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आंखों के सामने जले घर, लूटी गईं दुकानें! मणिपुर से दिल्ली भागकर आए पीड़ितों ने सुनाई आपबीती

मणिपुर के इम्फाल से दिल्ली भागकर आए दंगा पीड़ित पालम में रह रहे हैं. यहां आए लोगों ने वो दर्द बयां किया है जो उन्होंने मणिपुर में झेला है. किसी का घर उसकी आंखों के सामने जल गया. किसी की दुकान पूरी तरह से लूट ली गई और तोड़ दी गई. कहीं स्कूल जला दिए गए तो किसी को रातों-रात अपना घर छोड़कर भागना पड़ा. पालम में स्थित इस शरणार्थी शिविर में ऐसी कई कहानियां मौजूद हैं.

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मणिपुर में कुकी और मेइती समाज के बीच टकराव के कारण तनाव की स्थिति है (फाइल फोटो)
मणिपुर में कुकी और मेइती समाज के बीच टकराव के कारण तनाव की स्थिति है (फाइल फोटो)

दिल्ली का पालम इलाका. यहां की एक इमारत बच्चों के शोर, लोगों की रहने-बसने की चहल-पहल से गुलजार हो रही है. इमारत के हॉल में एसी लगे हैं और 12-15 बच्चे में इसी में दौड़-भाग करते हुए खेल रहे हैं. बच्चे, बच्चों में मिल गए हैं और अभी उनके चेहरे खुशी से भरे हैं, हालांकि एक-दो बार वो अपने बड़ों से पूछ लेते हैं कि वो घर कब जाएंगे, लेकिन बड़ों के पास शायद इसका कोई माकूल जवाब नहीं है, बच्चे फिर खेल में जुट जाते हैं. ये सब उनकी समझ से परे हैं कि आखिर 'वे घर क्यों नहीं जा सकते हैं, जहां उनके अपने खिलौने हैं.'

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इम्फाल से भागकर आए लोग, दिल्ली में मिला सहारा
एक बात तो साफ हो गई कि ये इमारत उन बच्चों और उनके परिवार वालों का असली घर नहीं है. वह बस यहां सिर छुपाने भर के लिए हैं. फिर वे कौन हैं, कहां से आए हैं और अपने घर कब जाएंगे? चार साल का शेर (बदला हुआ नाम) एक बार ऐसा ही सवाल करता है और फिर बच्चों के संग खेलने लग जाता है. लेकिन इस सवाल के सामने आते ही सामने दिख रही चहल-पहल धुंधली हो जाती है और फिर धुंध के इस साए में जो दुख, जो पीड़ा और घर छूट जाने का जो कष्ट नजर आता है, मणिपुर से जान बचाकर भाग आए उन कुकी परिवारों की असलियत है जो पालम की इस इमारत में शरणार्थी बन गए हैं.
 
ये शिविर सिर्फ कुकी परिवारों की शरणस्थली नही है, बल्कि यहां वो सच्ची कहानियां भी सिर छिपाएं हुए हैं, जिनमें बीते एक महीने से जारी दंगों का दर्द छिपा है. इम्फाल में एक सरकारी स्कूल के शिक्षक नाइसियम ऐसी ही एक कहानी की किरदार हैं. वह बताती हैं कि, 4 मई जब दंगा शुरू हुआ, वह अपने सरकारी आवास में थे. परिवार ने मौके की नजाकत को देखते हुए कुछ जरूरी दस्तावेज समेटे, कुछ कपड़े बैग में भरे और पास के मणिपुर राइफल्स कैंप में भाग गए. 5 दिन बाद पड़ोसियों की मदद से जब वह घर पहुंचे तो सबकुछ या तो टूट-फूट चुका था या फिर लुट चुका था. कुल मिलाकर उनकी दुनिया उजड़ चुकी थी. 

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मणिपुर हिंसा के पीड़ित पालम में शरण लिए हुए हैं

पालम में बना है शरणार्थी शिविर
जब इंडिया टुडे की टीम ने दिल्ली के पालम में "आदिवासी" शरणार्थी शिविर में नाइसियाम से मुलाकात की, तो वह दान में मिली पैंट को ठीक कर रही थीं, ताकि उनका बेटा उसे पहन सके. इम्फाल के मध्य में स्थित सरकारी आवास में रहने से वह सुरक्षित नहीं रह सकीं.
 
