गुप्त वंशीय सम्राट समुद्रगुप्त ने दिग्विजय के बाद मेरी ही जमीन पर अश्वमेध यज्ञ किया. 400 ईस्वी तक मेरी पहचान विश्वभर में एक धार्मिक नगरी के रूप में होने लगी थी और चीनी यात्री फाहियान जब भारत आया तो उसकी भी मुझमें खास दिलचस्पी रही. वह गंगा किनारे आचमन करने वाले और घाटों पर संध्यावंदन करने वालों को बड़ी आश्चर्य भरी निगाहों से देखता था. वह इसे जादू समझता था. 

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यूं तो मेरी जमीन पर अब तक कई महान संतों-श्रद्धालुओं के चरण पड़े हैं, लेकिन मैं आज तक सम्राट हर्षवर्धन को नहीं भूल पाया. वह भारत की इस तपोभूमि का वो यशस्वी-तपस्वी राजा था, जो हर बार कुंभ के आयोजन में आता और अपना सब कुछ दान कर देता था. एक बार मैंने भी उसके सामने याचक की तरह हाथ फैलाए थे, उसने मुझे भी निराश नहीं किया और मेरी अंजुली में दान की इस परंपरा का सबसे ऊंचा पैमाना डालकर चला गया, मैं उस दिन उसे देखता रह गया जब उसने याचकों के बीच अपने पहने हुए वस्त्र भी दान कर दिए और फिर वह अपनी बहन के कपड़े पहनकर अपनी राजधानी गया. मेरी आंखें अपलक उसे निहारती रहीं और तब से अब तक गंगा-यमुना में कितना पानी बह चुका है, लेकिन नहीं मिटी तो वो है हर्षवर्धन की याद.

मुझे अपनी इस भूमि पर आदि शंकराचार्य के स्वागत का भी अवसर मिला था. यहां वह आचार्य कुमारिल भट्ट से मिले. संगम तट पर आज जहां आदि शंकर विमान मण्डपम् है, शंकराचार्य ने वहां पर पंडित मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में हराया था. मंडन मिश्र की हार सनातन की स्थापना में मील का पत्थर साबित हुई, लेकिन आगे मुझे कई क्रूर हमलों और युद्ध में मिली पराजयों को भी सहना था. 

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1094 ई. में मुझ पर पहला हमला हुआ जो शहाबुद्दीन गौरी ने किया था, लेकिन 1394 ईस्वी में मुझ पर जौनपुर के बादशाह की सत्ता काबिज हुई. इसी के बाद साल 1500 ई. में बंगाल के महान संत चैतन्य महाप्रभु कुंभ स्नान के लिए आए और मेरे इस पवित्र वातावरण में 'हरि बोल' की धुन गूंज उठी. एक तरफ आस्था की जड़ें गहरी हो रही थीं तो दूसरी ओर सत्ता का रुख बदल रहा था. 

मुझसे कुछ ही दूरी पर मौजूद 'कड़ा' में जलालुद्दीन लोहानी और बाबर के बीच एक सन्धि हुई और मैं मुगलों की हिफाजत में चला गया है, और फिर अकबर को खूब भाया. इस बारे में अब्दुल कादिर बदायूंनी ने ‘मुन्तख़ाब- अल- तवारीख’ में लिखा है. इस किताब में दर्ज है कि 1574 ई0 में अकबर के कदम मेरी जमीन पड़े और उसने यहां ‘इलाहावा’ नाम के नगर की नींव रखी. यानी अब में प्रयाग से इलाहवा बन गया था. 

साल 1583 ई. में अकबर ने मुझे ही सूबे की राजधानी मान लिया और फिर खूब काम कराए. उसने मेरी ही जमीन से अपना नया धर्म 'दीन-ए-इलाही' शुरू किया और यहीं से हिंदु-मुगल कि मिली-जुली सभ्यता को गंगा-जमुनी तहजीब का नाम मिला. मैं यहां बता दूं कि अगर मैंने अपनी जमीन से अध्यात्म का शिखर देखा है, शासकों के परचम लहराते देखे हैं तो षड्यंत्रों को कान लगाकर सुना है. मेरी ही जमीन से विरोध और विद्रोह का सुर भी फूटा है. 

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इसमें एक नाम तो जहांगीर का भी है जो एक जमाने में यहां सूबेदार रहा और यहीं से उसने अपने पिता की खिलाफत में जंग का ऐलान भी किया. फिर अगला मुगल शाहजहां आया जो मेरा नया मुरीद था. उसने ही मुझे मेरा एतिहासिक नाम इलाहावास’ और ‘अल्लाहबाद’ से बदलकर ‘इलाहाबाद’ कर दिया था. अग्रेजों के सामने मेरी इसी नाम से पहचान रही, बल्कि अभी आजाद भारत में भी बीते कुछ सालों तक मेरा नाम इलाहाबाद ही रहा है.  

