केंद्र सरकार ने 18 से 22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र बुलाया है. वजह है कि इस दौरान मोदी सरकार संसद में एक देश-एक चुनाव बिल लेकर आ सकती है. संसद का विशेष सत्र बुलाने के इस फैसले से विपक्ष भड़क गया है. लेकिन यह एक देश-एक चुनाव है क्या? जिस पर हंगामा मचा हुआ है और पूरा विपक्ष एकजुट खड़ा है.
एक देश-एक चुनाव का सीधा सा मतलब है कि देश में होने वाले सारे चुनाव एक साथ करा लिए जाएं. आजादी के बाद कुछ सालों तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ ही होते थे. लेकिन बाद में समय से पहले विधानसभा भंग होने और सरकार गिरने के कारण ये परंपरा टूट गई थी. लेकिन अब सीधा सा सवाल है कि इस वन नेशन-वन इलेक्शन बिल को लागू करने के नफा और नुकसान क्या होंगे?
एक देश-एक चुनाव के क्या हैं लाभ?
एक देश-एक चुनाव की वकालत खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर चुके हैं. इस बिल के समर्थन के पीछे सबसे बड़ा तर्क यही दिया जा रहा है कि इससे चुनाव में खर्च होने वाले करोड़ों रुपये बचाए जा सकते हैं.
पैसों की बर्बादी से बचना
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई मौकों पर वन नेशन-वन इलेक्शन की वकालत कर चुके हैं. इसके पक्ष में कहा जाता है कि एक देश-एक चुनाव बिल लागू होने से देश में हर साल होने वाले चुनावों पर खर्च होने वाली भारी धनराशि बच जाएगी. बता दें कि 1951-1952 लोकसभा चुनाव में 11 करोड़ रुपये खर्च हुए थे जबकि 2019 लोकसभा चुनाव में 60 हजार करोड़ रुपये की भारी भरकम धनराशि खर्च हुई थी. पीएम मोदी कह चुके हैं कि इससे देश के संसाधन बचेंगे और विकास की गति धीमी नहीं पड़ेगी.
बार-बार चुनाव कराने के झंझट से छुटकारा
एक देश- एक चुनाव के समर्थन के पीछे एक तर्क ये भी है कि भारत जैसे विशाल देश में हर साल कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं. इन चुनावों के आयोजन में पूरी की पूरी स्टेट मशीनरी और संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन यह बिल लागू होने से चुनावों की बार-बार की तैयारी से छुटकारा मिल जाएगा. पूरे देश में चुनावों के लिए एक ही वोटर लिस्ट होगी, जिससे सरकार के विकास कार्यों में रुकावट नहीं आएगी.
नहीं रुकेगी विकास कार्यों की गति
एक देश-एक चुनाव का समर्थन करने वालों का कहना है कि देश में बार-बार होने वाले चुनावों की वजह से आदर्श आचार संहिता लागू करनी पड़ती है. इससे सरकार समय पर कोई नीतिगत फैसला नहीं ले पाती या फिर विभिन्न योजनाओं को लागू करने में दिक्कतें आती हैं. इससे यकीनन विकास कार्य प्रभावित होते हैं.
काले धन पर लगेगी लगाम
एक देश-एक चुनाव के पक्ष में एक तर्क यह भी है कि इससे कालेधन और भ्रष्टाचार पर रोक लगने में मदद मिलेगी. चुनावों के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों पर ब्लैक मनी के इस्तेमाल का आरोप लगता रहा है. लेकिन कहा जा रहा है कि यह बिल लागू होने से इस समस्या से बहुत हद तक छुटकारा मिलेगा.
एक देश-एक चुनाव से क्या हो सकते हैं नुकसान?
केंद्र सरकार भले ही एक देश-एक चुनाव के पक्ष में हो लेकिन इसके विरोध में भी कई मजबूत तर्क गढ़े जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि अगर ये बिल लागू होता है तो इससे केंद्र में बैठी पार्टी को एकतरफा लाभ हो सकता है. अगर देश में सत्ता में बैठी किसी पार्टी का सकारात्मक माहौल बना हुआ है तो इससे पूरे देश में एक ही पार्टी का शासन हो सकता है, जो खतरनाक होगा.
राष्ट्रीय-क्षेत्रीय पार्टियों में मतभेद
इसके खिलाफ एक तर्क यह भी बताया जा रहा है कि इससे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों के बीच मतभेद और ज्यादा बढ़ सकता है. कहा जा रहा है कि एक देश-एक चुनाव से राष्ट्रीय पार्टियों को बड़ा फायदा पहुंच सकता है जबकि छोटे दलों को नुकसान होने की संभावना है.
चुनावी नतीजों में हो सकती देरी
अगर एक देश-एक चुनाव बिल के तहत पूरे देश में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराए जाएंगे तो इससे पूरी-पूरी संभावना होगी कि चुनावी नतीजों में देरी हो सकती हैं. चुनावी नतीजों में देरी से यकीनन देश में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ेगी, जिसका खामियाजा आम लोगों को भी भुगतना पड़ेगा.