नाइसियम के मुताबिक, 'मैं स्कूल में इकलौती कुकी शिक्षक हूं. मुझे स्कूल में कभी कोई समस्या नहीं हुई, लेकिन पिछले कई महीनों से वे हमारे आधार कार्ड देखने, परिवार के लोगों को चेक करने कई बार सरकारी क्वार्टर में आए थे. मैंने ऐसी अफवाहें सुनी थीं कि उन्होंने कुकी लोगों के घरों को चिह्नित किया था, लेकिन मुझे उस समय विश्वास नहीं हुआ था.  और अब मुझे नहीं पता कि मैं वापस जा सकती हूं या नहीं.'

ठीक ऐसी ही कहानी बेबेन (बदला हुआ नाम) की भी है. वह एक सरकारी परियोजना में बतौर सलाहकार नियुक्त थीं. 3 मई को मणिपुर में वह अपने ऑफिस में थी. अचानक ही दंगे की खबर आई और अफरा-तफरी मच गई. हैरान-परेशान और अपने परिवार के बारे में चिंतित बेबेन ने अपना लैपटॉप भी ऑफिस में छोड़ दिया और ऑफिस की कार से तुरंत घर चली आईं. उस रात सामने आया कि "हजारों लोग कुकी पड़ोस पर हमला कर रहे थे".

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सड़कों पर गश्त, डर-दहशत में कटी रातें
बेबेन बताती हैं कि "हम रात का खाना बना रहे थे. जानकारी मिली कि 10-20 नहीं बल्कि 2000 लोगों की भीड़ हमला कर रही है. हमारे पड़ोस में सौ प्रतिशत आदिवासी लोग हैं, इसलिए हमने रोशनी बंद कर दी. आदमियों ने कॉलोनी का गेट बंद कर दिया,और रात भर छड़-सरिया लेकर सड़कों पर गश्त करते रहे. हम पूरी रात कांपते रहे. सुबह हमने बच्चों को खाना खिलाया और मणिपुर राइफल्स कैंप जाने की तैयारी की. 

हमारा पड़ोस एक कमांडो कैंप और असम राइफल्स कैंप के बगल में है, लेकिन हमें निकालने के लिए कोई नहीं आया इसलिए हम आर्मी कैंप की ओर चल पड़े.कुछ दिनों बाद हमें दिल्ली के लिए टिकट खरीदने का मौका मिला तो हम यहां आए और अपनी कार और सामान आर्मी कैंप में ही हमें छोड़नी पड़ी है. वर्तमान में पालम कैंप परिसर में लगभग 55 लोग रहते हैं. जिनमें दो हॉल में बंक बेड और कुल 5 शेयरिंग टॉइलेट हैं. परिसर में पहले एक मोंटेसरी स्कूल हुआ करता था जो कोविड के दौरान बंद हो गया था. शरणार्थी किसी तरह दिल्ली आए हैं, कुछ यहां हैं तो कुछ दूर के रिश्तेदारों-दोस्तों के घर पर आसरा लिए हुए हैं. 

पालम के शरणार्थी शिविर में कई लोग ठहरे हुए हैं

EFI राहत गृह के को-ऑर्डिनेटर रेवरेंड मंग नगैहते कहते हैं कि, "हमारे यहां 4 या 5 अलग-अलग जनजातियों के लोग रहते हैं. समुदाय के नेता और चर्च संगठन योगदान दे रहे हैं. हमें उम्मीद थी कि वे एक या दो महीने यहां रहेंगे, लेकिन अभी मणिपुर में स्थिति इतनी खराब है कि अभी वापसी संभव नहीं लगती है. हमारी अपील इवेंजेलिकल फाउंडेशन, चर्च और विभिन्न स्कूलों और सरकारी एजेंसियों से मदद की है, ताकि यहां कुछ और महीनों तक रुका जा सके. हम उन लोगों के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त करने की भी कोशिश कर रहे हैं जिन्हें नौकरी और बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा की आवश्यकता है.'

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सिर्फ कुकी ही नहीं, मेइती भी इस हिंसा से काफी प्रभावित हो रहे हैं. उन्हें भी मणिपुर से भागना पड़ रहा है. राज्य में हिंसा जारी है और मेइती भी दिल्ली में भागकर आए हुए हैं, लेकिन अभी तक दिल्ली में एक संगठित शरणार्थी शिविर प्रणाली नहीं बनाई गई है. 

