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खिचड़ी, पोंगल और उत्तरायणी... मकर संक्रांति का त्योहार एक, परंपराएं अनेक

जब ठंड अपने शबाब पर होती है, देश के उत्तरी हिस्से से दक्षिणी सिरे तक त्योहारों की धूम रहती है और इनके केंद्र में प्रमुखता से शामिल होती है अग्नि. इसके अलावा गर्म तासीर का ही खान-पान इनमें शामिल है. सदियों पहले आदिम समाज जिस तरीके के रहन-सहन में जी रहा था, वहां जरूरत पड़ी होगी कि वह झुंड में रहे.

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मकर संक्रांति के मौके पर गंगासागर मेले के दौरान सामूहिक यज्ञ करते श्रद्धालु
मकर संक्रांति के मौके पर गंगासागर मेले के दौरान सामूहिक यज्ञ करते श्रद्धालु

दो महीने की कड़ाके की ठंड के बाद 13, 14 और 15 जनवरी ऐसे दिन होते हैं, जब मौसम बदलने लगता है, दिन धीरे-धीरे लंबे होने शुरू हो जाते हैं और इसी के साथ सूरज की तपिश थोड़ी-थोड़ी करके बढ़ने लगती है. एक पुरानी कहावत है कि इस दिन से दिन तिल-तिल बढ़ने लगता है. प्राचीन काल से जो परंपराएं और व्यवस्था चली आ रही हैं, वह सर्वाइवल की पहली शर्त रही होंगी जो आदिम समाज में त्योहारों का रूप लेने लगीं और फिर यह एक रिवाज बनकर हमारे लिए एक विरासत की तरह हो गए. 

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परंपराओं की साझेदारी है संक्रांति
जब ठंड अपने शबाब पर होती है, देश के उत्तरी हिस्से से दक्षिणी सिरे तक त्योहारों की धूम रहती है और इनके केंद्र में प्रमुखता से शामिल होती है अग्नि. इसके अलावा गर्म तासीर का ही खान-पान इनमें शामिल है. सदियों पहले आदिम समाज जिस तरीके के रहन-सहन में जी रहा था, वहां जरूरत पड़ी होगी कि वह झुंड में रहे. उनका यह झुंड में रहना तभी संभव हो पाता होगा कि वह साझेदारी भी करे. यह साझेदारी खान-पान की रही होगी, पहनने-ओढ़ने की रही होगी और साझेदारी रही होगी परंपराओं की. यही वजह है कि युगों और सदियों से चली आ रही परंपरा के तहत हम त्योहारों पर एक साथ और एक जैसी परंपराओं का पालन करते हैं, हालांकि स्थानीय आधार पर उनके नाम अलग हैं, और पहचान अलग हैं. 

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हर संस्कृति में है संक्रांति
मकर संक्रांति एक ऐसा ही पर्व है, जो हर संस्कृति में है और देश में कश्मीर से कन्याकुमारी और बंगाल से गुजरात तक इसकी मान्यता है. यह पंजाब में लोहड़ी है, उत्तर प्रदेश में खिचड़ी है, बिहार में संक्रांत हैं. असम में माघ बिहू, तमिलनाडु में पोंगल है.  

पंजाब में है लोहड़ी की धूम
संक्रांति से एक दिन पहले हर साल 13 जनवरी को लोहड़ी मनाई जाती है. इसे के साथ जुड़ी है उस रणबांकुरे की कहानी जिसने 500 साल पहले के अपने कारनामों से न सिर्फ इतिहास का एक पन्ना अपने नाम किया, बल्कि लोहड़ी की आग के साथ अमर हो गया. दुल्ला भाटी नाम के इस बांके नौजवान ने सत्ता की खिलाफत की और उसकी गलत ताकतों के खिलाफ आवाज उठाई. तब बादशाह अकबर आगरा से देश के बड़े हिस्से पर राज चला रहा था और इससे मीलों दूर पंजाब में लड़कियां बेची जा रही थीं. 

लोहड़ी

दुल्ला ने उन्हें बचाया और लोहड़ी के दिन उनकी शादी कराई. सामाजिक ताने-बाने में दुल्ला ने ऐसी जगह बनाई कि लोहड़ी की पारंपरिकता में वह हर बार के लिए शामिल हो गया. आज दुल्ला की बातें न हो तो लोहड़ी हो ही नहीं सकती.

लोहड़ी की कहानी
लोहड़ी की एक और लोककथा मशहूर है. इस कहानी में लोदी नाम का एक राक्षस बच्चों को पकड़ कर ले जाता था. एक दिन उसने धुलो नाम के छोटे बच्चे को पकड़ लिया. धुलो की बहन ने भाई को बचाने के लिए अपने दोस्तों की टोली बनाई और लोदी से लड़ने चले. उन्होंने चकमा देकर लोदी को उसी आग के घेरे के भीतर कैद कर दिया, जो उसने धुलो को जलाने के लिए लगाई थी. लोदी उस आग में जल गया और धुलो बच गया. लोगों ने खुशी में उस आग में तिल-गुड़, रेवड़ी, मूंगफली डाले. तब से यह परंपरा बन गई.

