दो बार प्रधानमंत्री रहे और आर्थिक उदारीकरण के सूत्रधार मनमोहन सिंह का अंतिम संस्कार शनिवार को पूरे राजकीय सम्मान के साथ दिल्ली में होगा. उनकी अंतिम यात्रा सुबह 9.30 बजे कांग्रेस मुख्यालय से शुरू होगी. दुनियाभर से लोग उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं. मनमोहन सिंह के नाम अनेक उपलब्धियां हैं. आज की युवा पीढ़ी उनसे कई बातें सीख सकती है.
पहली और सबसे बड़ी सीख ये है कि- 10 वर्षों तक प्रधानमंत्री रहते हुए भी उन्होंने अपनी विनम्रता नहीं छोड़ी और वो अपने आपको मिडिल क्लास का ही एक साधारण आदमी समझते रहे और वो अक्सर इस बात को कहते थे कि मेरी असली कार, प्रधानमंत्री को मिलने वाली सरकारी BMW कार नहीं, बल्कि मेरी पुरानी ''मारुति 800'' कार है.
दूसरी सीख- उन्होंने कभी किसी उपलब्धि का श्रेय नहीं लिया. ना तो उन्होंने वर्ष 1991 के आर्थिक उदारीकरण का श्रेय लिया, ना वर्ष 2006 में अमेरिका के साथ हुई Nuclear Deal का श्रेय लिया और ना ही वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को मिली जीत का श्रेय लिया. वर्ष 2009 में कांग्रेस को डॉ. मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल के बाद पिछली बार से 61 लोकसभा सीटें ज्यादा मिली थीं, लेकिन इसके बावजूद डॉ. मनमोहन सिंह ने कभी इसका श्रेय नहीं लिया. जब कहा जा रहा था कि राहुल गांधी ने डॉ. मनमोहन सिंह को मनरेगा का दायरा 500 गांवों में बढ़ाने का आइडिया दिया है, तब भी डॉ. मनमोहन सिंह चुप रहे और उन्होंने कहीं ये नहीं कहा कि इस योजना का श्रेय उन्हें मिलना चाहिए.
तीसरी सीख- डॉ. मनमोहन सिंह ने खामोशी से अपनी मर्यादा को बनाए रखा, अपनी सख्त आलोचनाओं के बीच भी उन्होंने कभी अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी. लोगों ने उनके बारे में क्या-क्या नहीं कहा. आरोप लगाए, मजाक उड़ाया लेकिन डॉ. मनमोहन सिंह हमेशा चुप रहे.
चौथी सीख- डॉ. मनमोहन सिंह ने बताया था कि शिक्षा और ज्ञान सबसे बड़ी ताकत है, एक अर्थशास्त्री के तौर पर उन्होंने अपने अनुभव और ज्ञान का पूरा फायदा इस देश को दिलाया.
पांचवीं सीख- UPA सरकार में अलग-अलग विचारधारा की 15 पार्टियां थीं, लेकिन डॉ. मनमोहन सिंह का इनमें से किसी पार्टी से कोई मतभेद नहीं हुआ और उन्होंने सबके तालमेल से 10 वर्षों तक गठबंधन की सरकार चलाई.
छठी सीख- अर्थव्यवस्था को लेकर डॉ. मनमोहन सिंह काफी दूरदर्शी थे, जिसका भारत को अभी तक लाभ मिलता है. साथ ही डॉ. मनमोहन सिंह ने ये भी सिखाया कि जीवन में हमेशा सीखते रहिए, वो अपने पूरे जीवन एक छात्र की तरह रहे. वो अर्थशास्त्री बने, फिर कॉलेज के प्रोफेसर बने, फिर RBI के गवर्नर बने, फिर प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार बने, फिर वित्त मंत्री बने और फिर आखिर में प्रधानमंत्री बने. यानी जीवन के हर दौर में वो सीख कर आगे बढ़ते रहे.
सातवीं सीख- सिद्धांत और उसूल सबसे बड़े होते हैं, और डॉ. मनमोहन सिंह ने जीवनभर अपनी ईमानदारी के सिद्धांत को नहीं छोड़ा.
आठवीं सीख- किसी भी अपमान को खुद पर हावी ना होने दें. वर्ष 2013 में जब दागी प्रतिनिधियों को लेकर डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार एक अध्यादेश लाई, तब राहुल गांधी ने इसका विरोध किया था और ये कहा था कि वो ऐसे अध्यादेश को फाड़ कर फेंकना पसंद करेंगे. इस घटना से डॉ. मनमोहन सिंह आहत ज़रूर हुए, लेकिन उन्होंने अपने अपमान के घूंट को बिना किसी अहंकार के पी लिया. ऐसा ही उन्होंने वर्ष 1985 में भी किया था, उस समय राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे और डॉ. मनमोहन सिंह योजना आयोग के उपाध्यक्ष थे. जब डॉ. मनमोहन सिंह ने एक बैठक में राजीव गांधी को ''पंचवर्षीय योजना'' के लिए एक नीति के बारे में बताया, जो गांवों पर केन्द्रित थी, तो राजीव गांधी ने उन्हें और उनकी टीम को जोकर कह दिया था, लेकिन डॉ. मनमोहन सिंह ने इस अपमान के बाद भी अपना धैर्य नहीं खोया. इस बात का ज़िक्र पूर्व केंद्रीय गृह सचिव सी.जी. सोमैया की आत्मकथा में है.