खत्म हो चुकी हैं सेविंग्स
इन कहानियों से रूबरू होने के बीच ही सत्तर साल की जमुना नजर आ जाती हैं. उनका घुटना टूट गया है. उनकी बेटी चंचल जब राहत शिविर में हुईं मुश्किलें बयां करती हैं तो उनकी आंखें भर आती हैं. उन्होंने कहा कि वे दिल्ली भाग आए थे रिश्तेदारों के घर शरण ली थी, लेकिन उनके भी किराए के घरों में, दूसरों के साथ कब तक रह सकते हैं. जमुना बताती हैं, हमारी जो भी सेविंग्स थी, सब खत्म हो चुकी हैं, हम आगे कैसे रहने वाले हैं, नहीं पता.'

अधपके चावल खाकर गुजारे थे दिन
उनकी बेटी इंफाल में ICICI बैंक में काम करती थीं, लेकिन अब परिवार का पालन-पोषण कैसे हो, ये उनकी सबसे बड़ी परेशानी है. इंफाल में उनके घर को जला दिया गया है. चंचल कहती हैं कि "मैं अपने घर से एक जोड़ी ड्रेस लेकर भागी, घर जल गया है और हम फिर से जीरो पर पहुंच चुके हैं. मुझे घर बनाने के लिए फिर से शुरुआत करनी पड़ेगी. मेरे माता-पिता अब बूढ़े हो गए हैं और हमारे कई भाई-बहन हैं. वह कहती हैं कि, हमें लगा कि एक न एक दिन हम वहीं मारे जाएंगे. खाने के लिए भोजन नहीं था. सेना के शिविर में अधपके चावल खाकर किसी तरह दिन गुजारे थे. 

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मणिपुर में लोगों की आंखों के सामने जला दिए गए घर

मेइती लोगों का आरोप, उन्हें नहीं मिली मदद
चंद्रमणी हुइद्रोम की कहानी और भी दुखभरी है. अपनी आंखों के सामने अपना घर और दुकान को लुटते-जलते देखना, इससे बड़ा दुख कुछ नहीं. बेटे ने हवाई टिकट के पैसे भेजकर उन्हें दिल्ली बुलवा लिया. वह सिसक उठते हैं और कहते हैं कि 'उन्होंने मेरा दो मंजिला हां घर जला दिया, मेरी पूरी दुकान लूट ली और जला दी, वहां से निकलना आसान नहीं था. मेरे बेटे ने मुझे पैसे भेजे किसी तरह हमें टिकट मिल जाए. अभी हम गुरुग्राम में रह रहे हैं. लेकिन, अब मैं क्या करूंगा, हम गुजारा कैसे करेंगे.

बसंता मेइती का यह भी कहना है कि पुलिस ने मैतेई लोगों की मदद नहीं की. उन्होंने बताया कि '3 मई की रात मेरी दुकानें भी जल गईं. पहले उन्होंने मेरी दुकान तोड़ी और फिर उनमें आग लगा दी. पुलिस ने मदद नहीं की. उनका कहना है कि उनके घर से 100 मीटर की दूरी पर ही पुलिस स्टेशनन था, फिर भी मुझे अपनी आंखों के सामने अपना घर जलता देखना पड़ा.  

शाह के दौरे से जगी उम्मीद
गृह मंत्री के मणिपुर दौरे से शरणार्थियों को उम्मीद है कि जल्द ही स्थिति पर काबू पा लिया जाएगा. सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर रिपोर्ट में यह भी संकेत दिया गया है कि राज्य सरकार, असम राइफल्स और सेना द्वारा चलाए जा रहे सभी समुदायों के हजारों शरणार्थी शिविरों में ठहरे हुए हैं. लेकिन समाज में गहरी दरारें कच्चे घावों के रूप में उजागर हो गई हैं.

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दंगाइयों ने जला दिया स्कूल
कुकी शिक्षक लियाम लालखोहाउ हाओकिप कहते हैं कि 'हमारा बिष्णुपुर में एक स्कूल है. हमारे पड़ोसियों, मेइती ने वादा किया था कि हमें कुछ नहीं होगा.. लेकिन कुछ दिनों बाद इम्फाल से लोग आए और स्थिति तनावपूर्ण हो गई. उन्होंने पहले स्कूल को लूटा, हम भाग गए. फिर एक हफ्ते बाद उन्होंने स्कूल को जला दिया. मैंने भीड़ में अपने पूर्व छात्रों को स्कूल पर हमला करते देखा. कुछ भी नहीं सुधरेगा जब तक पहाड़ी क्षेत्रों में कुकी को हमारा अपना प्रशासन नहीं मिल जाता.

 

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