बात अंग्रेजों की निकली है तो बता देता हूं कि, वह भी मेरे कम मुरीद नहीं रहे.  साल 1829 में उन्होंने कमिश्नरी बनाई 1831 ई0 में बोर्ड ऑफ रेवेन्यू का दफ्तर खोला. साल 1856 में रेलवे आई, साल 1874 में कोतवाली बनी और 1880 में बना प्रधान डाकघर. विकास के इन कामों के बीच मैंने अंग्रेजों के जुल्म भी सहे. मैं क्रांतिकारियों की भीड़ में खड़ा उनके साथ इन्कलाब जिंदाबाद के नारे लगा रहा था और जब अंग्रेज 1857 की क्रांति को कुचल रहे थे तो मैं उनके साथ 'भारत माता की जय' बोल रहा था. 

वो जो शहर के बीचों-बीच चौक है. कभी वहां नीम का पेड़ हुआ करता था. मैं और वह नीम का पेड़ दोनों ही गवाह हैं कि अंग्रेजों ने कितनी बेरहमी से सैकड़ों क्रांतिकारियों को फांसी पर लटकाया था. ये दमन और इन बेरहम मौतों का सिलसिला तबतक चलता रहा, जब तक आजादी हासिल नहीं हो गई और तबतक न इन दिलेर सपूतों ने हार मानी और न मैंने. आखिर, जिस जमीन पर खड़े होकर एक रणबांकुरा खुद को आजाद घोषित कर दे और जिसके शव से भी अंग्रेज थर-थर कांपे, ऐसे वीर ' चंद्रशेखर आजाद' के रहते मैं प्रयाग कैसे हार मान लेता.  

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और फिर कहते हैं कि न 'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी' तो मेरा इतिहास सिर्फ क्रांति तक नहीं सिमटा है, बल्कि वो तो आजादी के बाद और भी विस्तार पाता रहा है. पं. सुन्दर लाल, पं. मदन मोहन मालवीय, राजर्षि टंडन, पं. जवाहर लाल नेहरू, विजय लक्ष्मी पंडित, इन्दिरा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं को अपनी गोद में खिलाने वाला मैं आजादी के बाद भी देश की राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाता रहा हूं. 

एक के बाद एक देश के पांच प्रधानमंत्री मेरी ही माटी के उपज हैं. साहित्य, पत्रकारिता और शिक्षा के मैदान में भी मेरे धुरंधरों ने बाजी मारी है. पं. बालकृष्ण भट्ट, पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, सुमित्रानन्दन पन्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ और हरिवंश राय बच्चन जैसे साहित्य के वट वृक्षों के मेरी ही जमीन से खाद-पानी मिला है. एक वैदिक युग था, जब भारद्वाज आश्रम ने प्राचीन काल में 10 हजार शिष्यों वाली गुरुकुल परंपरा की नींव रखी थी और आज आधुनिक युग में इलाहाबाद विश्वविद्यालय पूरब का ‘ऑक्सफ़ोर्ड’ माना जाता है. 

ये थी मेरी कहानी जो सागर से निकले अमृत कुंभ की गाथा से कम नहीं है. मैं वह भूमि हूं जिसकी मिट्टी में रमण करना देवता अपना गौरव समझते हैं. ऋषि मुझे सभी तीर्थों का राजा बताते हैं और संतों ने मेरे किनारे बैठकर को विश्व को 'एकात्मता' का ज्ञान दिया है. वसुधैव कुटुम्बकम को अपनी भूमि में सार्थक करने वाला मैं प्रयागराज बाहें फैलाए आपका स्वागत कर रहा हूं. यह जो दिव्य काल 144 वर्ष के अद्भुद संयोग से आया है और जिसे  ग्रहों-नक्षत्रों ने 'महाकुंभ' की संज्ञा दी है, मैं आपको इस एक माह के पुण्य आयोजन के लिए आमंत्रित कर रहा हूं. आप आइए और मनुष्यता से वैसे ही मिल जाइए, जैसे यहां गंगा और यमुना का जल मिल रहा है. जब सबके सुर एक साथ मिलेंगे और जोर से कहेंगे... हर-हर गंगे. हर-हर महादेव...

चेतना के जागृत होने का, आत्माओं के मिलन का और विरासत के स्थापित होने का यही तो समय है, यही तो महाकुंभ है.

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