कुंभ-महाकुंभ जैसे बड़े महा आयोजन का नाम लेते ही सिर्फ चार शहरों के नाम याद आते हैं जो कि आस्था और अध्यात्म के प्राचीन केंद्र रहे हैं. ये हैं हरिद्वार-प्रयाग, नासिक और उज्जैन. लेकिन कुंभ आयोजन और इनका दायरा सिर्फ इन्हीं चार नगरों से नहीं जुड़ा है, बल्कि इसका विस्तार तो और भी नगरों में है.
दक्षिण भारत के प्रमुख मैसूर कुंभ का आयोजन अगले महीने फरवरी में (10 से 12 फरवरी) होने वाला है. इस तरह कुंभ उत्तर भारत में ही नहीं दक्षिण भारत में भी होता है, ये तो साबित हुआ, लेकिन क्या आप जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में प्रयागराज के अलावा वृंदावन में भी कुंभ मेला आयोजित होता है.
साल 2021 में हुआ था कुंभ का आयोजन
इसे खासतौर पर वृंदावन कुंभ के नाम से जाना जाता है. आखिरी बार वृंदावन कुंभ का आयोजन साल 2021 में हरिद्वार महाकुंभ से ठीक पहले हुआ था. यमुना नदी किनारे इस धार्मिक आयोजन को उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद ने कराया था. वृंदावन कुंभ बैठक मेले में देशभर से हजारों साधु-संत शामिल हुए थे, इसके लिए राज्य सरकार ने भव्य व्यवस्थाएं की थीं.
सीएम योगी खास तौर पर इस आयोजन में शामिल हुए थे और फिर इस विषय में भी लोगों की दिलचस्पी बढ़ी थी कि आखिर, वृंदावन में कौन सा और किस तरह कुंभ का आयोजन होता है. इसे दिव्य कुंभ या वैष्णव कुंभ भी कहते हैं. संत समाज बताते हैं कि यहां कुंभ लगने की परंपरा बहुत पुरानी है. हालांकि ऐतिहासिक तथ्य पर इसकी प्राचीनता की गणना स्पष्ट नहीं है, लेकिन यह दावा किया जाता है है कि औरंगजेब के शासन काल में जब सनातन धर्म के लिए संकटपूर्ण समय आय था उस समय भी यहां लोगों का समागम यमुना किनारे होता था.
हरिद्वार महाकुंभ में नागा साधु जो कि शैव संप्रदाय से होते हैं, उनका अधिक आधिपत्य रहता है. ऐसे में एक-दो बार वैष्णव साधुओं से उनके बीच मतभेद की बातें भी सामने आती रही हैं. हालांकि इसे लेकर भ्रम अधिक है. हरिद्वार में कुंभ लगने से पहले वैष्णव साधक वृंदावन में एकजुट होकर हरिद्वार के लिए रवाना होते थे.
कैसे शुरू हुआ वृंदावन कुंभ मेला?
अपनी किताब (भारत में कुंभ) में पत्रकार व लेखक धनंजय चोपड़ा ने इस मेले के बाबत अहम जानकारियां दर्ज की हैं. वह लिखते हैं कि,'वृंदावन कुंभ की परंपरा प्राचीन है, लेकिन इसका वर्तमान स्वरूप हरिद्वार कुंभ में शैव संन्यासियों और वैष्णव बैरागियों के बीच होने वाले संघर्ष से जुड़ा है. ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार 13 अप्रैल, सन् 1760 को हुए ऐसे ही एक खूनी संघर्ष के बाद बैरागी संत-महात्माओं ने तय किया कि हरिद्वार कुंभ में आने से पहले वृंदावन में एकत्र होंगे, संत-समागम करेंगे और फिर एक साथ हरिद्वार कुंभ मेले में प्रवेश करेंगे. इसी पहल ने वृंदावन कुंभ मेले की रूपरेखा तय कर दी.'
रोचक रहा है इतिहास, हाथी-घोड़े भी बनते थे भव्यता और रौनक
हरिद्वार से पहले वृंदावन में आयोजित होने वाले कुंभ मेला बैठक का रोचक इतिहास रहा है. यहां कभी हाथियों के रेले निकला करते थे. इसके अलावा संतो की विशेष सवारियां भी होती थीं. वृंदावन के लिए यह हाथी साधु-संतों के बीच कौतूहल का विषय बनते थे. इसकी भव्यता भी अन्य कुंभ मेले की ही तरह थी.
वृंदावन कुंभ में केवल वैष्णव साधु-संत के तीनों अनी अखाड़े भाग लेते हैं. इस मेले में देशभर के वैष्णव साधु सम्मिलित होने के लिए पहुंचते हैं. वैष्णव साधुओं की उपस्थिति के कारण ही इसे 'वैष्णव कुंभ' या 'वैष्णव बैठक' कहते हैं. वैष्णवों की मान्यता है कि यमुना नदी की प्राचीनता गंगा नदी से अधिक है. यमुना नदी को भगवान कृष्ण की पत्नियों में से एक माना जाता है. यही वजह है कि यमुना तट पर लगने वाले वृंदावन के कुंभ को देवलोक के कुंभ या दिव्य कुंभ के नाम से भी पुकारते हैं.
क्या है पौराणिक कथा?
इस कुंभ की मान्यता को लेकर कुछ पौराणिक संदर्भ भी दिए जाते हैं. भागवत पुराण के अनुसार, पक्षीराज गरुड़ अमृत कलश लेकर उड़ते हुए यहां पहुंचे और यमुना तट पर स्थित कदंब के वृक्ष पर कलश रखकर विश्राम करने लगे. इस दौरान कुछ बूंदे छलककर यहां गिर गईं. जहां यह कदंब वृक्ष स्थित है, उसके आस-पास ही कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है.अमृत की बूंदों ने इस वृक्ष को अमर बना दिया. साधु-संत बताते हैं कि इसी स्थान पर कदंब के पेड़ के पास एक कुंड था, जहां कालिया नाग रहता था. उसके विष के प्रभाव से आस-पास के सभी पेड़-पौधे मुरझा गए थे और वातावरण भी दूषित हो गया था.
कहते हैं कि जब श्रीकृष्ण ने कालिया नाग का दमन करके उसे यहां भगाया तब उसके विष के प्रभाव को समाप्त करने के लिए स्वर्ग से अमृत लाने का आदेश दिया था और यमुना के जल को शुद्ध कराया था. इस कहानी से यमुना नदी का महत्व और बढ़ जाता है और यह मान्यता भी यहां कुंभ मेले के आयोजन का आधार बनती है.
बसंत पंचमी के दिन होती है शुरुआत
बसंत पंचमी के दिन मंत्रोच्चार के साथ धर्म ध्वजा की स्थापना होती है और इसी के साथ लगभग चालीस दिनों तक चलने वाला कुंभ मेला प्रारंभ हो जाता है. पहला शाही स्नान माघ पूर्णिमा के दिन, दूसरा फाल्गुन एकादशी के दिन और तीसरा फाल्गुन पूर्णिमा अमावस के दिन होता है. इसके बाद रंगभरनी एकादशी आती है, जिसके स्नान के बाद मेले का समापन होता है. यहां के बाद सभी वैष्ण्व संत हरिद्वार कुंभ के लिए वहां चले जाते हैं.