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हरियाणा, उत्तर प्रदेश समेत मध्य भारत में संक्रांति
ज्योतिष कहता है कि जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर जाता है और राशि परिवर्तन करते हुए मकर राशि में पहुंचता है तो इस सूर्य की मकर संक्रांति कहते हैं. मकर संक्रांति धरती के अंडाकार परिक्रमा पथ पर चलते हुए सूर्य के निकट पहुंचने का प्रतीक है. ग्रहों की चाल के आधार पर मध्य भारत मकर संक्रांति मनाता है. सूर्य का राशि परिवर्तन, एक राशि से दूसरी राशि में जाना साथ ही पृथ्वी का दिशा परिवर्तन ऐसी खगोलीय घटना है  जो कि भारतीयों के रहन-सहन पर सीधे तौर पर असर डालती है.

यह वह वक्त होता है जब मौसमी परिवर्तन हो रहे होते हैं. ठंड-गर्म का माहौल बनता बिगड़ता है और राशियों का यह परिवर्तन जीवन पर भी असर डालता है. सौर चक्र और कैलेंडर के आधार पर यह तिथि हर साल 14 जनवरी को पड़ती है, इसलिए इस दिन मकर संक्रांति मनाते हैं. यह दिन सिर्फ राशियों के बीच संयोग की क्रांति नहीं है, बल्कि यह हमारे मन में विचारों की भी क्रांति का दिन होता है. सर्दी का मौसम जम जाने-जड़ हो जाने का प्रतीक है, लेकिन इस दिन से आप भी अपने अंदर एक उत्साह और एक बदलाव महसूस करते हैं. 

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मकर संक्रांति पर गंगा स्नान और फिर दान आदि की परंपरा उसी जड़ता को हटा देने का जरिया है. चेतना की और लौटा व्यक्ति जब दोबारा समाज में पहुंचता है तो तिल-गुड़ के लड्डू इसे फिर से समाज में घुलना-जुड़ना सिखाते हैं. त्योहारों की मूल सिद्धांत भी यही है कि वह सामाजिकता को बचाए रखे.

खिचड़ी का महत्व
मकर संक्रांति के इस मौके को खिचड़ी भी कहा जाता है, क्योंकि उत्तर प्रदेश में इस दिन खिचड़ी चढ़ाने, दान करने, बनाने और सहभोज करने का बहुत महत्व है. खिचड़ी भारतीय संस्कृति में एक महत्वपूर्ण व्यंजन और प्रतीकात्मक भोजन है, जिसका महत्व धार्मिक, सांस्कृतिक और पोषणीय दृष्टिकोण से है. खिचड़ी विभिन्न सामग्रियों से तैयार की जाती है, जिनमें चावल, दाल, सब्जियां और मसाले शामिल होते हैं. इसे सादगी और संतुलित आहार का प्रतीक माना जाता है. सनातन में इसे साधु भोज, देव अन्न और ऋषिभुक्तम (ऋषियों के भोग लगाने हेतु) कहा गया है.

दक्षिण भारत में पोंगल 
फसलें कटकर घर आ चुकी हैं और उत्साह का माहौल है. फिर जब सूर्य देव आकाश में नजर आते हैं तो तमिल समाज इसे एक नए वर्ष के तौर पर लेता है और पोंगल मनाता है. दरवाजों पर रंग-रोगन आंगन में खूबसूरत पूक्कलम (रंगोली) सजाए गए हैं. गाय-बैलों को नहला-धुला कर सजाया गया है.इस बीच घर की बड़ी-बूढ़ी अलग-अलग मटकों धान को दूध में भिगोकर शक्कर के साथ उबाल रही हैं.

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वह इसे इतना उबालेंगी कि जब तक यह उफन कर किनारों पर न आ जाए. इसी के साथ उनकी स्थानीय भाषा में एक गीत भी हिलोरे लेता रहेगा. इसका मतलब है कि जैसे सागर का पानी उफन कर तट पर आया है, जैसे मेरी मटकी में उफान आया है, बस मेरे घर के बच्चों में खुशी भी ऐसी उफान पर आए. समृद्धि और साथ-साथ मिलकर हंसने-गाने का यह त्योहार पोंगल है.

पोंगल

पोंगल आमतौर पर जनवरी के महीने में मकर संक्रांति के समय चार दिनों तक मनाया जाता है. इस दौरान विभिन्न परंपराएं और गतिविधियां होती हैं.
1. पहला दिन: भोगी पोंगल
भोगी पोंगल सफाई और पुराने सामान को छोड़ने का दिन है. लोग अपने घरों की सफाई करते हैं और पुराने सामान को जलाकर नए जीवन की शुरुआत का प्रतीक मानते हैं.
इस दिन इंद्र देव (वर्षा के देवता) की पूजा की जाती है ताकि अच्छी फसल हो.