संवैधानिक और ढांचागत चुनौतियां
इस बिल को लागू करने की राह आसान नहीं होगी. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी का कहना है कि इस बिल को अमलीजामा पहनाने के लिए संवैधानिक, ढांचागत और राजनीतिक चुनौतियां बनी हुई हैं. किसी भी विधानसभा या लोकसभा का कार्यकाल एक भी दिन बढ़ाने के लिए संविधान में संशोधन करने हागो या फिर राष्ट्रपति शासन लगाना होगा. इसके अलावा जिन राज्यों में सरकार बीच कार्यकाल में ही भंग हो जाएगी वहां संवैधानिक इंतजाम कैसे होंगे? इसके अलावा विधानसभा का कार्यकाल घटाने या बढ़ाने की सर्वसम्मति कैसे बनेगी?
क्या कहते हैं विश्लेषक?
सूत्रों का कहना है कि संसद के विशेष सत्र में एक देश-एक चुनाव का बिल पेश हो सकता है. इस पर संविधान विशेषज्ञ देश दीपक वर्मा ने कहा कि यह बिल लाना इतना आसान नहीं है. इसे एक पूरी प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा. इसके लिए संविधान में संशोधन करना पड़ेगा. मुझे लगता है कि अगर विशेष सत्र में इस बिल को लाया जाएगा तो इसे वैचारिक बिंदु के तौर पर लाया जाएगा.
संविधान में करना होगा संशोधन
राजनीतिक विशेषज्ञ मनीष के गौतम बताते हैं कि अगले साल लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं. लोकसभा चुनाव में ज्यादा महीने नहीं बचे हैं. ऐसे में मुझे नहीं लगता कि चुनाव से कुछ महीने पहले ही इतना बड़ा चुनाव सुधार होगा. हमें इसके लिए इसकी संवैधानिक प्रक्रिया को समझना होगा. यह बिल लागू करने से पहले इसे कई चरणों से गुजरना होगा. सबसे पहले संविधान संशोधन विधेयक को लोकसभा और राज्यसभा में पेश करना होगा. इन दोनों सदनों से बहुमत से इस विधेयक का पारित होना जरूरी है. इसके बाद कम से कम 15 राज्यों की विधानसभाओं से इसे अनुमोदित कराना होगा.
गौतम ने कहा कि राज्यसभा से दो-तिहाई विशेष बहुमत से इस विधेयक को पारित कराना सरकार की सबसे बड़ी चुनौती होगी. अगर INDIA गठबंधन एक साथ आकर इस संशोधन विधेयक का विरोध करता है तो यह औंधे मुंह गिर जाएगा.
फंस सकता है पेंच
संविधान विशेषज्ञ पीडीटी आचार्य ने कहा कि संविधान के तहत लोकसभा और विधानसभाओं को पांच साल के लिए चुना जाता है. पांच साल की अवधि पूरी होने से पहले किसी सदन को भंग करने के लिए आवश्यक मंजूरियां लेनी होती हैं. केंद्र सरकार आर्टिकल 356 के तहत ही हस्तक्षेप कर सकती है.
उन्होंने कहा कि सरकार की सिफारिश पर ही किसी असेंबली को कार्यकाल पूरा होने से पहले ही भंग किया जा सकता है. या फिर आर्टिकल 356 के तहत केंद्र की सरकार ही असेंबली को भंग कर सकती है. हालांकि, अभी यह देखना पड़ेगा कि क्या असल में संविधान में संशोधन की जरूरत भी है या नहीं.
राज्य सरकारों का अहम रोल
आचार्य ने कहा कि संवैधानिक संशोधन आर्टिकल 368 के तहत होता है. अगर सदन में बहुमत के दम पर बिल पारित होता भी हो तो उसके बाद राज्य की मंजूरी लेना भी जरूरी है.
उन्होंने कहा कि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि किस तरह का बिल लेकर आना है. संविधान में साफतौर पर लिखा हुआ है कि कार्यकाल खत्म होने से पहले असेंबली को केवल तभी भंग किया जा सकता है, जब वहां की स्थानीय सरकार राज्यपाल से सिफारिश करे. केंद्र सरकार आर्टिकल 356 के तहत हस्तक्षेप कर सकती है. वरना नहीं.
सरकार को सत्र बुलाने का अधिकार
दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 85 में संसद का सत्र बुलाने का प्रावधान है. इसके तहत सरकार को संसद के सत्र बुलाने का अधिकार है. संसदीय मामलों की कैबिनेट समिति निर्णय लेती है जिसे राष्ट्रपति द्वारा औपचारिक रूप दिया जाता है, जिसके जरिए सांसदों को एक सत्र में बुलाया जाता है.
क्या कभी एक-साथ होते थे चुनाव?
- आजादी के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे.
- इसके बाद 1968 और 1969 में कई विधानसभाएं समय से पहले ही भंग कर दी गई. उसके बाद 1970 में लोकसभा भी भंग कर दी गई. इससे एक साथ चुनाव की परंपरा टूट गई.
- अगस्त 2018 में एक देश-एक चुनाव पर लॉ कमीशन की रिपोर्ट आई थी. इस रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि देश में दो फेज में चुनाव कराए जा सकते हैं.
- पहले फेज में लोकसभा के साथ ही कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव. और दूसरे फेज में बाकी राज्यों के विधानसभा चुनाव. लेकिन इसके लिए कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाना होगा तो किसी को समय से पहले भंग करना होगा. और ये सब बगैर संविधान संशोधन के मुमकिन नहीं है.