2. दूसरा दिन: थाई पोंगल
यह पोंगल का मुख्य दिन है. लोग सूर्य देव की पूजा करते हैं और धन्यवाद देते हैं. इस दिन पोंगल नामक विशेष मिठाई पकाई जाती है, जो चावल, दूध और गुड़ से बनाई जाती है. इसे मिट्टी के बर्तन में पकाकर सूर्य देव को अर्पित किया जाता है. घरों के आंगन में सुंदर रंगोली (कोलम) बनाई जाती है.

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3. तीसरा दिन: मट्टू पोंगल
यह दिन मवेशियों (गाय और बैल) को समर्पित होता है. मवेशियों को सजाया जाता है, उनके सींग रंगे जाते हैं और उन्हें फूलों की मालाएं पहनाई जाती हैं.
मवेशियों की पूजा की जाती है क्योंकि वे कृषि कार्यों में मदद करते हैं.

4. चौथा दिन: कन्या पोंगल (कानूम पोंगल)
इस पोंगल में कन्याओं को उपहार दिए जाते हैं. यह दिन परिवार और समाज के साथ बिताने के लिए होता है. लोग रिश्तेदारों और दोस्तों से मिलने जाते हैं.
भाई-बहन के संबंध को मजबूत करने के लिए प्रार्थनाएं की जाती हैं.

उत्तराखंड में उत्तरायणी
उत्तराखंड में मकर संक्रांति के दिन उत्तरायणी मनाया जाता है. यह पर्व खासतौर पर गढ़वाली और कुमाऊं दोनों ही क्षेत्रों में मनाया जाता है. यहां भी तिल-गुड़ का महत्व है और लोग एक-दूसरे को यह बांटते हैं, लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण एक पकवान है घुघुतिया. ये पकवान मकर संक्रांति की एक लोककथा से जुड़ा हुआ है. 

कहानी घुघुतिया की
बात तब की है, जब कुमाऊं में चंद वंश का शासन था. राजा कल्याण चंद को भगवान बागनाथ की कृपा से मकर संक्रांति के दिन पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई. रानी मां मां उसे प्यार से घुघुती कहकर पुकारती थी. घुघुती के गले में एक मोतियों की माला थी. माला को देखकर घुघुती खुश रहता था, जब वह रोता तो उसकी मां उसे चुप कराने के लिए कहती थी ' काले कौवा काले, घुघुती की माला खाले ' घुघुती की मां की आवाज सुनकर इधर-उधर से कौवे का जाते और उसकी मां उन्हें पकवान देती. धीरे-धीरे कौवा और घुघुती दोस्त बन गए. राजा के दरबार मे एक मंत्री घुघुती को मारना चाहता था, क्योंकि राजा की कोई दूसरी संतान नहीं थी.

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एक दिन राजा का मंत्री घुघुती को उठाकर दूर जंगल में ले गया. तभी उसके चारों ओर कौवे मंडराने लगे. कौवे घुघुती के गले की माला छीनकर राजमहल की ओर लाए. राजा समझ गए कि घुघुती की जान खतरे में है. इस तरह घुघुती की जान बच गई. कौवों ने घुघुती की जान बचाई तभी से मकर संक्रांति को लोग आटे-गुड़ मिलाकर उसकी माला बनाते हैं और कौवों को खिलाते हैं.

पोंगल

असम में माघ बिहू
असम में माघ बिहू को भोगाली बिहू और माघर दोमाही के नाम से भी जाना जाता है. माघ बिहू से पहले के दिन को उरुका होता है, जो अग्नि देव को समर्पित माना जाता है. इस मौके पर लोक व्यंजन जैसे आलू पितिका, जाक और मसोर टेंगा बनाया जाता है और सब मिलकर भोज करते हैं. इसी के साथ पहली फसल अपने आराध्य देव को अर्पित की जाती है और यह कामना की जाती है कि आने वाले समय में भी अच्छी फसल पैदा हो.

एक जैसी हैं त्योहारों की परंपराएं
त्योगहारों की यह परंपराएं एक जैसी हैं. यह उस बात को साबित करती है कि सभ्यताओं के अलग-अलग खांचे में बसे हम अलग नहीं हैं, बल्कि रंगोली के रंग हैं. जो अपने ही खांचे में है तो रंगोली सुंदर है. अलग-अलग उन रंगों का कोई मोल नहीं. हमारे त्योहार हमारी मानवीय इच्छाओं का प्रदर्शन होते हैं और मानवता की इच्छा यही है कि वह तिलगुड़ की तरह एक-जुट हो. उसमें सूरज के किरणों जैसी गर्मजोशी हो और हम एकजुट रहें.

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